—प्रदीप सिंह

राम मंदिर का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर आ गया है। इस बार इस मुद्दे पर भाजपा के लिए बचने का कोई रास्ता नहीं है। क्योंकि केंद्र और राज्य दोनों जगह उसकी पूर्ण बहुमत की सरकार है। मंदिर के मुद्दे पर भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आनुषांगिक संगठनों की विश्वसनीयता पहले ही खत्म हो गई थी। अब दांव पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की साख है।

नये साल के पहले दिन एक समाचार एजेंसी को दिए इंटरव्यू में प्रधानमंत्री ने अयोध्या में राम मंदिर के सवाल पर संकेत दिया कि उनकी सरकार इस मुद्दे पर दबाव में है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि कई बार हमारे अवचेतन जो होता है वह अनजाने ही जबान पर आ जाता है। प्रधानमंत्री से सवाल था कि राम मंदिर क्यों एक भावनात्मक मुद्दा बनकर रह गया है। कुछ होता क्यों नहीं। उन्होंने जवाब की शुरुआत इस बात से की कि तीन तलाक पर अध्यादेश सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आया। इसे इस बात का संकेत मानने में कोई हर्ज नहीं है कि राम मंदिर पर अध्यादेश लाने के लिए सरकार तैयार है।

यहां तक तो कोई समस्या नहीं है। समस्या आगे आ सकती है। यदि चार जनवरी को सुप्रीम कोर्ट बेंच गठित करके रोज सुनाई के लिए तैयार हो जाता है तो सरकार का काम आसान हो जाएगा। पर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई टाल देता है या सुनवाई पूरी करके फैसला सुरक्षित रख लेता है तो सरकार और भाजपा सहित पूरे संघ परिवार के लिए भारी संकट पैदा हो जाएगा। सुप्रीम कोर्ट इससे कम महत्वपूर्ण मामले में ऐसा कर चुका है। साल 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले समाजवादी पार्टी के नेता मुलामय सिंह यादव के खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति के मुकदमे की सुनवाई पूरी करने के बाद अदालत ने फैसला इसलिए सुरक्षित रख लिया कि इससे चुनाव पर असर पड़ सकता है। यह अलग बात है कि फैसला आज तक नहीं आया।

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सवाल है कि लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा के लिए मंदिर क्यों जरूरी है। क्यों सर संघचालक मोहन भागवत ने सार्वजनिक रूप से यह कहा कि अब अदालत का और इंतजार नहीं करेंगे। सरकार इस संबंध में अध्यादेश या विधेयक लाए। जाहिर है कि यह मांग संघ ने बिना सोचे समझे या बिना तैयारी के नहीं की। इसका संबंध लोकसभा चुनाव की रणनीति से है। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत सुनिश्चित करने के लिए मंदिर पर किसी निर्णायक कदम की जरूरत है।

भाजपा और प्रधानमंत्री की तमाम कोशिशों के बावजूद ऐसी आशंका है कि लोकसभा चुनाव मोदी बनाम राहुल गांधी न बन पाए। भाजपा जब तक आश्वस्त थी कि चुनाव मोदी बनाम राहुल होगा, मंदिर का मुद्दा ठंडे बस्ते में था। कांग्रेस पार्टी की इच्छा और प्रयास के बावजूद विपक्षी दल राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकार करने को तैयार नहीं हुए हैं। धीरे धीरे स्पष्ट होता जा रहा है कि महागठबंधन बना भी तो अखिल भारतीय स्वरूप अख्तियार नहीं कर पाएगा। भाजपा को राज्यों में क्षेत्रीय दलों से लड़ना पड़ेगा। ऐसे में चुनाव के पूरी तरह राष्ट्रीय मुद्दों पर होने की बजाय स्थानीय स्वरूप लेने की संभावना बढ़ जाएगी। इससे भी ज्यादा बड़ी समस्या है, चुनाव के जातीय आधार पर चले जाने की आशंका।जाति पर आधारित चुनाव भाजपा की सबसे बड़ी कमजोरी है।

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एक और सवाल जेहन में आता है कि राम मंदिर मुद्दे पर संघ इतना और इस तरह से उद्वेलित क्यों है? इससे पहले यह मुद्दा विश्व हिंदू परिषद के जिम्मे था। विहिप इस मामले में पहलकदमी करती थी और संघ और भाजपा समर्थन करते थे। संघ की इस बेचैनी की कारण न तो मंदिर बनाने की जल्दबाजी है और न ही पूरी तरह से भाजपा की राजनीतिक जरूरत। अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण कानून में संशोधन से समाज के सवर्ण तबके में जो नाराजगी है उसका सही आंकलन भाजपा और संघ शुरू में नहीं कर पाए। उन्हें लगा कि यह फौरी प्रतिक्रिया है जो कुछ दिन बाद शांत हो जाएगी। पर ऐसा हुआ नहीं। मध्य प्रदेश का चुनाव भाजपा को इसी एक मुद्दे ने हरा दिया। भाजपा समर्थक सवर्णों ने पूरा साथ दिया होता तो भाजपा को कम से कम दस बारह सीटें और मिलतीं। मध्य प्रदेश के चुनाव नतीजे से भी ज्यादा संघ इस बात से परेशान है कि उसकी शाखाओं और पदाधिकारियों की बातचीत में यह नाराजगी दिखाई देने लगी है। संघ की शाखाओं में रुचि घटने लगी है। संघ के लिए यह बड़ी चिंता का विषय है। भाजपा संघ दोनों की समस्या का निवारण राम मंदिर मुद्दे से हो सकता है। इसलिए मंदिर निर्माण का रास्ता खुले यह दोनों के लिए जीवन मरण का प्रशन बन गया है।

अपने राजनीतिक जीवन में नरेन्द्र मोदी ने कई जोखिम भरे फैसले किए हैं। अब उनके सामने एक और चुनौती है। शायद अब तक की सबसे बड़ी चुनौती। सुप्रीम कोर्ट यदि अयोध्या मामले की सुनवाई टाल देता है या सुनवाई के बाद फैसला सुरक्षित रख लेता है तो क्या प्रधानमंत्री चुनाव से पहले इस मुद्दे पर कोई अध्यादेश लाने का जोखिम मोल लेंगे।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अयोध्या में राम मंदिर के समर्थक रहे हैं। इसके बावजूद उन्होंने 2014 में इस मुद्दे को ज्याद तरजीह नहीं दी। वे देश के तमाम मंदिरों और धर्म स्थानों पर गए लेकिन न तो लोकसभा व विधानसभा चुनाव के दौरान और न ही उसके बाद कभी अयोध्या गए। उन्हें लगता था कि विकास की राजनीति और उनकी छवि चुनाव जिताने के लिए काफी है। उन्हें भरोसा था कि देश के लोगों का यकीन उनसे उठा नहीं है। यह कुछ हद तक सही है लेकिन इतने से ही काम नहीं चलने वाला। राम मंदिर के मुद्दे पर प्रधानमंत्री के बदले रुख से लगता है कि उन्हें एक बड़े भावनात्मक मुद्दे की जरूरत है जो पार्टी और सरकार से नाराज तबके को सब कुछ भूलने को विविश कर दे। इस समय अयोध्या के अलावा कोई और ऐसा मुद्दा नहीं है।

राम मंदिर के चक्रव्यूह में फंसे मोदी

अपने राजनीतिक जीवन में नरेन्द्र मोदी ने कई जोखिम भरे फैसले किए हैं। अब उनके सामने एक और चुनौती है। शायद अब तक की सबसे बड़ी चुनौती। सुप्रीम कोर्ट यदि अयोध्या मामले की सुनवाई टाल देता है या सुनवाई के बाद फैसला सुरक्षित रख लेता है तो क्या प्रधानमंत्री चुनाव से पहले इस मुद्दे पर कोई अध्यादेश लाने का जोखिम मोल लेंगे। अब तक ऐसे कई मामले हुए हैं जिसमें उन्होंने पार्टी के हित से ज्यादा देश हित को तरजीह दी है। किसानों की कर्ज माफी का मुद्दा उसका सबसे ताजा उदाहरण है। पर सवाल अब राम मंदिर का है। उनके ऊपर संघ और मंदिर समर्थकों का दबाव है। और चुनावी तकाजा भी।

 

 

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