सुरेंद्र किशोर
संभवतः बात 1970 की है। पक्के तौर पर साल बता देता यदि नरेंद्र घायल से संपर्क हो पाता। तब चर्चित आचार्य रजनीश पटना आए थे।
गांधी मैदान में धर्म महासम्मेलन हो रहा था। रजनीश भी सम्मेलन मंच पर आए। उनका भाषण प्रारंभ हुआ। अपनी पहली ही दो-चार पंक्तियों के बाद रजनीश छा गए। मैं भी मंच के सामने वाले हिस्से में नीचे बैठा हुआ था।
इस तरह हम कहां पहुंचेंगे
रजनीश शुरू हुए, ‘मेरे आत्मन ! चांदनी रात थी। कुछ लोग नौका विहार को निकले। गए नदी किनारे। नाव पर बैठ गए। लगे नाव खेने। …जब आधी रात हुई तो सोचा कि देखें हम कहां पहुंचे हैं। तो, वे हैरान रह गए। नाव तो फिर भी किनारे खूंटे में ही बंधी थी।
उसी तरह हमलोगों की बुद्धि की नाव आज धर्म के खूंटे से बंधी हुई है। इस तरह हम कहां पहुंचेंगे?’
मंच पर बैठे शंकराचार्य ऐसी उक्तियों पर गरम हो गए। उनके कुछ अनुयायियों ने रजनीश को बोलने से रोकने की कोशिश भी की। पर, शंकराचार्य ने जोर से कहा कि ‘बोलने दो !’
श्रोताओं के बीच से हम लोग ‘रजनीश जिन्दाबाद’ के नारे लगाने लगे। मन युवा समाजवादी जो था! इस पर मंच पर बैठे अन्य धर्म गुरुओं को और भी खराब लगा।
आपका भाषण सुनने यहां नहीं बैठूंगा
शंकराचार्य के बोलने की बारी आई। रजनीश ने कहा कि ‘‘मैं आपके तर्कों का जवाब दूंगा।’’
आयोजक ने कहा कि ‘‘अब आपको मौका नहीं मिलेगा।’’
इस पर रजनीश ने कहा कि फिर तो मैं आपका भाषण सुनने यहां नहीं बैठूंगा। रजनीश मंच से उतर गए। (तब तक वह ओशो नहीं कहलाए थे )
हम लोग भी मंच के सामने से उठकर पीछे पहुंच गए। रजनीश को घेर कर खड़े हो गए। वे अपनी एम्बेसडर कार के पास थे। कई लोग मांग करने लगे कि आपको कल से यहां अलग से प्रवचन करना चाहिए।
नरेंद्र घायल उनके साथ ही थे। तय हुआ कि कल से सिन्हा लाइब्रेरी के प्रांगण में रजनीश का प्रवचन होगा।
‘रजनीश का प्रणाम’
प्रवचन होने लगा। कई दिनों तक चला। उन्हें सुनने कुछ बड़े नेता भी आ जाते थे। उनमें से मैं दारोगा प्रसाद राय और महेश प्रसाद सिन्हा को पहचानता था।
मैं भी रोज जाता था। कोई भीड़-भाड़ नहीं। कोई सुरक्षा नहीं। रजनीश करीब 45 मिनट बोलते थे। काॅलेज शिक्षक जो रह चुके थे। 45 मिनट का अभ्यास था !
प्रवचन समाप्त होने के बाद हम अतृप्त रह जाते। ऐसा लगता था जैसे कोेई व्यक्ति सुस्वादु भोजन के बाद अंगूठा चाटता हुआ उठे।
एक दिन मैं उनके पास चला गया। मैंने अपना आटोग्राफ बुक उनके सामने बढ़ा दिया। उन्होंने उस पर कुछ लिख दिया । उसे मैं पढ़ नहीं पा रहा था। (आप भी देख लें !)
मैंने उनसे पूछा, यह आपने क्या लिख दिया ? उन्होंने कहा, ‘रजनीश का प्रणाम !’
मैंने उसे संजो कर रखा था।
ऐसा विलक्षण वक्ता न देखा, न सुना
आचार्य रजनीश की उस पटना यात्रा के
जो प्रत्यक्षदर्शी हमारे बीच उपलब्ध हों
और वे कुछ और बता सकें तो मैं आभारी रहूंगा। तब तक की मेरी अपुष्ट जानकारी के अनुसार संभवतः आचार्य रजनीश राजेंद्र नगर में किन्हीं वरीय प्रोफेसर के अतिथि थे।
मेरे काॅफी हाउस के परिचित नरेंद्र घायल भी वहीं आसपास रहते थे, ऐसा मेरा अनुमान था। वे रजनीश का साथ उस दिन गांधी मैदान में भी थे।
मुझे लगता था कि घायल जी भाग्यशाली हैं। उस घटना के बाद तो मैं रजनीश पर मोहित
हो गया था। पर बाद में उम्र बढ़ने और कई तरह की बातें सुनने के बाद मैं तटस्थ हो गया। पर प्रशंसा के भाव आज भी हैं।
अद्भुत प्रतिभा के धनी थे। प्रतिभा तो कच्चा माल है। उससे रजनीश भी बन सकते हैं और वशिष्ठ नारायण सिंह भी।
उनके खिलाफ प्रकाशित जबलपुर के ही गोविन्द सिंह की भी एक पुस्तक मैंने पढ़ी।
एकतरफा है। रजनीश की निंदा से भरी हुई। लगा कि वे कोई खुन्नस निकाल रहे हैं। गोविंद सिंह उनके समकालीन थे। पर, कुल मिलाकर यह जरूर कहूंगा कि रजनीश जैसा विलक्षण व तार्किक वक्ता मैंने अन्यत्र न देखा, न सुना।
(सोशल मीडिया से। लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)