सत्यदेव त्रिपाठी
अच्छी कविताओं पर चर्चा होती है, उनके विवेचन होते हैं; किंतु सबसे अच्छी कविताएं चर्चाओं और विवेचनों से परे होती हैं। बल्कि यह कि चर्चाओं में आकर वे नष्ट हो जाती हैं। ऐसी ही कवितायें प्रिय हैं मुझे, जिनमें से फिलवक़्त मैं निरालाजी की ऐसी दो कविताओं के नाम भर देकर आगे बढूंगा, जिन्हें साहित्य का प्राय: हर पाठक जानता है – ‘बाँधो न नाव इस ठाँव बन्धु’ और ‘स्नेह निर्झर बह गया है’।
‘हंस’- अक्तूबर, 2000 के अंक में छपी ‘किस्सा-ए-बडके दा’ ऐसी ही कविता है – थोडी लम्बी। कोई प्रस्तावना व परिचय दिये बिना इस कविता का मित्रों के घरों-परिवारों व सामान्य महफिलों (के साहित्येतेर लोगों) से लेकर एम.ए., हिन्दी व थियेटर की कक्षाओं तथा काव्य-गोष्ठियों…तक के बीच सैकडों पाठ कर चुका हूं, पर न मैं थका-ऊबा, न कोई अघाया। बल्कि उन पाठों के बीच ‘बढा दी प्यास है ‘इसने’ शराब देकर के’ की तरह बनती रही कविता, किंतु आज मैं इसी का विश्लेषण करने –गोया इसे नष्ट करने- पर उतर रहा हूँ…
कविता के साथ छपे परिचय में ‘1944 में जन्मे (आज हैं या नहीं, कौन जाने!!) निशीथजी, कानपुर के निवासी, छपित रूप में एक काव्य-संग्रह व एक व्य्ंग्य-संग्रह के अलावा पत्रिकाओं में छिट्फुट लेखन… और बस। उसमें से भी कुछ पढा नहीं, लेकिन ‘किस्सा-ए-बडके दा’ के लिए इस कविता के अलावा और कुछ की या जितना मालूम है, उसकी भी कोई ज़रूरत ही कभी महसूस नहीं हुई – बडके दा के किस्से ने होने ही नहीं दी…, जबकि समाजशास्त्रीय समीक्षा में मेरी गहरी आस्था है, जिसके मुताबिक रचयिता के व्यक्ति और समय व परिवेश के बिना किसी रचना के बारे में कोई बात हो ही नहीं सकती। इसलिए मैं यह भी न कहूँगा कि ‘बडके’ दा कहने वाले वे बंगाली हैं, क्योंकि इसमें ‘बडके’ तो शुद्ध भोजपुरी का है।
ये बातें कविताई के तमाम घोषित व पोषित प्रतिमानों से इतर हैं, पर क्या सचमुच ये अच्छी कविता की सच्ची निधियां नही हैं?
अजीब ये भी लग सकता है कि जब आजकल डिजिटल दुनिया आदमी को आदमी मात्र से काटती जा रही है और नेट की आभासी दुनिया से जोडे जा रही है, जिससे इस दुनिया वाले हाड-मांस के आदमी का अस्तित्त्व ही ख़तरे में आ गया है…, तब ऐसे समय में इस कविता की बात क्या की जाये, जो इस संकट के आभास तक से रिक्त तो क्या, मुक्त है। मनुष्य के समक्ष ख़तरे की ही बात इसमें भी है, पर वह आभासी संसार में मनुष्य के यंत्र बन जाने का नहीं, मनुष्य के आकार में ही संवेदनशून्य होकर मात्र अपने ऐशगाह में अमानवीय हो चुकने से उपजा है। इसमें मुब्तिला है हर समूचा आम-ओ-ख़ास, जबकि उस आभासी मनुष्य के ख़तरे का तो अभी आभास भर है – बमुश्किल दस-पाँच प्रतिशत लोगों तक महदूद, जबकि यह ख़तरनाक मंज़र मेन स्ट्रीम तो क्या टोटल स्ट्रीम बन चुका है।
प्रेम निशीथ ने ‘किस्सा-ए-बडके दा’ को ‘काव्यकथा’ कहा है, जिसमें न नया काव्य-रूप देने की कोई मंशा उजागर है, न विरलता के श्रेय का कोई भाव। बस, जो रचना बनी, उसे अधिकतम सार्थक करती एक संज्ञा – ‘किस्सा-ए-बडके दा’। यह परिवार की कहानी है, जिसमें माँ-पिता और तीन बेटे हैं। छोटा बेटा सुना रहा है बडे भाई की कथा, सो ‘किस्सा-ए-बडके दा’ और सगा छोटा भाई, सो कथा की विश्वसनीयता का मानक…।
कविता की कथा या कविता में कथा शुरू होती है –
बडके दा / कुछ पागल से लगते हैं/
हो सकता है ऐसा न हो/ पर हम सब तो / ऐसा ही समझते हैं /
मनो-चिकित्सक का निष्कर्ष है/ मानसिक रूप से स्वस्थ हैं बडके
बस सामान्य लोगों से भिन्न हैं जरा
पर सामान्य लोगों से भिन्नता ही/ क्या नहीं होती है पागलपन जैसी
असहमति मनो-चिकित्सक से हम सबकी / रही भीतर ही भीतर घुटती
और बडके दा जैसे थे रहे वैसे ही / जीते रहे उसी ढंग से / जो बहुत अलग है हम सबसे
और जिसे जोडा जा सकता है एक व्यक्ति के पागलपन से
कविताई लग जाती है यहीं से…एक तरफ हो जाते हैं सब लोग, क्योंकि बडके का जीना सबसे अलग है और यही पेंच है, जो डॉक्टर के सच को झुठलाते हुए उन्हें पागल करार देने में सब एक साथ हैं। और एक तरफ रह जाते हैं अकेले बडके दा सच्चे अर्थों में ‘आउटसाइडर’ बनकर। ये सब लोग याने परिवार ही नहीं, इसमें संकेत है दुनिया का…और आज की भौतिकपरस्त दुनिया में हर व्यक्ति के लिए एक ही मानदण्ड है – एम.एस.सी. फर्स्ट क्लास से पास बडकेदा अच्छी नौकरी करें, ख़ूब कमायें…पर वे हैं कि
‘टिक ही नहीं पाते, किसी नौकरी में/
दो उन्होंने ख़ुद छोड दी / तीसरी से निकाल दिये गये
तीनो ही नौकरियां सरकारी थीं / ऊपरी कमाई वाली थीं
सरकारी और ऊपरी कमाई वाली को यूँ छोडने वाला अब उस दुनिया की समझ में पागल के सिवा और क्या होगा!! तो पिताजी दुनियादारी की सीख देते है –
‘“जो चलता है, चलने दो / सरकारी विभागों में ऐसे ही चलता है
मिलती रहे समय से तनख़्वाह / फिर तुम्हें क्या करना है”
पर पिता नहीं जानते बडके दा का दंश – “साले, पब्लिक को परेशान करते है / पाँच मिनट का काम / पाँच दिन दौडाते है / बिना कुछ लिये-दिये / फाइल में हाथ नहीं लगाते हैं”
पर यह तो उस दुनिया के लिए ‘बचकानी बात’ है…‘सत्यवादी हरिश्चन्द’ की ख़िताब मिलती है बडके दा को। इस तरह दुनिया बनाम बडके दा की साफ-साफ दो श्रेणियां बन जाती हैं…
दोनो भाइयों की शादी हो जाती है… दा रह गये कुँवारे, जिस पर कथावाचक की घोर दुनियावी टिप्पणी – भला कौन देगा उसे अपनी लडकी, जिसकी हरकतें हों पागलों जैसी…
फिर उस दुनिया को हैरत भी होती यह देखकर कि
बडके दा मन्द-मन्द मुस्कराते / कभी छोटी सी ढपली बजाकर
बैठे-बैठे घण्टों गाते / मैं और मँझले दा भीतर ही भीतर कुढते रहते
जिसके पास ढंग के कपडे तक नहीं / चप्पल जिसकी है तीन साल पुरानी
जो ट्यूशन से थोडा बहुत कमाता है / उससे भी किताबें खरीद लाता है
वो शख़्स कैसे इतना बेफिक्र होकर / घण्टों गाने गाता है?
उनकी शादी के बरक्स इजाफा हुआ बडके दा में भी – वेद, उपनिषद, बाइबिल, गीता, कबीर, अरबिन्द, गान्धी, टैगोर, सुकरात, प्लूटो, कंफूशियस, कॉण्ट, हेगेल, रसेल, सार्त्र, गोर्की, दॉस्तोवस्की, बर्नॉर्ड शॉ, मार्क्स नीत्शे और ख़लील जिब्रान…. कैसी-कैसी किताबों का ढेर लगा दिया है घर पर कि परिवार को ‘म्युज़िक सिस्टम को उठाकर / रखना पड गया है बक्से पर’।
फिर देर तक वही सब पढना, शाम को परिवार के लेखे ‘कुछ निठल्लों’ के साथ लॉन पर बैठ कर बहस करना। ‘सामाजिक न्याय’, ‘आर्थिक विषमता’… जैसे भारी भरकम शब्दों और कंफ्यूशियस-मार्क्स-सार्त्र…आदि नामों का उछलकर ड्राइंग रूम तक पहुंच जाना, जहाँ तृप्त परिवार बैठा ‘चित्रहार’ देख रहा होता…
उधर बडके दा की मजलिस उठती, तो चली जाती चाय पीने नुक्कड पर। ऐसा उस दिन से हुआ, जिस दिन बिना कमाते बडे बेटे की औकात पर पिता ने ‘बिलो द बेल्ट’ प्रहार किया –
‘काम के न काज के, दुश्मन अनाज के…’।
परिवार की दुनिया में और बढोत्तरी हुई – मंझले दा और मैं / अपनी-अपनी नौकरी में
खूब जम गये / एक-एक बच्चे के बाप हो गये
उधर ‘बडके दा रहे, जैसे के तैसे/ जैसे के तैसे मतलब / वही पागलों जैसे!
हाँ, उनमे नया मोड यह आया कि उनसे फिजिक्स और केमेस्ट्री का ट्यूशन पढने तमाम लडकी-लडके आने लगे और परिवार के खडे कानों ने सुन लिया – बडके कितना अच्छा पढाते हैं / और कितने मन से!! फिर क्या चलने लगे उनकी ‘दुनिया’ के मन में गुणा-भाग़ –
बीस से कम छात्र नहीं आते हैं / प्रति छात्र सौ रुपया लगायें तो
महीने के बडके / दो हज़ार से कम नहीं कमाते हैं,
फिर भी अम्मा के हाथ में / दो-तीन सौ रुपये रखकर / छुट्टी पा जाते हैं !
बस, हो गयी पेशी पिता के सामने – काम-काजी संसार से समाजसापेक्ष्य मूल्यों की समक्षता…। बडके दा का उत्तर – वो पढना चाहते हैं इसलिए पढा देता हूँ /
जोर-जबरदस्ती से जो पैसा देते हैं / उतना ही रख लेता हूँ”
सुनते ही पिताजी क्रोध से इतने कंपित कि शब्द नहीं फूटे मुँह से, तो मंझले दा ने संभाला मोर्चा – बदला पैंतरा – “बडके दा सुना है आप बहुत अच्छा पढाते हैं/
अपने हुनर का फायदा क्यों नहीं उठाते हैं क्यों नहीं इस हुनर से हज़ारों कमाते हैं”?
और सुनते ही “नो सॉरी, आई जस्ट कांट डू दैट”/ कहकर बडके दा उठते हैं
और बिना किसी की ओर देखे / कमरे से बाहर हो जाते हैं,
इस पर दो प्रतिक्रियायें – पिताजी बडबडाते हैं / लानत है, ऐसी औलाद का बाप होना
…और उधर बगल के कमरे में सुनाई पडता है / अम्मा का धीमे-धीमे रोना
परिवार को हैरत है कि आजकल बडके दा से मिलने कितने ही लोग आते हैं – कुछ सामाजिक कार्यकर्ता, कुछ अध्यात्म के जिज्ञासु और कुछ साहित्यकार जैसे लोग…। बडके दा के मना करने पर भी छात्रों के अभिभावक किसी बहाने से मिठाइयां और फल ले आते हैं। कुछ संभ्रांत लोग गाडी लेकर आते हैं और बडे सम्मान से बडके दा को ले जाते हैं… परिवार को यह अनहोनी समझ में नहीं आती कि बेरोज़गार व बदरंग कुर्त्ते-पाजामे में टूटी चप्पल सटकाते बडके दा में ऐसा है क्या? बस, पलीता लगाते हैं घर की इज्जत में। क्या सोचते होंगे लोग – दो भाई गज़टेड ऑफिसर और एक भाई इतना फटीचर!
उनके पागलपन में तो इजाफा ही हो रहा है – अब तो वे कवितायें भी लिखने लगे हैं!! लोग क्या बिल्कुल पागल हैं? कैसे छपते हैं उनके लेख पत्रिकाओं में और उनकी चर्चा क्यों होती है!! आखिर क्या स्टेटस है बडके दा की!
स्टेटस तो परिवार की है – कारें, मोबाइल, लायंस और रोटरी क्लबों की सदस्यता, पब्लिक स्कूल में पढते बचे, हाई सोसाइटी में उठना-बैठना, दोनो भाइयों के पॉश लोकैलिटीज़ में बँगले, मझले दा का सभाओं में चीफ गेस्ट की तरह जाना, हमारे फोन मात्र से लोगों के अटके काम हो जाना…आदि। ऐसे में ‘बस, बडके दा का होना ही मख़मल में टाट का पेबन्द बन जाता है’…
परिवार की चिंता का एकमात्र विषय है – कब समझेंगे बडके दा पैसे की कीमत, इज्जतदार होने का मतलब, क्या होती है स्टेटस… क्या ऐसे ही बीत जायेगा उनका जीवन बडे-बडे फलसफों, मोटी-मोटी किताबों, ट्यूशनों, सामाजिक न्याय…आदि की बहसों में…पर असली दर्द यह कि बडे-बडे लोगों से परिचय कराने में ‘हमारे बडे भाई है, बतलाते हुए शर्म आती है
और जो लोग जानते हैं/ उनके सामने गरदन शर्म से झुक जाती है
पिताजी एम.एल.सी. हो गये हैं/ वो अम्मा और बडके दा के साथ
रहते हैं पुरानी कोठी में / जहां अब छोटे-बडे नेताओं का आना-जाना है
बस एक बडके दा ही हैं / सफेद संगमरमर की झिलमिलाती फर्श पर
पान की पीक जैसे!
कहना होगा कि बडके दा की यह काव्यकथा उनके मूल्यों की कथा है, जिनका तेज़ गति से क्षरण आजादी के बाद शुरू हुआ था, पर तब भी काफी कुछ बचा था। लेकिन भूमण्डलीकरण, बाज़ारवाद और मीडिया-क्रांति के प्रकोप के बाद इस कविता के लेखन-काल (2000 ईस्वी) तक आते-आते बडके दा ऐसा सपना हो गये थे, जो रात बीतते ही टूट गया था, पर उसकी यादों के बिम्ब प्रत्यक्ष-से थे। लेकिन अब 21वीं सदी में किशोर हुई पीढी के ज़ेहन में आ न सके। इसीलिए 2010-12 तक जहाँ भी मैंने यह कविता सुनायी, ढेरों लोग अश्रु-प्रवाह रोक न पाते। आँसू थमने के लिए देर तक पोंछने-समझाने का प्रयत्न भी कइयों के साथ होता। आँखें नम न होने वाले तो गिने-चुने (कठकरेजी) लोग ही होते। लेकिन 2015-16 के दौरान यह असर चुप्पी और उदासी तक ही रह गया, जो मेरे सुनाने को कुछ हतोत्साहित भी कर गया है। आज ये मूल्य अपवाद स्वरूप मौजूद तो हैं, पर हो गये हैं कल्पनालोक की ही चीज़…।
इसीलिए इस कल्पना को आकार देंगी अब तक की वर्णित इतनी विस्तृत अंतर्विरोधी स्थितियां, क्योंकि इस भौतिकता की भाग-दौड, तनाव और एकरसता के बीच अदृश्य रूप से बैठे एक बड-दा के बेफिक्री और भीतरी संजीदगी से बने समाज सापेक्ष्य मूल्य, उन हसरतों को जगा देंगे, जो मक़सद है इस कथा का और ज़रूरत है इस युग की। अब तक की कही यह काव्यकथा आगे के इसी मुख्य कथ्य की बेहद मज़बूत पृष्ठभूमि बनाती है। कहना होगा कि इसमें अविरल प्रवाह है, अबाध गति है और अपेक्षाधिक रोचकता है, जिनके बीच समस्त भौतिक समृद्धियां, जो काव्यकथा की विलेन हैं, परत-दर-परत करीने से खुलती और रू-ब-रू होती चलती हैं। और ये सबकुछ कहने में ख़ुद-ब-ख़ुद समर्थ हैं। फिर भी अपने मंतव्य को अमिट रूप से पुरअसर बनाने के लिए कविता अपने अंतिम चरण के कलात्मक आयाम के रूप में अचानक नाटकीय मोड लेती है –
उस दिन बडके दा, निकल गये घर से सबेरे / पर शाम तक न लौटे
देर रात लौटे भी तो पुलिस और कुछ लोगों के साथ / जो उठा कर लाये थे बडके दा की लाश,
राह चलते उनको पडा था दिल का दौरा
आज के समाज के समक्ष बडके दा की मौत का कविता ने वैसे ही सौदा किया है, जैसे अंग्रेजों के साथ भगत सिंह ने अपनी मौत का किया था। उनका मक़सद था – गुलामी की कारा तोडकर देश को आजाद करना और ‘किस्सा-ए-बडके दा’ का मक़सद है – भौतिकता की लिप्सा और खोखले स्टेटस के मोह को तोडकर मरते रिश्तों व मनुष्यता को बचाना…। इतिहास-विश्रुत है कि भगत सिंह की फाँसी से देश जाग उठा था और प्रेम निशीथ की कल्पना ने सिद्ध कर दिया है कि बडके दा की मौत से ही कविता जी उठी है। फिर बडके दा जब जीवन में नहीं रह गये, तो कविता में क्यों रहें, पर रहेंगे वे इस काव्य की जीव्ंत कथा बनकर….
और अब मैं विदा लेता हूँ… आप उस अंश को पढिए और देखिए कि क्यों, कैसे और कहाँ जिन्दा हैं बडके दा…
बडके दा अब नहीं हैं / न होने जैसे तो पहले भी थे
पर शायद कुछ न होते हुए भी, कुछ थे
फाइल में दबी हैं अधूरी कविताएँ और लेख / इंतजार में पूरा होने को,
अम्मा की बूढी आंखें प्रतीक्षारत हैं अभी भी / बदरंग कुरते-पैजामे में /
कंधे पर झोला लटकाये / दबे पांव घर में प्रवेश करती / एक मानव-छाया की
पिताजी तलाशते हैं किसी के पागलपन को / जिस पर उतार सकें झल्लाहट अपनी /
और हम दोनो भाई / महसूस कर रहे हैं
तमाम दौलत और शोहरत के बीच / पसरता हुआ एक बेबूझ सन्नाटा,
कोई था / जो मंद-मंद मुस्कराता था
कोई था / जो ढपली बजाकर गाता था
कोई था जो / ‘नो आई जस्ट कांट डू दैट’ कहकर
कमरे से बाहर निकल जाता था / ….
यह कैसी शून्यता है, उस शख्स के बिना / जो मखमल में टाट का पैबंद था,
‘कोठी’ की हवाओं में / अब गंध नहीं फलसफों की
ढपली नहीं, गीत नहीं / बहस नहीं, छात्रों का जमघट नहीं
जमाने का दर्द नहीं / कविता के छंद नहीं / प्यार नहीं, पीडा नहीं
अहसास नहीं, चिंतन नहीं, मनन नहीं / आँसू नहीं, आहें नहीं, / कुछ भी नहीं
चिता पर स्वाहा हो गया सब कुछ / बडके दा के साथ ही
रह गई है घूरने को / पोर्च में खडी निर्जीव कारें / हाथों में मोबाइल फोन
ठेकेदारों के साथ होते निर्मम सौदे / फाइव-स्टार डिनर / पब्लिक स्कूल में जाते बच्चे,
विदा हो गया जीवन का स्पर्श / उसी के साथ
जो बदरंग कुरता पैजामा पहने / दिखा करता था कोठी में
चप्पलों को खटकाता / और खटकता था आंखों को
संगमरमर के सफेद फर्श पर / पान की पीक जैसा