फ्रांसीसी फ़िल्म- पोर्ट्रेट ऑफ़ अ लेडी ऑन फ़ायर
-सत्यदेव त्रिपाठी
इधर एक निराली फ्रांसीसी फ़िल्म देखी और उसके प्रगल्भ सौंदर्य पर चकित हुआ। सुंदरता असह्य भी हो सकती है। अंत:स्तल में चुभने वाली भी हो सकती है। वैसी ही अनिर्वचनीय चाक्षुषरति की वह फ़िल्म थी, जिसमें एक युवा चित्रकार एक दूसरी लड़की का पोर्ट्रेट बनाती है और फिर दोनों एक-दूसरे के प्यार में पड़ जाती हैं।

अठारहवीं सदी का फ्रांस। ब्रिटनी के कोस्टल-टाउन में मरीन कूची और कैनवस लेकर पहुंचती है। उसे हलुइज़ का चित्र बनाना है। यह चित्र मिलान के एक व्यापारी को भेजा जाएगा, जिसके आधार पर हलुइज़ को विवाह के लिए पसंद किया जाएगा। किंतु वो विवाह नहीं करना चाहती। उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व में विक्षोभ और उदासीनता भरी है। कहानी हमें बतलाती है कि इससे पूर्व हलुइज़ की बहन को भी विवाह के लिए बाध्य किया गया था, जिसके बाद उसने आत्महत्या कर ली थी। हलुइज़ का विद्रोह इतना मुखर नहीं है। पर वह अपनी निस्संगता से ना कहने की कोशिश करती है।
मरीन एक संवेदनशील और मेधावी लड़की है। वह अपने को एक विचित्र स्थिति में पाती है। उसे हलुइज़ का चित्र बनाना है, लेकिन अपने इस मक़सद को उस पर ज़ाहिर नहीं होने देना है। वह छुप-छुपकर हलुइज़ का मुआयना करती है, उसके हावभाव, उसकी प्रतिक्रियाओं को परखती है, और एकान्त में इस स्मृति के आधार पर उसका चित्र बनाती है। हलुइज़ इस बात को अनुभव करती है कि उसका मुआयना किया जा रहा है। यह प्रतीति उसे आदिम आवेग से भरने लगती है। शायद, हमें प्यार इसी तरह से होता है, यह जानने पर कि हमें निहारा जा रहा है। कि शायद हम परखे जाने के योग्य हैं।
चित्र बनकर पूरा होता है। हलुइज़ को दिखाया जाता है। वो मरीन से कहती है, क्या मैं ऐसी दिखलाई देती हूं? ये तो मैं नहीं। तुम मेरा एक और चित्र बनाओ, इस बार छुपकर नहीं। मैं तुम्हें पोज़ दूंगी। सब चौंकते हैं कि क्या हलुइज़ विवाह के लिए राज़ी हो गई है? जबकि सच यह है कि वो केवल मरीन के लिए स्वयं को उघाड़ने के लिए राज़ी हुई थी। एकांत, समानुभूति और निकटता के क्षणों में दोनों लड़कियों को एक-दूसरे से सघन अनुरक्ति हो जाती है।
इस फ़िल्म का नाम है- पोर्ट्रेट ऑफ़ अ लेडी ऑन फ़ायर। इसकी निर्देशक सेलीन शियामा हैं। गए साल ही यह प्रदर्शित हुई और इस साल फ़रवरी में कान्स फ़िल्म समारोह में इसे क्वीर कान्स का पुरस्कार दिया गया। समलैंगिक सम्बंधों पर आधारित फ़िल्मों के लिए यह विशेष श्रेणी है। इससे पहले लेस्बियन सम्बंधों पर आधारित फ़िल्म ब्लू इज़ द वॉर्मेस्ट कलर को कान्स में ही सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का पुरस्कार दिया जा चुका है। डॉटर्स ऑफ़ फ़ायर नामक एक अन्य फ़िल्म ने तो एलजीबीटी श्रेणी में पोर्नोग्राफ़िक सिनेमा को एक दूसरे ही आयाम पर पहुंचा दिया था। किंतु उन फ़िल्मों में प्रतिकार अधिक था, आत्मसंतोष कम। लेकिन पुरुष के भ्रूभंग (मेल-गेज़) को नकारने में जिस हद तक पोर्ट्रेट ऑफ़ अ लेडी ऑन फ़ायर सफल हुई है, उसकी दूसरी मिसाल नहीं।
यह फ़िल्म लगभग पूरी तरह से पुरुषों से मुक्त है। एक या दो दृश्यों को छोड़कर यहां कोई पुरुष नहीं है। हां, वो पृष्ठभूमि में अवश्य हैं और परदे पर दिखाई दे रही लड़कियों के जीवन में दुर्भाग्य का कारण बनते हैं। सेलीन ने इस फ़िल्म के माध्यम से एक ऑल गर्ल्स यूटोपिया की कल्पना की है और इस बात को सामने रखा है कि पुरुषों से पूर्णतया मुक्त होकर भी स्त्रियां ना केवल सुखी और संतुष्ट हो सकती हैं, बल्कि वास्तव में वह जीवन उनके लिए अधिक गरिमा और अस्मिता से भरा होगा। सेलीन की नायिकाएं बहुत एनलाइटेंड और एवॉल्व्ड हैं।
मरीन के लिए हलुइज़ का व्यक्तिचित्र सफलतापूर्वक बना देने का मतलब है, उसे एक अपरिचित पुरुष के समक्ष विवाह के लिए प्रस्तुत कर देना। यह मरीन और हलुइज़ दोनों की गरिमा का हनन होगा। किंतु मरीन यह करने को प्रवृत्त होती है और हलुइज़ इसमें उसका साथ देती है। आख़िर यही वह प्रसंग है, जिसने इन दोनों को एकान्त के कुछ क्षण दिए। जिसमें सुख था, वही दुर्दैव भी था। इसी में फ़िल्म की विडम्बना निहित है। इसका एक अर्थ यह भी है कि कलात्मक चेष्टा भले अपने में सुंदर और सम्पूर्ण हो, किंतु उसके फल उदात्त ही होंगे, यह आवश्यक नहीं है। यहां पर हलुइज़ का चित्र बनाने में निहित दक्षता वैसी ही एक चेष्टा है, जो एक दुर्भाग्य को रचती है।
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मुझे याद नहीं आता, बीते कुछ सालों में इससे श्रेष्ठ फ़िल्म मैंने कोई और देखी हो। सेलीन ने इसे एक चित्रकृति की तरह पेंट किया है। उनकी कम्पोज़िशंस सुघड़ हैं। प्रकाश-योजना वायवी है। यह वही सुपरिचित यूरोपियन आलोक है, जो नश्वर कायाओं को कान्तिमान बना देता है। अठारहवीं सदी की फ़िल्म होने के कारण इसे स्वयं को एक ऐसे एकान्त में निर्वासित करना पड़ा है, जो आधुनिकता से अक्षुण्ण रह गया है। उस सदी का वस्त्र-विन्यास इसमें सजीव हो उठा है। वही स्कर्ट्स और स्टॉकिंग्स, जिनका आकर्षण ड्रेसिंग-अप इन एटीन्थ सेंचुरी शीर्षक से प्रसारित श्रृंखला की ओर खींचे ले जाता है।
एक स्त्री और पुरुष का हेट्रोसेक्सुअल प्रेम और एक पुरुष और पुरुष का होमोसेक्सुअल प्रेम- इन दोनों सम्भावनाओं को सिनेमा ने व्यक्त किया है, पहली को तो अतिशत रूप से। किंतु क्या पुरुष-समलैंगिकता अपने कलात्मक निष्पादन में वैसी सम्पूर्णता को अर्जित कर सकती है, जैसी सेलीन ने अपनी इस फ़िल्म में पा ली है?
एक स्त्री और पुरुष का हेट्रोसेक्सुअल प्रेम और एक पुरुष और पुरुष का होमोसेक्सुअल प्रेम- इन दोनों सम्भावनाओं को सिनेमा ने व्यक्त किया है, पहली को तो अतिशत रूप से। किंतु क्या पुरुष-समलैंगिकता अपने कलात्मक निष्पादन में वैसी सम्पूर्णता को अर्जित कर सकती है, जैसी सेलीन ने अपनी इस फ़िल्म में पा ली है? मुझे सदैव इस पर संशय रहेगा। मेल-गेज़ से मुक्ति एक विवादास्पद अवधारणा है, जो जैविकी को भी झुठलाती है। प्रकृति ने संतानोत्पत्ति के लिए यौन-चेष्टा रची थी, मनुष्य ने उसमें सुंदरता, अस्मिता और आत्मशोध के आयाम जोड़ दिए। सौंदर्यशास्त्रीय आयामों में स्त्री-समलैंगिकता किन उच्चतर आयामों को छू सकने में सक्षम है, उसका घोषणा-पत्र यह फ़िल्म है। मनुष्य की संज्ञानात्मक चेतना, जो कि इस सृष्टि का महान रहस्य है, जैविक-गुणसूत्रों को सदैव ही झुठला देती है।
प्रसंगवश, एक बार एक लड़की से मेरी बात हो रही थी। पोस्ट-मिडनाइट चैट्स अकसर अपने स्वरूप में पर्सनल हो जाती हैं। उसने कहा, मैं रातों को सड़कों पर अकेले घूमना चाहती हूं, काश मैं एक पुरुष होती। मैंने कहा, काश सभी लड़कियों को रातों को सड़कों पर घूमने की सुविधा होती, ताकि वे जान पातीं कि इसमें सुख भले हो, स्वतंत्रता फिर भी नहीं है। कुछ देर ठहरकर मैंने उससे कहा, काश हम स्ट्रैट-स्वाइप कर पाते। मैं तुम्हारी जगह पर होना चाहता हूं। वह इससे चकित हुई। उसने कहा, कोई भी पुरुष भला क्यों स्त्री का जीवन जीना चाहेगा? क्या इसमें दु:ख, बंधन और घुटन नहीं हैं?
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मैं उसको क्या जवाब देता? किंतु स्त्री का संसार सम्भावनाओं का संसार है। वह प्रेम और चाहना के एक ऐसे आयाम का संसार भी है, जिससे पुरुष पूरी तरह अनभिज्ञ हैं, जैसे किसी दूसरे ग्रह के प्राणी जो यह भाषा नहीं समझ सकते। मैं दु:ख को नहीं, प्रेम को जानने के लिए स्त्री होना चाहता था– यह मैं चाहकर भी उस लड़की से कह नहीं सका। किंतु पोर्ट्रेट ऑफ़ अ लेडी ऑन फ़ायर देखते हुए पूरे समय यह आकांक्षा मेरे भीतर धड़कती रही कि काश मैं इस संसार का हिस्सा होता। इस ऑल गर्ल्स यूटोपिया का। यह अपने में सम्पूर्ण था। पुरुषों के लिए यह बुरी ख़बर थी कि स्त्रियां उनके बिना भी अस्मिता से जी सकती हैं। किंतु मैं फिर से निर्वासित नहीं होना चाहता था। क्योंकि मैं अपनी आंखों से देख पा रहा था कि ईदन का जो नया उद्यान था, उसमें इस बार ईश्वर ने नहीं, बल्कि स्वयं ईव ने अदम को अपने संसार से निष्कासित कर दिया था!

 

 

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