श्री श्री रविशंकर ।
आर्ट ऑफ़ लिविंग के संस्थापक और आध्यात्मिक गुरु श्रीश्री रविशंकर एक समय महर्षि महेश योगी की संस्था में बड़ी ज़िम्मेदारी सँभालते थे और अनौपचारिक रूप से वह संस्था में महर्षि के बाद नंबर दो की हैसियत रखते थे।
मैं आज आपको बताना चाहता हूं कि मैंने आर्ट ऑफ लिविंग कैसे शुरू किया। 32 साल पहले मैं पुरी (भुवनेश्वर) में था। उस समय एक बहुत बड़ी संस्था की देखभाल कर रहा था। वहां संत समाज के विद्वत जन थे, महर्षि महेश योगी जी भी थे` और वे सब चाहते थे कि मैं पुरी के शंकराचार्य पीठ में बैठ जाऊँ। मैं वेद व अन्य ग्रन्धों को भलीभांति जानता था। पर मेरा बिल्कुल मन नहीं कर था शंकराचार्य पीठ में बैठने का। मैं उस वक्त अठारह उन्नीस साल का लड़का था। मुझे उन लोगों ने काफी ज्यादा कहा तो मैंने वहां जाकर देखा। वहां तमाम कोर्ट केस, झगड़ा झंझट चल रहे थे।
फिर मैं पुरी के काली मां के एक मंदिर में गया। वहां बंगाली पुजारी थे। मैं काली मां के मंदिर में ध्यान में बैठ गया। इतने बड़े लोग मुझसे पूरी मठ के लिए जोर देकर कह रहे थे` वे सब इतने बड़े और सम्मानित जन थे कि मुझे ‘ना’ कहने में दिक्कत हो रही थी। और ‘हां’ कहने में तो और भी दिक्कत थी। मैं ध्यान में था तो मुझे काली मां की आवाज का आभास हुआ- ‘तुम्हें बहुत बड़ा काम करना है। एक पीठ तो तुम्हें बनानी ही है लेकिन यहां की पीठ में बैठना तुम्हारा काम नहीं है। तुम उदास मत हो। उठो।’ ऐसी आवाज मुझे आई। फिर मैं मंदिर से चल पड़ा। मैंने उन लोगों को ना बोल दिया कि मुझे किसी पीठ में नहीं बैठना है। मैं साधारण सेवा करने वाला बना रहूंगा।
उसके बाद मैं पुरी में कुछ दिन मौन में भी रहा। सिर्फ शाम को बात करता था और पूरा दिन मौन में रहता था। दुनिया में जितना धन वैभव देखना है मैंने इक्कीस वर्ष की आयु तक सब देख लिया था। कई देशों की यात्राएं कर चुका था। एक थोड़ा सा समय ऐसा भी था जब मैं चाहता था कि लोग हमें बहुत बड़ी संस्था का उत्तराधिकारी बनाएं। और यह सब हो रहा था।
लेकिन फिर मुझे लगा कि इस तरह तो मैं तो सोने के पिंजड़े में बंद हो जाऊंगा। अंतरात्मा को यह मंजूर नहीं था। मैं गांव गांव काम करने निकल पड़ा। देश दुनिया सब घूमकर देख ही चुका था। मैं कर्नाटक में छोटे छोटे गांवों में जाता, वहां घरों में बैठता, ज्ञान की बात करता, सत्संग करता। लोग समझते कि यह तो पागल हो गया है। ये इतनी बड़ी संस्था से जुड़ा हुआ है, अरबों खरबों की संपत्ति की देखभाल करता है, हेलीकॉप्टर में -प्लेन में ये चलता है… यह सब छोड़कर यह गांवों में क्यों जा रहा है। सबको लगता कि यह लड़का दिमाग से कुछ सनकी हो गया है। बड़े बड़े लोग मुझे समझाने लगे। उन दिनों देश के मुख्य न्यायाधीश रहे वीआर कृष्ण अय्यर और मीडिया जगत के बड़े नाम रामनाथ गोयनका इन सब ने मुझसे कहा कि कहां परेशान हो रहे हो। लेकिन मेरा मन कह रहा था कि मेरे जीवन में कुछ नया आनेवाला है… कुछ और बात है जो होने वाली है। तृप्ति इससे नहीं है जो मुझे मिला है बल्कि गहराई में कुछ और ही चीज है। फिर मैंने दस दिन का मौन किया। उससे सुदर्शन क्रिया का प्रसाद मिला। बाद में तो देश और पूरी दुनिया में बहुत लोगों को इससे लाभ हुआ और हो रहा है।
मैं आपसे यह कहना चाह रहा हूं कि इक्कीस साल की उम्र तक मैंने दुनिया में तमाम संपत्ति, धन, सुख सुविधा और वैभव देख लिया था। किसी चीज की कमी नहीं थी। लेकिन दिल में कहीं यह एक बात रही कि जब तक मैं उपयोगी नहीं बनूं, जब तक मैं सबका नहीं बनूं- मेरा जीवन किस काम का है। तो फिर गांव गांव हम घूमे। सोचा एक स्कूल शुरू करें। पास में पैसे नहीं थे और कभी किसी से कुछ मांगा था नहीं। लेकिन कुछ ऐसा रहा कि जब जो चाहिए होता था वह अपने आप आ जाता है।
पर उस समय मन उहापोह में था। भीतर मंथन चल रहा था। एक घटना है जिसने जीवन की दिशा बदल दी। ऐसा था कि हुबली या ऐसी ही किसी जगह मैं रेलवे प्लेटफार्म पर खड़ा था। वहां दो ट्रेनें थीं। एक बेंगलूर (अब बंगलुरु) जा रही थी, दूसरी शोलापुर। यदि मैं बेंगलूर वाली ट्रेन लेता तो आर्ट ऑफ लिविंग नहीं शुरू करता। शोलापुर वाली ट्रेन लेता तो आर्ट ऑफ लिविंग शुरू होता। उस दिन बड़ा द्वंद्व रहा- आर्ट ऑफ लिविंग शुरू करूं या न करूं… जाऊं या न जाऊं। मेरे मन में था कि यह (आर्ट ऑफ़ लिविंग संस्था शुरू करना) अच्छा काम है कोई और आगे आएगा और इसे शुरू कर लेगा। मैं क्यों और झंझट सिर पर लूं। मैं अभी बहुत आराम से हूं। भौतिक समृद्धि का सब कुछ तो है मेरे पास। मुझे कुछ नहीं चाहिए। मैं क्यों कोई संस्था शुरू करूं, उसका प्रचार शुरू करूं। ये भाव भी मन में बहुत जबरदस्त था। मैं बेंगलोर और शोलापुर दोनों तरफ जानेवाली ट्रेनों का टिकट लेकर स्टेशन पर खड़ा था। सोचा कि बेंगलूर जाऊंगा तो जहाँ हूँ वहीँ बना रहूंगा। और शोलापुर जाऊंगा तो आर्ट ऑफ लिविंग शुरू करुंगा। फिर जाने क्या हुआ… अपने आप मेरे पांव उस ट्रेन की तरफ बढ़ गए जो शोलापुर जा रही थी।
मैं आपसे यह कहना चाह रहा हूं कि इक्कीस साल की उम्र तक मैंने दुनिया में तमाम संपत्ति, धन, सुख सुविधा और वैभव देख लिया था। किसी चीज की कमी नहीं थी। लेकिन दिल में कहीं यह एक बात रही कि जब तक मैं उपयोगी नहीं बनूं, जब तक मैं सबका नहीं बनूं- मेरा जीवन किस काम का है। तो फिर गांव गांव हम घूमे। सोचा एक स्कूल शुरू करें। पास में पैसे नहीं थे और कभी किसी से कुछ मांगा था नहीं। लेकिन कुछ ऐसा रहा कि जब जो चाहिए होता था वह अपने आप आ जाता है।
आज तक हमने कभी किसी से कुछ नहीं मांगा। पर अपने आप सब कुछ होता गया। कह सकते हैं कि इस तरह लक्ष्मी जी से सीधा कांटेक्ट हो गया। सब काम अच्छा होने लगा। यह इस बात का प्रमाण है कि आध्यात्मिक ज्ञान भौतिक जीवन में भी सहयोगी है। आपको भौतिक रूप से सुखी जीवन जीना हो तो इसके लिए भी आध्यात्मिक जीवन की बहुत आवश्यकता है। नारायण जहां होते हैं वहीं लक्ष्मी आएंगी। इसीलिए मैं हमेशा कहता हूं कि नारायण को पकड़ो। लक्ष्मी के पीछे नहीं पड़ना। नारायण को पकड़ोगे तो लक्ष्मी अपने आप आएंगी आपके पास।
इसका मतलब यह नहीं कि मैं आपलोगों से कह रहा हूं कि आलसी बने रहो। नहीं… कर्मठ होना चाहिए। काम करते रहना चाहिए। धैर्य और इफर्ट दोनों साथ साथ होना चाहिए। विश्वास से धैर्य जगता है और परिश्रम से कार्य सिद्ध होता है। विश्राम से विश्वास, श्रम से कर्म- ये दोनों साथ में लेकर चलना चाहिए। फिर एक समय ऐसा भी आ जाता है जब सोचने से पहले वो काम हो जाता है जो आप चाहते हैं। सिर्फ अपना ही नहीं बल्कि दुनिया में जितने लोग हैं उन सबका काम हम कर सकते हैं। यह बात दावे से कह सकता हूँ कि ज्ञान में ऐसी शक्ति है जिससे आप न केवल अपना बल्कि औरों का काम भी करने के योग्य हो जाएंगे।