व्योमेश जुगरान।
अकाल से जूझ रहे सूडान में जिंदा कंकाल बन चुकी एक बच्ची… और इसे नोचने को तैयार बैठा गिद्ध… दक्षिण अफ्रीकी पत्रकार केविन कार्टर के कैमरे ने जब यह तस्वीर दुनिया को दिखाई तो इसके लिए उन्हें दुनिया का सर्वश्रेष्ठ पुलित्ज़र पुरस्कार मिला। लेकिन जब एक फोन इंटरव्यू के दौरान किसी ने उन्हें बच्वी को न बचाने का दोषी मानते हुए यह कहा कि उस रोज वहां दो गिद्ध थे, जिनमें एक के हाथ में कैमरा था तो कार्टर आत्मग्लानि और अवसाद से भर उठे। अंतत: उन्हें खुदकुशी करनी पड़ी।
1993 की इस बहुचर्चित घटना में मात्र 33 साल के केविन तो दुनिया के सामने एक नजीर पेश कर विदा हो गए, मगर अपने मुल्क में तो पत्रकारों और बौद्धिकों की एक टोली गिद्ध की चोंच और पंजों को उम्मीद भरी निगाह से देखती आई है। इस बार भी यही हो रहा है। देश कोरोना के खौफ में जी रहा है, मगर इस टोली के एजेंडे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी के खिलाफ नफरत और विषवमन के अलावा कुछ नहीं है।
विपत्ति में सियासी श्रीवृद्धि की तलाश
हर कोई जान रहा है हालात बद से बदतर हो चुके हैं। जवाबदेही के लिए केंद्र हो या राज्य सरकारें, इन्हें कठघरे में खींचा ही जाना चाहिए। खींचा भी जा रहा है। पर देश पर छाई विपत्ति में अपनी सियासी श्रीवृद्धि का अवसर तलाश रहे मौकापरस्तों को क्या कहें। अवार्ड वापसी से लेकर शाहीन बाग और कृषि कानून सहित इनकी ‘आंदोलनजीविता’ के दर्जनों किस्से चटखारों के साथ लोगों की जुबान पर हैं। मोदीजी ने और कुछ किया हो या न किया हो मगर इनके खोपड़ों में भूसा जरूर भर दिया है। इनकी खोपडि़यां ‘खो पड़ी’ हैं। नमो का खौफ इस कथित सेक्युलर जमात के भीतर इतने गहरे पैठ चुका है कि जरा सा मौका मिला नहीं कि नफरत का जिन्न फट से बाहर। अब वह इनसे जितनी चाहें ऊलजलूल हरकत करा ले। हमारे कुछ उत्तराखंड मित्रों ने तो कोरोना की काट में सरकार को गद्दी छोड़ने का नुस्खा सुझाते हुए हैशटैग वाली तख्तियां उठा लीं। …और फिर दे-दनादन फेसबुक पर फोटो सेशन !
कॉमरेडों की हालत
अवसरवाद से उपजे स्वार्थों की ऐसी नैतिकता का क्या फायदा! सिद्धांतविहीन कॉडरों के वैमनस्य और वैचारिक दिवालिएपन के कारण ही आज महान कम्युनिस्ट आंदोलन को यह पराभव देखना पड़ा है। इन कथित कॉमरेडों की हालत गुड़ के लालच में कांग्रेस की झोली में गिरी मक्खियों जैसी हो चुकी है जिन्हें न गुड़ नसीब है और न बाहर निकलने का रास्ता ! बंगाल को ही लें। ‘खसम’ की मौत का मातम मनाने की बजाय वे ‘सौतन’ के विधवापन पर प्रसन्न हैं।
नफरत का असल कारण
असल में यह सारा मसला महान कम्युनिस्ट आंदोलन से ताल्लुक रखने वाले ठोस वैचारिक संघर्ष का है भी नहीं, बल्कि उन चेले-चपाटों की लिप्सा का है जो सेक्युलरवाद के नाम पर सालों से सत्ता के तरणताल में मजे से गोते खाते रहे हैं। इधर मोदी के तिलिस्म के आगे सब ढह गया और नागरिक अधिकारों के नाम पर सारी झंडाबरदारी हाथ से फिसल गई। मोदी के प्रति स्थायी बैर और नफरत का असल कारण ही यही है।
राज्य सरकारें कठघरे में क्यों नहीं
कोविड-19 की पहली लहर से देश को सफलतापूर्वक उबारने वाली यही मोदी सरकार यदि दूसरी लहर में लखखड़ाती नजर आई है तो इसकी अनेक वजहें हैं। बावजूद इसके सरकार को इकतरफा कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ रहा है जो कई दृष्टिकोण से उचित है भी। लेकिन कठघरे में वे प्रदेश सरकारें क्यों न हों जिन्होंने पिछली मर्तबा ‘केंद्रीय वार रूम’ पर सवाल उठाते हुए संघवाद की दुहाई देकर अधिकारों का बंटवारा चाहा। ये अधिकार उन्हें सौंपे भी गए और इसके लिए केंद्र सरकार लगातार राज्यों के संपर्क में रही। प्रधानमंत्री मोदी ने स्वयं सितम्बर से लेकर अप्रैल तक मुख्यमंत्रियों के साथ आधा दर्जन वर्चुअल बैठकें कीं।
जग हंसाई
मगर यही राज्य अब अपनी तमाम जवाबदेही से पल्ला झाड़ रहे हैं और अपनी असफलताओं का सारा दोष केंद्र पर मढ़ देना चाहते हैं। दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार जो कि मोदी के खिलाफ अपने सारे छद्म समेत सर्वाधिक मुखर है, उसके नेताओं ने निजी छवि चमकाने और फुटेज पाने की लालसा में करोड़ों रुपये विज्ञापनबाजी पर फूंक दिए, मगर एक अदद अस्पताल तक नहीं बनवा सके। संकटकाल ने मोहल्ला क्लीनिकों सहित ‘हेल्थ इंफ्रा’ के उनके हल्ले की सारी हवा निकाल दी। चाहे प्रधानमंत्री के साथ वर्चुअल बैठक में अपनी बारी को चुपके से लाइव वायरल कर प्रोटोकॉल तोड़ने की वारदात हो या सुप्रीम कोर्ट के जजों के लिए पांच सितारा होटल में लक्जरी आइसोलेशन सेंटर की पेशकश, आम आदमी पार्टी के नेताओं ने अपनी खूब जग हंसाई करवाई।
इति सिद्धम… के साथ मोदीजी के लिए किसी शायर की ये लाइनें बेहद मौजूं हैं-
दीवार क्या गिरी मेरे कच्चे मकान की,
लोगों ने मेरे सहन में रस्ते बना लिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)