डॉ. कुमार विश्वास से अजय विद्युत की बातचीत के प्रमुख अंश :
डॉ. कुमार विश्वास- युवाओं के चहेते कवि। दुनिया में हिंदी कविता के सेलिब्रिटी स्टेटस। सितारों जैसी स्टाइल और रईसों जैसे ठाठ के साथ सबसे ज्यादा पारिश्रमिक लेने वाले के तौर पर जाने जाते हैं। गूगल हेडक्वार्टर उनको हिन्दी पर भाषण देने बुलाता है तो फेसबुक पर दुनिया के किसी भी कवि से बड़ा परिवार उनका है, न्यूजीलैंड की आवादी जितना। पर ये सब एक तरफ- बातों का सिलसिला शुरू हुआ तो हिन्दी को लेकर कितना कुछ समेटे हैं भीतर, सब बाहर आ गया।
थोड़ा पीछे का माहौल देखें तो लम्बे समय तक हिंदी के कवि सम्मेलन और समाज के चलन के बीच एक दूरी बनी दिखाई देती है।
अपने आपको पुनर्परिभाषित करने पर हिन्दी के कवि सम्मेलनों ने कोई काम नहीं किया। बीसवीं शताब्दी के शुरू में कानपुर में अंग्रेज रेजीडेंट के घर पर हिन्दी का पहला आधिकारिक कवि सम्मेलन होने की सूचना मिलती है। रेजीडेंट की पत्नी कविता लिखती थीं। उन्होंने पति से कहा कि यहां भी भाषा के कवि भी तो कविता लिखते होंगे, मैं उनको सुनना चाहती हूं। एक अनुवादक भी मुझे चाहिए। तो उस समय के कवि गया प्रसाद शुक्ल सनेही और कुछ अन्य कवि बुलाए गए। सम्मेलन की फोटो भी किसी अखबार में है। कवि लोग अर्द्धवृत्ताकार फ्रेम में बैठे हैं। पीछे तकिए लगे हैं। और बीचोंबीच गोल वाला ध्वनि विस्तारक यंत्र दिखाई दे रहा है। लोग, भाषा, समाज का चलन कहां के कहां पहुंच गया, हिन्दी के कवि सौ सालों से ज्यादा तक वैसा ही करते रहे। समकालीन आवश्यकताओं के अनुरूप अपना रूपान्तरण नहीं किया।
एक समय तो हिंदी कविता का पूरा मंच आपके खिलाफ एकजुट हो गया था।
संभवत: मैं अकेला व्यक्ति था जिसने समकालीन आवश्यकताओं को पहचाना और उनके अनुसार अपनी भाषा, कथ्य, शिल्प और खुद को अपडेट किया। जब मैंने 2001 या 2002 में काम शुरू किया तो मुझे भीषण विरोध का सामना करना पड़ा। हिन्दी के जितने मानक सितारे आज की तारीख में मंचों पर महारथी हैं, उनमें से 24 ने एक पत्र पर हस्ताक्षर कर कहा कि ये जहां जाएगा, वहां हम नहीं जाएंगे। अब उनका नाम लेकर आज की तारीख में उनको प्रासंगिक बनाना नहीं चाहता। वे वापस आ गए हैं। फोटो साथ में खिंचवाते हैं, फेसबुक पर लगाते हैं। अपने पोतों, बच्चों को लेकर सेल्फी खिंचवाने आते हैं। मेरी प्रशंसा करते हैं। ईश्वर ने उन्हें सद्बुद्धि दी। मैं उनका आभारी हूं। मैं 17 साल में मंच पर आया। मेरा मंचीय जीवन तीस वर्ष का है और आज तक कभी किसी से तू-तू-मैं-मैं नहीं हुई। ऐसे कई कार्यक्रम हुए जिनमें मैं नहीं गया। ऐेसे कई कार्यक्रम हुए। सहाराश्री ने एक कार्यक्रम कराया था हरिवंशराय बच्चन जी की स्मृति में। उसमें जो पत्रकार महोदय यह काम देख रहे थे, उन्होंने मुझे बुक किया। मेरे पास संदेश आया कि आपको आना है। लेकिन जो बड़े कवि वहां बुलाए गए थे, जिनका संचालन था, उन्होंने कहा कि अगर कुमार विश्वास आएगा तो हम नहीं आएंगे। फिर आयोजकों ने मुझसे कहा कि आप मत आइए। हालांकि उस कार्यक्रम की वजह से उन कवियों की काफी ब्रांडिंग हुई। मैं उससे वंचित रहा लेकिन रुका थोड़े ही। मैं युवाओं के बीच गया। मुझे पता कि ये नियामक बनेंगे आगे चलकर। ये आईआईटी, आईआईएम के लड़के-लड़कियां ही आगे चलकर कुछ कर पाएंगे। मैंने उनके बीच जाना-आना शुरू किया। कविता सुनाना शुरू किया। पैसे तब बहुत कम मिलते थे। बल्कि मिलते ही नहीं थे। रिस्क भी बहुत रहता था कि उनको कविता पसंद आएगी कि नहीं आएगी। फिर मैंने उनके साथ संवाद की एक भाषा बनाई और एक पड़ाव तैयार हुआ। और आज पूरे युवा मेरे अलावा बाकी कवियों को भी खूब सुनते हैं। और कई बार मुझे कमतर आंकते हैं। मुझे पसंद आता है।
मैंने एनडीटीवी की एक लड़की का स्टेटमेंट पढ़ा कि ‘जब मैं आईआईएमसी आई थी तो पहली बार हिन्दी कवित के संपर्क में कोई दीवाना कहता है के माध्यम से आई थी। उसके बाद मेरी पढ़ने की उत्सुकता बढ़ी तो मुझे लगा कि यह तो सामान्य सा कवि है, साहिर इससे कहीं ज्यादा अच्छा है। फिर फैज पढ़ा। सीरिया की कवयित्री को पढ़ने लगी। लेकिन आज मैं कुमार विश्वास को इसलिए क्यों गाली दूं कि मैं दुनिया के तमाम बड़े कवियों को पढ़ती हूं, जिनके मुकाबले वह कोई खास नहीं है। वह मेरा प्रस्थान बिंदु था और वह उसी रूप में सदा के लिए आदर योग्य है। उतना ही काम था उसका। वो आगे और अच्छा लिखेगा तो मैं उसे और ऊपर स्थान दूंगी।’ तो मैं इससे काफी संतुष्ट हूं। आज पाकिस्तान में गुलाम रसूल कादरी समेत कई गायक मुझे गाते हैं। यू ट्यूब पर काफी चीजें हैं। तमाम देशों में लड़के-लड़कियां मुझे गाते हैं। मैं तो चाहता हूं कि ब्राजील में युवा मुझे गाएं और मेरे माध्यम से हिंदी समझना शुरू करें।
आपका विरोध क्यों हुआ?
देखिए, सत्तर के दशक तक साहित्य के मानक कवि मंच पर थे। दिनकर जी, भवानीप्रसाद मिश्र, देवराज दिनेश, रामावतार त्यागी ये सब मंच पर थे। महादेवी जी भी मंच पर आती थीं। लेकिन जब हिन्दी के मंचों पर हास्य के कवि आने शुरू हुए… हालांकि अब वह दिवंगत हो चुके हैं और ऐसी परंपरा है कि दिवंगत लोगों के विषय में टिप्पणी नहीं करनी चाहिए। लेकिन यह सही घटना है कि महीयसी महादेवी वर्मा ने मंच छोड़ा मंच पर काका हाथरसी को सुनने के बाद। उन्होंने कहा कि यह कविता यहां हो सकती है तो मेरा यहां स्थान नहीं। खैर। उसके बाद हास्य के नाम पर कुछ लोग मंचों पर चढ़ गए। उन्होंने मंच कब्जा लिया। नीरज जी जैसे एकाध लोग ही बच पाए क्योंकि तब तक वे कद में इतने बड़े हो चुके थे कि आप उन्हें हिला नहीं सकते। तमाम बड़े और गुणी गीतकार दब गए। घटिया हास्य का बोलबाला था। मैंने इसके खिलाफ जंग छेड़ी। हास्य तो मैं सहज संवाद में पैदा कर लेता था। और उसके बाद आ जाता था गीत पर। खूब सुनाता था। तो इन सब लोगों ने मेरा विरोध किया कि ये तो हमारे लिए बड़ा खतरा बन सकता है।
पुराने लोग बताते हैं कि एक बार नोबेल पुरस्कार के लिए अज्ञेय जी के नाम की चर्चा चली थी। उस समय इन्हीं तथाकथित हिंदी के ठेकेदारों ने उनके खिलाफ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लॉबिंग शुरू कर दी थी।
चलो मेरा विरोध किया तो किया। मैं अपने आप को बहुत छोटा आदमी मानता हूं। सुना तो यहां तक है कि जब नोबल पुरस्कार देने के लिए अज्ञेय जी के नाम पर विचार किए जाने की हवा यहां कुछ भाई लोगों को लगी तो बाकायदा एक लॉबी बनाकर विदेश में रह रहे कथा-साहित्य के एक बड़े नाम से नोबल समिति तक यह संदेशा भिजवाने की कोशिश हुई कि हिन्दी में कुछ खास काम नहीं हुआ है। और ये सब भी भारत के ही लोग हैं।
क्या वह व्यक्ति निर्मल वर्मा थे?
देखिए, मैंने भी सुना ही है, उस वक्त मैं खुद तो मौजूद नहीं था। तो इस बात को प्रामाणिकता से नहीं कहा जा सकता। हां, साहित्य क्षेत्र में जो चर्चाएं चल रही थीं उनमें शायद यह नाम भी था।
कवि सम्मेलन, शो… आपके तो अच्छे दिन बरसों से चल रहे हैं? सबसे ज्यादा पारिश्रमिक लेने वाले के तौर पर आपका नाम लोग लेते हैं।
मैं अपना काम कर रहा हूं। लोगों को पसंद आता है, उनको प्रणाम करता हूं। खासकर युवाओं को बधाई देता हूं क्योंकि मैं जब कठिंन संघर्ष कर रहा था, जमाना मेरे खिलाफ था तो मुझे उनमें ही आशा दिखी थी।
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