अव्यक्त प्रेम

-वियोगी हरि। हिरदै भीतर दव बलै, धुवाँ न परगट होय। जाके लागी सो लखै, की जिन लाई सोय॥ -कबीर लगन की आग का धुवाँ कौन देख सकता है। उसे या तो वह देखता है, जिसके अन्दर वह जल रही है, या फिर वह देखता है, जिसने वह आग सुलगाई है। भाई, प्रेम तो वही जो … Continue reading अव्यक्त प्रेम