बेचैनी और भटकन की प्रवृत्ति के चलते उन्होंने जालंधर को अलविदा कहकर दिल्ली का रुख किया। उनके ‘आषाढ़ का एक दिन’ को भारतीय नाटक की अनमोल कृति माना जाता है। इसका लेखन उन्होंने दिल्ली रहकर किया। इस नाटक की हजारों प्रस्तुतियां दुनिया भर में हो चुकी हैं और आज भी होती हैं। दिल्ली से मोहन राकेश टाइम्स ऑफ इंडिया समूह की साहित्यिक पत्रिका ‘सारिका’ के संपादक होकर मुंबई चले गए। उन्होंने ‘सारिका’ का पूरा अक्स बदल दिया। उसे नई पहचान दी। ‘सारिका’ को भी उन्होंने आखिरकार 1963 में अलविदा कह दिया और फिर वापस दिल्ली लौट आए।
तीन नाटक उन्होंने लिखे। आषाढ़ का एक दिन, आधे- अधूरे और लहरों के राजहंस। ‘आषाढ़ का एक दिन’ को जितनी प्रसिद्धि मिली उतनी आज तक किसी अन्य नाटककार के हिस्से नहीं आई। इस एक नाटक ने उन्हें विश्व प्रसिद्धि दिलाई और इसी पर उन्हें भारतीय साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया। जीवनभर के लेखन में उन्होंने कुल 54 कहानियां लिखीं जो मलबे का मालिक, क्वार्टर, पहचान और वारिस संग्रहों में संकलित हैं। अंडे के छिलके, अन्य एकांकी तथा बीज नाटक व दूध और दांत उनके एकांकी संकलन हैं।
संस्कृत के दो क्लासिक नाटकों का उन्होंने विशेष रूप से हिंदी में अनुवाद किया। परिवेश और बलकम खुद उनके निबंध संग्रह हैं। आखिरी चट्टान तक, यात्रा-विवरण। मोहन राकेश की डायरी और समय सारथी ने भी उन्हें अलग पहचान दी। बेशक मोहन राकेश बतौर नाटककार विश्वस्तरीय ख्याति के शिखर पर हैं लेकिन उनके उपन्यास भी इस विधा में खासे चर्चित हैं। अंधेरे बंद कमरे, न आने वाला कल, अंतराल और नीली रोशनी की बाहें उपन्यास उनकी सशक्त कलम का परिचय बखूबी देते हैं। मोहन राकेश की तमाम रचनाएं बेशुमार भाषाओं में अनूदित हैं। उन्हें ऐतिहासिक साहित्य धारा ‘नई कहानी’ का प्रमुख हस्ताक्षर भी माना जाता है। नई कहानी आंदोलन के इस रचनाकार ने 03 जनवरी 1972 को अंतिम सांस ली। (एएमएपी)