सत्यदेव त्रिपाठी।

लेकिन छत से जुड़ा एक मामला भी उल्लेख्य है। सामने वाले ग्रंडील जवान ठाकुर साहेब अपनी पहली मंजिल पर व्यायाम करते और बीजो को पता नहीं क्यों, इससे क्या चिढ़ पैदा हो गयी कि देखते ही तख़्ते पर खड़े होकर उनकी ओर भौंकने लगता। फिर वहाँ से शायद वे जरा ऊपर लगते, तो भाग के इसी छत पर आ जाता और रेलिंग के पास से ठीक उनके आमने-सामने होके भौंकता।


 

हमने बारहा मना किया, विकासजी ने आके दोस्ती का हाथ बढ़ाया, खिलाने-पिलाने के रूप में कुछ घूस भी दी। यूँ उनसे दोस्ती हो भी गयी, पर व्यायाम के वक़्त वे बीजो के लिए कुछ और हो जाते। अंत में हारके उन्हें कसरत के लिए अन्दर भागना ही पड़ा। ऐसे विभ्रम-विश्वास उसके कुछ और भी थे। मुम्बई के घर में तीसरी मंजिल वाली कृपा बेन और थोड़ा-बहुत दूसरी मंजिल वाली जागृति बेन के साथ भी यही सलूक करता। इनके नीचे-ऊपर आते-जाते हुए भौंकता ही। कुछेक  विरलों को तो परिसर में आने ही नहीं देता। मुझे तो यह बेसबब नहीं, उसकी छ्ठीं इन्द्रिय का संज्ञान लगता। इसी से मैंने उसे बरजना भी बन्द कर दिया था, और कभी बरजता, तो मुँहदेखी वाला नकली बरजना वह समझता भी।

उसे ‘संत’ यूँ ही थोड़े कहते हैं

मुम्बई के मुकाबले इस घर में कटौती यह हुई कि दीदी की भक्ति की आचार-व्यवस्था के तहत रसोईंघर और उसके छोटे से मन्दिर में जाने की मनाही पहले ही दिन (डे वन) से हो गयी, तो बीजो को खला भी नहीं। उसने अपनी आज्ञाकारिता व सहकारिता के स्वभाव में सहर्ष मान भी लिया। कुछ लेना होता, तो रसोईं के दरवाजे पे बैठ जाता। अन्दर कदम न रखता– ‘रूल इज़ रूल’। यहाँ कड़ी ठण्डक और भयंकर गर्मी का मौसम अवश्य त्रासद सिद्ध हुआ। शुरुआत ठण्ड से हुई, जो लैब्रे की प्रकृति के अनुकूल होने से बीजो को बहुत सता नहीं पायी। हाँ, गर्मी में बहुत परेशान हुआ। लेकिन पहले तो उसकी पानी-प्रियता मुफ़ीद सिद्ध हुई– टिल्लू चलाके ठण्डे पानी से रोज़ नहला देते। किंतु असली त्राण एसी था।

दिन भर एसी में रहता। कॉलोनी में आम चर्चा होती कि पण्डितजी का एसी तो कुत्ते के लिए चलता है, जबकि होनी यूँ चाहिए थी कि पण्डितजी का कुत्ता भी एसी में रहता है। और प्रभात-भ्रमण के लिए तो जुहू का विकल्प बनारस तो क्या, किसी समुद्र-विहीन शहर में हो नहीं सकता। डीएलडब्ल्यू-परिसर में स्थित जंगल में बने जिस भ्रमण-मार्ग (वॉकिंग ट्रैक) पर मैं जाता हूँ, वहाँ भी श्वान अग्राह्य ही होता… तो उसके सामने सूर्य-सरोवर के चारों ओर की खुली जगह में जाने लगा। लेकिन हर स्थिति में ‘सुख-दु:खे समे कृत्वा लाभालाभो जयाजयौ’ वाले बीजो को तो कोई फर्क पड़ा नहीं। उतने ही चाव से जाता। उसे ‘संत’ यूँ ही थोड़े कहते हैं!

सुनकर जी तड़प जाता

सुख-सुविधाओं के मामले के अलावा जब बात भावात्मकता की आती, तो बीजो की स्थितप्रज्ञता कमलनाल की भाँति टूट जाती– ‘पद्मपत्रमिवाम्भसा’ न रह पाती। गृह-प्रवेश के बाद दो-तीन दिनों में ही सब लोग चले गये। घर में रह गये सिर्फ़ मैं और दीदी। मैं दिन भर विश्वविद्यालय चला जाऊँ, तो सिर्फ़ दीदी, जो मुम्बई के मंसायन से आने वाले बीजो के लिए एकाकीपने का सबब बनता। मेरे जाते हुए उसकी छटपटाहट और आने के बाद का उतावलापन इसका प्रमाण देता। दीदी बताती कि साढ़े तीन बजे से ही गाड़ी की आवाज अकनने लगता और मेन रोड से कॉलोनी की गली में घुसते ही अपनी गाड़ी की आवाज पहचान जाता। गेट पे आ जाता। जब एक-दो दिनों के लिए सेमिनारों में या एकाध सप्ताह के लिए मुम्बई जाने के लिए मेरी अटैची तैयार होने लगती, तभी से ताड़ लेता और उदास हो जाता। यह मुम्बई में भी होता। कल्पनाजी भी कहतीं कि जाते हुए उसे बतिया-बता के जाया करो, तब ठीक रहता है– गोया सुनके समझ जाता हो, वरना बहुत तंग रहता है। बनारस में मेरे चले जाने पर रात को मेरा स्लीपर उठाके ले जाता और उसी पर बैठके सोता। याद आता कि मेरे गोवा जाने पर पहली में पढ़ता हुआ बेटा भी मेरा फोटो लेके सोता। सुनकर जी तड़प जाता… और कई यात्राएं रद्द भी कर देता।

बगल वाले अजय सिंह के साथ हमारा रिश्ता घर जैसा हो गया था– आज भी है, तो उनका दरवाज़ा (गेट) खुला देख या फिर खुलवा के वहाँ चला जाता और कुछ देर मन-बदलाव कर लेता। बिन्दुजी का बिस्किटादि से आतिथ्य भी ग्रहण कर लेता। ऐसे पड़ोस की कल्पना भी मुम्बई में नहीं की जा सकती। वाचस्पति भाई साहेब ने बीजो को अपने घर (सामने घाट) आमंत्रित किया। वे एक बार मुम्बई के घर में भी बीजो से मिले थे। शकुंतला भाभी ने भरपूर आतिथ्य तो किया ही, पूरा घर-छत…आदि यूँ दिखाया– गोया पुराना मित्र आया हो। उतने समय अपने प्यारे पॉमेरियन को कमरे में बन्द कर दिया था, ताकि ‘बाभन-कुत्ता-हाथी, ये न जाति के साथी’ वाली श्वान-वृत्ति से कोई अयाचित स्थिति न पैदा हो। उन्होंने ही डॉक्टर भी मुहय्या कराया था, जो सालाना सुई लगाने के साथ गाहे-बगाहे इलाज़ भी करते। एक बार बड़ी-सी सुई लगाने चले, तो बीजो को दोपट में बाँधने के लिए कहा। मैंने कहा –‘मैं सहला रहा हूँ, आप लगाइये’। जब बीजो ने चुप बैठे लगावा लिया, तो हैरत में पड़ बोले –‘ऐसे तो आदमी भी नहीं लगवाते’। मैंने अपना आप्त वाक्य कहा– ‘यह बच्चा तो स्थितप्रज्ञ संत है’।


हॉय बीजो, श्वान-तन में संत थे तुम-1