अजय विद्युत
कल्याण पत्रिका ने महामना मदन मोहन मालवीय की पुण्य स्मृति में मालवीय अंक निकाला था। लेकिन अंग्रेज सरकार इतनी भयभीत हुई कि उस पर तत्काल प्रतिबंध लगा दिया
बीसवीं सदी के आरंभ में देश में जो राजनैतिक और सामाजिक ऊर्जा प्रकट हुई थी, उसमें सबसे बड़ी भूमिका अध्यात्म की थी। पराधीनता की इन विषम परिस्थितियों में हमें आत्मबल प्रदान करने का काम हमारे आध्यात्मिक साहित्य ने किया था। उस समय की हमारी राष्ट्रीय चेतना को सबसे अधिक प्रभावित करने का काम भगवद्गीता ने किया था।
राजनैतिक स्तर पर इसका श्रेय लोकमान्य तिलक को जाता है। उनके ग्रंथ ‘गीता रहस्य’ ने सभी देशवासियों को स्वधर्म के बारे में सचेत करते हुए उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में सम्मिलित होने की प्रेरणा दी थी। महात्मा गांधी का ध्यान भी गीता रहस्य पढ़कर ही भगवद्गीता की ओर आकृष्ट हुआ था और उन्होंने घोषित किया था कि इस ग्रंथ में हमारे जीवन से संबंधित सभी प्रश्नों के उत्तर मिल जाते हैं।
‘सिर जाय तो जाय प्रभु! मेरो धर्म न जाय’ मालवीयजी का जीवन व्रत था जिससे उनका वैयक्तिक और सार्वजनिक जीवन समान रूप से प्रभावित था। आलेख में इस पर भी प्रकाश डाला गया है महामना ने भारतवर्ष, सनातन धर्म और हिंदू जाति की सेवा का कार्य क्यों चुना? ‘क्योंकि महामना जानते थे कि भारतवर्ष, सनातन धर्म और हिन्दू जाति की रक्षा और समृद्धि से ही विश्व में मानवता की रक्षा और अभ्युदय होगा। मानवता का ही नहीं, जीवमात्र के स्वरूप का यथार्थ दर्शन और जीवमात्र की रक्षा तथा अभ्युदय का साधनसंपन्न सफल संदेश जैसा भारत के हिंदू सनातन धर्म ने दिया है वैसा और किसी अन्य देश के किसी भी धर्म ने नहीं दिया।’
बंगाल की घटनाओं ने महामना को विचलित कर दिया था। ‘कल्याण’ के संपादक श्री हनुमान प्रसादजी पोद्दार की इसी अंक में छपी ‘मानवता का पतन’ शीर्षक रिपोर्ट में कहा गया:
‘मुस्लिम लीगी नेताओं के- जिनमें से कुछ आज केंद्रीय सरकार के माननीय सदस्य हैं- के मुखों से भीषणतम विषाग्नि प्रवाह बड़े जोरों से बह निकला। उसका विशेष रूप से कार्य संपन्न हुआ (पाकिस्तान की मांग को तत्काल स्वीकार करने के लिए) ‘प्रत्यक्ष कार्रवाई’ की बुरी तारीख 16 अगस्त से कलकत्ता महानगरी में। भीतरी मदद से, सहानुभूति से लीगी बंगाल सरकार ने उसका समर्थन ही नहीं किया, उसमें सहयोग दिया। कलकत्ते की आग बुझी तो नहीं ही, बंगाल के अभागे पूर्वी अंश में- जहां हिंदू अल्प संख्या में बसते हैं- बुरी तरह से फैल गई। हिंदू जनता रोती रही, मानवता कराहती रही, परंतु किसी भी सरकार ने उसको रोकने में अपनी शक्ति का उपयोग नहीं किया। न मुर्दा हिंदू-जाति में ही कोई ऐसी जागृति आई जिससे बंगाल की उस अत्याचार-धारा का प्रवाह कुछ रुक सकता।’
इसी रिपोर्ट में ‘सर्वेंट आफ इंडिया सोसाइटी’ के बहुत पुराने प्रसिद्ध कार्यकर्ता पं. श्रीहृदयनाथ कुंजरू के हवाले से कहा गया, ‘मैंने जांच पड़ताल कर पता लगाया कि कलकत्ते के दंगे के तुरंत बाद ही नोआखाली जिले में हिंदू विरोधी आंदोलन जोरों में शुरू कर दिया गया था। मुस्लिम लीग के आक्रमणकारी अंग के नेताओं ने मुसलमानों की धार्मिक भावनाएं उत्तेजित कर नोआखाली जिले के कई भागों में शांतिप्रिय और निहत्थे हिंदुओं पर हमला करने के लिए मुसलमानों को उकसाया। हिंदुओं ने जिलाधिकारियों से बार बार अनुरोध किया किंतु उनका भय निराधार बताकर अधिकारियों ने उनकी प्रार्थना अनसुनी कर दी। हिंदुओं के बचाव के लिए जरा भी ध्यान उन्होंने नहीं दिया।’
रिपोर्ट में कहा गया कि ‘शरणार्थियों तथा उपद्रवग्रस्त क्षेत्रों में रहने वाले हिंदुओं के वक्तव्यों से स्पष्ट है कि मुसलमानों के पूर्व नियोजित आक्रमणों के कारण हिंदुओं की दुर्दशा हुई है। उसमें बाहरी मुसलमानों के साथ स्थानीय मुसलमानों ने हाथ बंटाया है। जब बाहरी मुसलमानों के गिरोह हिंदू गांवों पर धावे बोलते थे तो स्थानीय मुसलमान उनके साथ मिलकर अत्याचारों में प्रमुखता से भाग लेते थे।’
अत्याचारों ने क्रूरता ही नहीं पाशविकता की सीमाओं का भी अतिक्रमण कर दिया, ‘बंगाल में अबाध नरहत्या, आग तथा भयानक लूट तो हुई ही। जीवित मनुष्य भी जलाए गए। सबसे अधिक बुरी बात हुई- पुत्रों के सामने माताओं पर, भाइयों के सामने बहनों पर, पतियों के सामने पत्नियों पर और पिताओं के सामने पुत्रियों पर बलात्कार किए गए; उनका अपहरण किया गया, उनसे जबर्दस्ती विवाह किए गए और सामूहिक रूप से जनता का बलात् धर्मपरिवर्तन किया गया। विधर्मी बनाए गए हर हिंदू को लुंगी और टोपी दी गई थी। टोपी पर बांग्ला में ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ लिखा हुआ था।’
‘कुमारी मूरियल लीस्टर ने, जिसने विलायत में महात्मा गांधी का आतिथ्य किया था, पूर्व बंगाल जाकर वहां की स्थिति का भलीभांति अध्ययन कर कहा है- सबसे अधिक दुर्दशा की कथा तो महिलाओं की है। उनमें से अनेक ने अपनी आंखों के सामने अपने पतियों की हत्या देखी है और फिर धर्मपरिवर्तन कर उन्हीं हत्यारों में से किसी के साथ उन्हें विवाह करना पड़ा है। उन स्त्रियों को धमका दिया गया है कि वे यदि अफसरों के सामने यह नहीं कहेंगी कि हमें यह नया घर ही पसंद है तो उनके परिवार के तमाम लोगों को कत्ल कर दिया जाएगा। कई हजार लोगों को जबरन गोमांस खिलाकर इस्लाम स्वीकार कराया गया है।’
महामना का अंतिम संदेश
सनातन धर्म व हिन्दू संस्कृति की रक्षा और संवर्धन में मालवीयजी का योगदान अनन्य है। जनबल तथा मनोबल में निरंतर क्षयशील हिन्दू जाति को विनाश से बचाने के लिये उन्होंने हिन्दू संगठन का शक्तिशाली आन्दोलन चलाया। जातियों का भेदभाव मिटाने के लिए उन्होंने स्वयं कलकत्ता, काशी, प्रयाग और नासिक में दलितों को धर्मोपदेश और मन्त्रदीक्षा दी।
जीवन के अंतिम समय में नोआखाली की नादिरशाही की बातें सुनकर पूज्य मालवीयजी की आंखों से आंसुओं की धारा चल पड़ती। मालवीयजी ने हिंदुओं की उनके कर्त्तव्य का सच्चा ज्ञान कराने वाला वक्तव्य दिया जो उनके जीवन का भारत तथा हिंदू जाति के प्रति अंतिम संदेश है। ‘कल्याण’ के इस अंक में ‘महामना मालवीयजी का अंतिम पूरा वक्तव्य’ इसी शीर्षक से छापा गया और यह भी घोषणा की गई कि ‘समाचार पत्रों में किसी में पूरा वक्तव्य अब तक नहीं निकला है। यह पूरा है और इसमें एक भी शब्द ऐसा नहीं है जो विचारणीय न हो और व्यर्थ समझकर छोड़ दिया जाए।’
वक्तव्य के प्रारंभ में ही महामना स्पष्ट करते हैं ‘वर्षों से लगातार हिंदू सच्ची हिंदू-मुस्लिम एकता को मूर्तिमान देखने के लिए अपनी ओर से पूर्ण चेष्टा करते रहे और उदारता से काम लेते रहे। आज भी हिंदू सहयोग करने और सहिष्णुता से काम लेने को तैयार हैं। परंतु मुझे यह देखकर दुख है कि उनकी सहिष्णुता का अर्थ दुर्बलता किया जा रहा है और उनके सहयोग को अधिकांश मुसलमानों द्वारा ठुकराया जा रहा है। असहिष्णुता का भावना नहीं, वरन् पूर्ण सावधानी तथा मनन चिंतन के उपरांत मैं यह वक्तव्य दे रहा हूं। क्योंकि यह निश्चित है कि जब तक हिंदू एक जाति के रूप में कमर कसकर तैयार नहीं हो जाएंगे, तब तक हिंदू-मुस्लिम समस्या अपनी सारी भयंकरताओं को साथ लिए बनी रहेगी।’
वक्तव्य की प्रमुख बातें इस प्रकार हैं-
‘हिंदू नेताओं का जैसा कर्त्तव्य अपनी मातृभूमि के प्रति है, वैसा ही अपने धर्म, संस्कृति और अपने हिंदू-बंधुओं के प्रति भी है। यह नितांत आवश्यक है कि हिंदू अपने आप को संगठित करें, जाति तथा वर्णगत भेदों को भुला दें और हिंदू जाति की रक्षा और अपने आदर्श तथा संस्कृति को बचाने के लिए अधिक से अधिक त्याग करें।’
‘हिंदुओं को प्रभावपूर्ण रूप से संगठित होने की आवश्यकता क्यों है, इसके कारणों पर विचार करने की आवश्यकता नहीं है। परंतु आज देशभर में मुसलमानों की राजनीतिक और धार्मिक संस्थाओं के कैसे विचार हैं और वे क्या कर रहे हैं, इसका उल्लेख करना आवश्यक है। मुसलमान नेताओं द्वारा दिए गए अग्निमय भाषण, अज्ञात मुसलमान संस्थाओं द्वारा सावधानी के साथ जान बूझकर तैयार किए हुए गुप्त लेख, मुस्लिम लीग का धमकी भरा राजनीतिक रुख, कलकत्ते का हिंदू हत्याकांड, पूर्व बंगाल में मुसलमानों के सुसंगठित दलों द्वारा कुकर्मों के रोमांचकारी समाचार और देशभर में दंगों का उत्पादन- देखकर प्रत्येक हिंदू का हृदय निश्चय ही रोष से खौलने लगना चाहिए और हिंदू जाति के लिए कुछ कर डालने को उभड़ उठना चाहिए। पिछले कुछ महीनों से हिंदुओं पर सोच समझकर जो अगणित अत्याचार किए जा रहे हैं, उनमें से कुछ हैं- जबर्दस्ती धर्म परिवर्तन, हिंदू पुरुष, नारी और बच्चों के साथ बर्बरतापूर्ण व्यवहार, स्त्रियों पर बलात्कार, शिशुओं की निर्मम हत्या, पवित्र स्थानों-मंदिरों का ध्वंस एवं हिंदू-दूकानों तथा निवासस्थानों की लूट।’
‘…पिछले तमाम वर्षों से हिंदुओं से सदा हानि उठाई है। …जो हिंदुओं को शांति के साथ नहीं रहने देना चाहते, उनके प्रति किसी प्रकार की सहिष्णुता नहीं हो सकती। यदि धर्म की ही पुकार है तो अवश्य ही इसमें धार्मिक दृढ़ता की गूंज होनी चाहिए। …कोई भी मूल्य देकर शांति चाहने से समस्या का समाधान नहीं होता- सांप्रदायिक समस्या का तो और भी नहीं।’
‘वर्तमान घटनाचक्र के निरीक्षकों और आलोचकों में से बहुतों का निश्चित मत है कि परिस्थिति का यह रूप क्षणिक नहीं है। हिंदू जाति को यदि जीवित रहना है तो उसे कमर कसकर तैयार हो जाना चाहिए। वर्षों और दशाब्दियों से हिंदुओं की मनोवृत्ति धर्म की अपेक्षा राष्ट्रीयता की ओर अधिक झुकी रही है। हिंदू सत्य का प्रेमी और अहिंसा का विश्वासी है। उसमें युद्ध की भावना का अभाव है। एक राष्ट्रगत मनुष्यों में परस्पर लड़ाई-झगड़े की भावना से उसे घृणा है। हिंदुओं की इस मनोवृत्ति से लाभ उठाकर मुसलमानों ने अपनी मांगों को बढ़ा दिया और उन पर धार्मिकता का रंग चढ़ाकर नया जोश भर दिया है। इस प्रकार के लड़ाई-झगड़ों की जड़ झूठा प्रचार है। मुसलमाने इस कार्य में अपनी आशा से भी अधिक सफल हुए हैं।’
‘…पिछले तमाम वर्षों से हिंदुओं से सदा हानि उठाई है। …जो हिंदुओं को शांति के साथ नहीं रहने देना चाहते, उनके प्रति किसी प्रकार की सहिष्णुता नहीं हो सकती। यदि धर्म की ही पुकार है तो अवश्य ही इसमें धार्मिक दृढ़ता की गूंज होनी चाहिए। …कोई भी मूल्य देकर शांति चाहने से समस्या का समाधान नहीं होता- सांप्रदायिक समस्या का तो और भी नहीं।’
‘हिंदुओं को हिंदुओं की सेवा अवश्य करनी चाहिए। हिंदुओं को आज अपने संरक्षण की बड़ी आवश्यकता है। बर्बरतापूर्ण आक्रमण, मिथ्या राजनीतिक प्रचार अथवा मेल-मिलाप-नीति की मिथ्या कल्पना या निर्जीव बना देने वाले तत्वज्ञान के द्वारा हिंदू अपने धर्म को मरने नहीं देना चाहते, अपनी संस्कृति को मिटने देना नहीं चाहते और न अपनी संख्या को ही घटने देना चाहते हैं। यदि हिंदू अपनी रक्षा नहीं करेंगे तो वे मर जाएंगे। यदि वे अपना संगठन नहीं करेंगे तो उनके नष्ट होने में देर नहीं लगेगी। यदि वे पिछड़े रहे तो रौंदकर क्रियारहित और निर्जीव बना दिए जाएंगे। उन्हें अकर्मण्य बिल्कुल नहीं रहना चाहिए। उनमें आत्मविश्वास और साहस अवश्य होना चाहिए। उन्हें मरने से कभी नहीं डरना चाहिए। उन्हें परस्पर भाई-भाई की तरह प्रेम करना चाहिए। प्रत्येक हिंदू के प्रति सहनशील बनना चाहिए; परंतु उन मुसलमानों के प्रति सहनशील बिल्कुल नहीं होना चाहिए, जो उन्हें शांति के साथ रहने देना नहीं चाहते।’
‘मैं इस प्रकार की प्रेरणा करना अपना कर्त्तव्य समझता हूं, क्योंकि इस समय मानवता दांव पर लगी है। हिंदू-संस्कृति और हिंदू-धर्म खतरे में है। …समूचे भारतवर्ष में अनेक मुसलमान नेताओं ने अपने लेखों और आडंबरपूर्ण व्याख्यानों में जहर उगला है। जंगली और दायित्वशून्य भाषा में हिंदुओं को चुनौती दी है। बंगाल की घटनाओं पर एक भी मुस्लिम लीगी नेता ने घृणा प्रकट नहीं की है। बल्कि इन बर्बर तथा पाशविक घटनाओं पर वे एक आंतरिक आनंद का अनुभव करते हैं। मैं उनकी-सी विषघुली स्याही में अपनी लेखनी डुबोकर कुछ नहीं लिखना चाहता।’
‘मैं अपने हिंदू भाइयों से यह नहीं कहता कि जहां मुसलमान कमजोर या कम हों, वहां वे उन पर आक्रमण करें। पर हिंदुओं से मैं यह अवश्य कह रहा हूं कि जहां वे दुर्बल हैं, वहां सबल बनें। जहां उनकी संख्या कम हो वहां सफलतापूर्वक अपनी रक्षा करें। हिंदू-बहुसंख्यक प्रांतों में हिंदुओं ने अल्पसंख्यकों के अधिकारों का कभी विरोध नहीं किया, बल्कि उनके अधिकारों की गारंटी दी है। हालांकि वे देखते आ रहे हैं कि मुस्लिम बहुसंख्यक प्रांतों में न केवल हिंदुओं के अधिकारों की भीषण एवं क्रूर अवहेलना की जाती है बल्कि उनके जीवन, धन और धर्म पर भी आघात होता है।’
मालवीयजी का जीवन, उनका एक-एक कर्म- उनके सिद्धांतों की प्रयोगशाला था। सत्य, ब्रह्मचर्य, व्यायाम, देशभक्ति, आत्मत्याग- पूज्य मालवीय जी इन पर केवल उपदेश नहीं दिया बल्कि जीवन में जीकर दिखाया। व्यवहार में सदैव मृदुभाषी रहे। अनेक संस्थाओं के जनक एवं सफल संचालक के तौर पर व्यवस्थागत कार्यों का सुचारु सम्पादन करते हुए उन्होंने कभी भी रोष अथवा कड़ी भाषा का प्रयोग नहीं किया। आत्मविश्वास ऐसा कि दूसरों को असंभव लगने वाले काम भी हाथ में ले लेते थे और घोर निराशा की परिस्थितियों में भी उसे सफलता के साथ पूरा करते थे। वे भारतीय संस्कृति के प्रतीक तथा ऋषियों के प्राणवान स्मारक थे।
देश सबका
महामना मालवीयजी का यह दृढ़ मत था कि भारत केवल हिंदुओं का नहीं है बल्कि मुसलमान, ईसाई, पारसियों का भी उतना ही है। सभी समुदाय प्रेम से रहेंगे, विकास करेंगे, तो भारत आगे बढ़ेगा। महामना ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की जिसे अंग्रेजी में बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी (बीएचयू) नाम से जाना जाता है। उनकी परिकल्पना इस विश्वविद्यालय में ऐसे विद्यार्थियों को शिक्षित करके देश सेवा के लिये तैयार करने की थी, जो देश का मस्तक गौरव से ऊंचा कर सकें। काशी हिंदू विश्वविद्यालय की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए मालवीयजी ने कहा था, ‘भारत केवल हिन्दुओं का देश नहीं है बल्कि यह मुस्लिम, ईसाई और पारसियों का भी देश है। देश तभी विकास और शक्ति प्राप्त कर सकता है जब विभिन्न समुदाय के लोग परस्पर प्रेम और भाईचारे के साथ जीवन व्यतीत करेंगे। यह मेरी इच्छा और प्रार्थना है कि प्रकाश और जीवन का यह केंद्र जो अस्तित्व में आ रहा है, वह ऐसे छात्र प्रदान करेगा जो अपने बौद्धिक रूप से संसार के दूसरे श्रेष्ठ छात्रों के बराबर होंगे, बल्कि एक श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करेंगे, अपने देश से प्यार करेंगे और परम पिता के प्रति ईमानदार रहेंगे।