ताकत ही कमजोरी बनी
चुनावी राजनीति में आने वाले दूसरों नेताओँ की तरह प्रणव मुखर्जी भी महत्वाकांक्षी थे। पर उन्होंने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पार्टी की इच्छा पर कभी हावी नहीं होने दिया। जीवन की तरह राजनीति में भी कई बार ऐसा होता है कि अच्छे लोग पीछे रह जाते हैं। प्रणव दा के साथ ऐसा कई बार हुआ। राजनीति में उनकी सबसे बड़ी ताकत ही उनके रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा बन गई। यह ताकत थी उनकी योग्यता।
उनकी योग्यता से वे सब लोग डरते थे जो उनसे कम योग्य थे। इंदिरा गांधी नहीं डरीं। बल्कि उन्होंने उनकी प्रतिभा को पहचाना और आगे बढ़ाया। पर इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रणव मुखर्जी कुछ साल के लिए राजनीति के अँधरे में चले गए। क्योंकि राजीव गांधी और उनके सलाहकार उनसे डर गए थे।
इस डर का कारण बहुत छोटा सा था। महज इतना था कि इंदिरा गांधी की हत्या की खबर आई तो प्रणव दा राजीव गांधी के साथ पश्चिम बंगाल में थे। वे उसी चार्टर्ड प्लेन से लौट रहे थे जिसमें राजीव गांधी। फ्लाइट में बाकी नेताओं में बात होने लगी कि कार्यवाहक प्रधानमंत्री कौन होना चाहिए। प्रणव दा ने सहज भाव से कहा कि सबसे वरिष्ठ मंत्री को।
उनके विरोधियों ने राजीव का कान भरा कि प्रणव मुखर्जी प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। उसके बाद उनकी कांग्रेस से विदाई हो गई। 1989 में राजीव गांधी संकट में आए तो उन्हें प्रणव दा की याद आई और वे कांग्रेस में वापस आ गए।
सोनिया गांधी को नहीं था विश्वास
सोनिया गांधी को कांग्रेस में राजनीतिक और बौद्धिक रूप में स्थापित करने में उनकी बड़ी भूमिका थी। तीन दशकों में कांग्रेस का ऐसा कोई अधिवेशन नहीं रहा जिसके प्रस्ताव प्रणव मुखर्जी ने तैयार न किए हों। सब कुछ करने के बावजूद प्रणव मुखर्जी इंदिरा गांधी के बाद नेहरू गांधी परिवार के कभी विश्वास पात्र नहीं बन पाए। यही कारण है कि 2004 में जब कांग्रेस सत्ता में आई तो सोनिया ने उनकी बजाय वफादार मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद के लिए चुना।
बात यहीं तक नहीं रही। मंत्रिमंडल के गठन के समय वे मान कर चल रहे थे कि नम्बर एक नहीं तो वे नम्बर दो तो बनेंगे ही। परम्परा के तौर गृह मंत्री नम्बर दो होता है। वे गृह मंत्रालय संभालने की तैयारी कर रहे थे। मंत्रालय के बारे में जानकारी ली। कुछ अधिकारियों से बात की। थोड़ी देर में संदेश आया कि उन्हें रक्षा मंत्री बनाया जा रहा है। उस समय प्रणव मुखर्जी ने अपने अध्ययन कक्ष में थे। वे कुछ समय तक चुपचाप बैठ रहे। फिर बाथरूम गए और निकलने के बाद अपने सहायक से कहा कि रक्षा सचिव को फोन लगाओ।
इस बार कोई जोखिम नहीं लिया
साल 2009 में कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए की फिर सरकार बनी। इस बार भी प्रणव मुखर्जी की दावेदारी को नजर अंदाज कर दिया गया। इसके बाद उन्होंने समझ लिया कि अब पार्टी उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनाएगी। उनकी नजर राष्ट्रपति पद पर टिकी।
राष्ट्रपति चुनाव आया तो एक बार फिर सोनिया गांधी ने यह कह कर उनका पत्ता काट दिया कि प्रणव दा चले जाएंगे तो पार्टी के अधिवेशनों के प्रस्ताव बनाने से लेकर राजनीतिक प्रबंधन तक के काम कौन करेगा।
अंतिम वार
प्रणव दा समझ गए कि अब वार करने का समय है। ममता बनर्जी सोनिया गांधी से मिलने गईं तो पता चला कि वे उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी को राष्ट्रपति बनाना चाहती हैं। ममता ने अंसारी और मुखर्जी का विरोध किया और एपीजे अब्दुल कलाम का नाम सुझाया। दस जनपथ से बाहर निकल ममता ने सोनिया गांधी का पत्ता खोल दिया। फिर मुलायम सिंह यादव ने प्रेस कांफ्रेंस करके कहा कि हम लोग कलाम साहब को चाहते हैं।
इसके बाद प्रणव दा के समर्थक सक्रिय हुए। पहले मुलायम को तोड़ा गया। फिर नीतीश कुमार और शिवसेना को। बदले हालात में ममता ने भी समर्थन कर दिया। अब सोनिया गांधी फंस गई थीं। उनको समझ में आ गया था कि बाजी उनके हाथ से निकल गई है। मजबूरन उन्हें प्रणव मुखर्जी को यूपीए का राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाना पड़ा।