बाजीराव पेशवा: 18 अगस्त 1700 – 28 अप्रैल 1740
तब बाजीराव मात्र उन्नीस वर्ष के थे। बीसवाँ वर्ष आरंभ किया ही था कि उनके पिता पेशवा बालाजी राव का निधन हो गया और मराठा साम्राज्य के अधिपति छत्रपति शाहूजी महाराज ने पेशवाई का दायित्व इन्हें सौप दिया। उन्होंने 1720 में पेशवाई संभाली और बीस वर्ष का पूरा कार्यकाल केवल युद्ध में बीता। उन्होंने अपने जीवन में कुल 43 युद्ध कियै। और सभी में विजयी रहे। यदि उनके मार्ग में हुईं छोटी बड़ी झड़पों के युद्धों को भी जोड़ा जाये तो यह संख्या 54 तक होती है। उन्होंने प्रत्येक युद्ध जीता। वे किसी युद्ध में नहीं हारे।पिछले डेढ़ हजार वर्षों में पूरे संसार का स्वरूप बदल गया है। 132 देश एक राह पर, 57 देश दूसरी राह पर और अन्य देश भी अपनी अलग-अलग राहों पर हैं। इन सभी देशों, उनकी मौलिक संस्कृति के कोई चिन्ह शेष नहीं किंतु हजार आक्रमणों के बाद यदि भारत में उसका स्वरूप है जो उसके पीछे बाजीराव पेशवा जैसी महान विभूतियों का बलिदान है। जिससे आज भारत का स्वत्व प्रतिष्ठित हो रहा है। ऐसे महान यौद्धा का 28 अप्रैल को निर्वाण दिवस है। उनका पूरा जीवन युद्ध में बीता। वे अपने सैन्य अभियान के अंतर्गत मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र में थे। यहीं स्वास्थ्य बिगड़ा और उनका निधन हो गया।श्रीमंत बाजीराव पेशवा का जन्म 18 अगस्त 1700 में हुआ था। उनके पिता बालाजी भी पेशवा थे। माता राधा बाई भी कुशल ग्रहणी और युद्ध कला में निपुण थीं। इस प्रकार वीरता और कौशल के संस्कार उन्हे जन्म से मिले थे। बाजीराव बचपन से गंभीर धैर्यवान और साहसी थे। उन्होंने बाल वय में ही घुड़सवारी, तीरन्दाजी, तलवार भाला, बनेठी, लाठी आदि चलाना सीख ली थी। वे मात्र बारह वर्ष की आयु से ही अपने पिता के साथ युद्ध में जाने लगे थे। सैनिकों का कौशल देखना और घायलों की सेवा करना उनके स्वभाव में था। वे पिता के साथ दरबार भी जाते थे। इससे दरबार की गरिमा और राजनीति में निपुण हो गये थे। अभी उन्होंने अपनी आयु के उन्नीस वर्ष ही पूरे किये और बीसवां वर्ष आरंभ ही हुआ था कि पिता का निधन हो गया। शाहूजी महाराज ने किशोर वय से बाजीराव की प्रतिभा देखी थी अतएव उन्होंने बाजीराव को इसी आयु में पेशवा कि दायित्व सौंप दिया।
उन्होंने एक प्रकार से अल्प आयु में इतना महत्वपूर्ण दायित्व संभाला था। किन्तु अपनी असाधारण क्षमता और योग्यता से हिन्दु पदपादशाही की साख पूरे भारत में प्रतिष्ठित की। अपनी दूरदर्शिता, अद्भुत रण कौशल, सटीक निर्णय और अदम्य साहस से मराठा साम्राज्य का भारत भर मे विस्तार किया। वे श्रीमंत शिवाजी महाराज की भांति ही कुशल रणनीतिकार और यौद्धा थे। वे घोड़े पर बैठे-बैठे और चलती हुई सेना के बीच भी रणनीति बना लेते थे। घोड़ा भले थके पर वे नहीं थकते थे। घोड़ा यदि थकता था तो वे घोड़ा बदल लेते थे। भागते हुये घोड़े पर बैठे उनके भाले की फेंक इतनी तीब्र होती थी कि शत्रु अपने घोड़े सहित घायल होकर धरती पर गिर पड़ता था ।
श्रीमंत बाजीराव ने जब पेशवा दायित्व संभाला तब दक्षिण भारत में तीन प्रकार की चुनौतियाँ थीं। मुगलों के साथ-साथ अंग्रेजों व पुर्तगालियों के अत्याचारों का भी बोलबाला था। भारतीय जनों और भारतीय गरिमा के प्रतीक देवस्थान तोड़े जा रहे थे। भय और लालच से पंथ परिवर्तन की तो मानो स्पर्धा चल रही थी। महिला और बच्चों के शोषण की नयी नयी घटनायें घट रहीं थीं। ऐसे विपरीत वातावरण में श्रीमन्त बाजीराव ने पहले दक्षिण भारत में भारतीय जनों को ढाढ़स दिया फिर उत्तर की ओर रुख किया। उनकी विजय वाहनी ने ऐसा वातावरण बनाया जिससे पूरे भारत में भारतीय भूमि पुत्रों का आत्मविश्वास जागा। बाद के वर्षो में यदि ग्वालियर, इंदौर, बड़ौदा आदि में मराठा राज्य स्थापित हुये और दिल्ली की मुगल सल्तनत को सीमित किया जा सका तो इसकी नींव श्रीमन्तबाजीराव पेशवा ने रखी थी। उन में शिवाजी महाराज जैसी ही वीरता व पराक्रम और चरित्र था।
उनके प्रमुख अभियानों में मुबारिज़ खाँ को पराजित कर मालवा और कर्नाटक में मराठा प्रभुत्त्व स्थापित किया। पालखेड़ के युद्ध में निजाम को पराजित कर उससे राजस्व और सरदेशमुखी वसूली। फिर मालवा और बुन्देलखण्ड में मुगल सेना नायकों पर विजय प्राप्त की। फिर मुहम्मद खाँ बंगश को परास्त किया। दभोई में त्रिम्बकराव के आन्तरिक विरोध का दमन किया। सीदी, आंग्रिया तथा पुर्तगालियों एवं अंग्रेजो को भी बुरी तरह पराजित किया। 1737 में उन्होंने दिल्ली अभियान किया। उनका मुकाबला करने एक लाख की फौज लेकर सआदत अली खान सामने आया। मुगलों ने पीछे से निजाम हैदराबाद को बुलाया। उनकी रणनीति थी कि सामने से सआदत खान एक लाख की सेना से और पीछे से निजाम हमला बोले। पर बाजीराव पेशवा उनकी चाल समझ गये। उन्होंने सआदत को युद्ध में उलझाया और चकमा देकर दिल्ली पहुँच गए जबकि चिमाजी अप्पा ने अपनी दस हजार की फौज से निजाम को मालवा में रोक लिया। बाजीराव अभी दिल्ली में लाल किले के सामने पहुँचे ही थे, मुगलों में दहशत फैल गई। मुगल बादशाह मोहम्मद शाह छुप गया और खजाना बाजीराव पेशवा के सुपुर्द कर दिया। पेशवा के दिल्ली जाने की खबर सआदत खान को लगी। वह दिल्ली की ओर लौटने लगा। बाजीराव रास्ता बदलकर पुणे की ओर लौट पड़े। तब बादशाह मोहम्मद शाह ने सआदत अली खान को संदेश भेजा कि वह निजाम हैदराबाद के साथ मिलकर बाजीराव को रास्ते में ही घेर ले। इन दोनों ने नबाब भोपाल की मदद लेकर भोपाल के पास सिरोंज से दोराहे के बीच मोर्चाबंदी कर ली। बाजीराव इसी मार्ग से लौट रहे थे। इन तीनों सेनाओं से मराठा सेना का आमना सामना हुआ। सेना कम होने के बाद बाजीराव जीते। युद्ध का खर्चा बसूल किया। यह संधि दोराहे संधि के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है। इसमें मराठों को पूरे मालवा में राजस्व बसूलने का अधिकार मिला। इससे मराठों का प्रभाव सम्पूर्ण भारत में स्थापित हो गया।
1739 में उन्होनें नासिरजंग को हराया। अमेरिकी इतिहासकार बर्नार्ड माण्टोगोमेरी ने बाजीराव पेशवा को भारत के इतिहास का महानतम सेनापति बताया है और पालखेड़ युद्ध में जिस तरीके से उन्होंने निजाम को पराजित किया वह केवल बाजीराव ही कर सकते थे। श्रीमंत बाजीराव और उनके भाई चिमाजी अप्पा ने बेसिन के लोगों को पुर्तगालियों के अत्याचार से भी बचाया। उन्होंने सेना में ऐसे युवा सरदारों की टोली तैयार की जिन्होंने आगे चलकर भारत की धरती पर नया इतिहास बनाया। इनमें मल्हारराव होलकर, राणोजीराव शिन्दे शामिल थे जिन्होंने आगे चलकर इंदौर और ग्वालियर में हिन्दवी साम्राज्य की शाखा स्थापित की। अपने इसी विजय अभियान के अंतर्गत वे महाराष्ट्र वापस लौट रहे थे कि मार्ग में उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया और वे मध्यप्रदेश के खरगोन में कुछ विश्राम को रुके और वहीं 28 अप्रैल 1740 में उन्होने दुनियाँ से बिदा ले ली।
नर्मदा किनारे वहीं उनका अंतिम संस्कार किया गया। उस स्थान पर समाधि बनी है। वहाँ आज भी प्रतिदिन सैंकड़ो लोग अपने प्रिय पेशवा को श्रृद्धाँजलि अर्पित करने जाते हैं। बाजीराव जी भगवान शिव के उपासक थे। बाद में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई ने वहाँ शिव लिंग की स्थापना की। जो आज भी है। उन्होंने दो विवाह किये थे। पहली पत्नी काशीबाई और दूसरी पत्नी देवी मस्तानी थीं। उनके बाद उनके पुत्र बालाजी बाजीराव ने आगे चलकर पेशवा का दायित्व संभाला। और अपने पिता के अधूरे काम को आगे बढ़ाया।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)