करियवा-उजरका
सत्यदेव त्रिपाठी ।
करियवा उठने-बैठने से लेकर चलने तक के अपने सारे कामों में काफी धीमा था – क्या इसी अन्धत्त्व के चलते? क्या धीमा चलने से ही उसे हर काम में बायीं तरफ रखा जाता, क्योंकि दायीं तरफ वाले को ज्यादा दूरी तय करनी पडती है – खासकर रहट व कल में।
बायें चलने के कारण ही काम के दौरान इंगित करते हुए करियवे को बायां या बँवार व उजरके को दहिना या दहिनवार कहा जाता। लेकिन करियवा खाता था हाली-हाली (जल्दी-जल्दी) और ज्यादा भी। इसी से उसे विनोद में खभोर भी कहते। यह जितना ही खभोर था, उजरका उतना ही छिबिन (चूज़ी और अरुचि वाला)। बड़े टिपुर्सन (मान-मनौवल) से खाता। जौ-गेहूँ को भूसे से या धान को पुआल से अलगाने के लिए 25-30 बोझ खोलके गोलाई में फैला दिये जाते, उसे ‘पइर’ कहते थे। 2 से 4-5 तक जितने सुलभ हो, बैलों को उनके गराँव (गले की रसी) से एक दूसरे को जोडकर पइर पर गोल-गोल घुमाते, उसे दँवरी कहते। इस काम के लिए जिसका भी बैल खाली हो, बिना माँगे ले जाने की सुदृढ परम्परा ही थी। तो इसमे भी हमारा उजरका सबके दाहिने चलता – इतना फरहर (तेज व सक्रिय) था। हाँकने वाला हमेशा उसके पास होता, इसलिए उसे खाने का मौका भी न था और उसे पडी भी न थी। दाहिने के बाद फिर दुसरकाआदि होते। सबके अंत वाले को ‘मेंह’ कहा जाता था। अनाज को गन्दगी से बचाने के लिए हमेशा सजग रहना पडता कि बैल गोबर करें, तो हाथ में पुआल लेकर रोप लिया जाये। लेकिन हाँकने वाला तो दाहिने के अलावा अन्दर के बैलों को ठीक से देख न पाता था, तो अगल-बगल की दँवरी वाले या आता-जाता जो भी देखता, चिल्लाता – वो तिसरका देखो, गोबर कर रहा है या मेंहवाँ हग रहा है!
लात मारने की ऐसी लत वाले जानवरों को ‘लतहा’ कहा जाता। ऐसा करने वाली गायों को लतही कहते। भैंसों को लात मारते मैंने नहीं देखा-सुना। शायद देह से भारी व आदत से सुस्त व बेपरवाह होने के कारण उनकी यह फ़ितरत हो ही नहीं सकती थी। लेकिन बैलों का लात चलाना ‘लात मारना’ के मुहावरे के रूप में मशहूर है। फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ में यह मुहावरा आमिर खान की ज़ुबानी सद्य: जन्मे बच्चे के लिए इस्तेमाल हुआ है – ‘लात मारा’, जो किसी चीज़ को हिकारतपूर्वक ठुकराने के लिए इस्तेमाल होता है। ‘लात खाना’ भी हिकारतपूर्वक पिटने के लिए मुहावरा है। ऐसा काम ज्यादा करने वालों को ‘लतखोर’ कहते। और ‘अखाडे का लतमरुवा पहलवान होता है’ तो बहुत लोकप्रिय था, जब हमारे बचपन में गाँव में अखाडे हुआ करते थे।
चार-छह डण्डे की मार से कहाँ बच पाता
करियवा अपनी दँवरी में चले या मँगनी में, बैल दो हों या 4-5, हमेशा मेंह ही चलता। उसे सिर्फ अपनी जगह घूमना होता। ऐसे में किसी भी बैल को एक ही जगह घूमने से घुमरा (चक्कर) आ जाता, पर करियवा को कभी नहीं आता, शायद अन्धे होने से उसे अहसास ही नहीं होता। इस तरह मेंह के लिए आदर्श था वह। लेकिन धान की दँवरी में एक ही जगह घूमने से मेंह चलने वाले के बायें पैर में पुआल लिपटता जाता है, जिसे गूर्ही कहते। बीच-बीच में दँवरी रोककर गूर्ही को छुडाना पडता था। करियवा ज्यादा ही लपेट लेता और उसे छुडाना मुश्किल होता, क्योंकि वह पैर झटकारता भी जोरों से। शायद इसलिए कि दिखता था नहीं और पैर में लिपटी भारी गूर्ही से उसे अनकुस (अनइज़ी) लगता। लेकिन वह लतहा था, जो सबके डर का बड़ा कारण होता। हल-रहट-कल-दँवरी में चलते हुए हाँकने वाले का ठीक पीछे होना तय था। और ऐसे में कुछ नाग़वार होते ही पीछे वाले को अहटिया के (सन्धान करके या अन्दाज़ा लगाके) ऐसा लात चलाता कि आहत व्यक्ति तो सहसा गिर ही जाता। कइयों को ऐसे गिर के तडपते और फिर घुटने पर हल्दी-प्याज या रेंड का पत्ता आदि बाँधे हफ्तों कराहते-लँगडाते चलते हुए मैंने देखा है। ऐसा करते हुए मीठी चाल (धीरे-धीरे) चलने वाला करियवा कल-रहट में हुआ, तो दो-तीन चक्कर और हल में हुआ, तो बड़ी दूर तक लगभग दौड़ते हुए चलता और दायें चलने वाले उजरके को भी दौड़ना पडता। फिर भी चार-छह डण्डे की ज़ोरदार मार से कहाँ बच पाता! किंतु इसकी उसे लत (बुरी आदत) पड गयी थी, लिहाजा पिटने के लिए तैयार भी रहता।
लतमरुवा का मतलब लात मारने वाला
लात मारने की ऐसी लत वाले जानवरों को ‘लतहा’ कहा जाता। ऐसा करने वाली गायों को लतही कहते। भैंसों को लात मारते मैंने नहीं देखा-सुना। शायद देह से भारी व आदत से सुस्त व बेपरवाह होने के कारण उनकी यह फ़ितरत हो ही नहीं सकती थी। लेकिन बैलों का लात चलाना ‘लात मारना’ के मुहावरे के रूप में मशहूर है। फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ में यह मुहावरा आमिर खान की ज़ुबानी सद्य: जन्मे बच्चे के लिए इस्तेमाल हुआ है – ‘लात मारा’, जो किसी चीज़ को हिकारतपूर्वक ठुकराने के लिए इस्तेमाल होता है। ‘लात खाना’ भी हिकारतपूर्वक पिटने के लिए मुहावरा है। ऐसा काम ज्यादा करने वालों को ‘लतखोर’ कहते। और ‘अखाडे का लतमरुवा पहलवान होता है’ तो बहुत लोकप्रिय था, जब हमारे बचपन में गाँव में अखाडे हुआ करते थे। इसमें लतमरुवा का मतलब लात मारने वाला नहीं, बल्कि ‘वरिष्ठ अखाडचियों से लडाये जाना’ है। और लडाते हुए पैर से ही तो ज्यादा गिराया जाता है – ‘लंगी मारना’ तो मशहूर दाँव ही है। सो, लतमरुवा यहाँ पहलवानी के लिए लाक्षणिक प्रयोग है। लेकिन अब मैं जब करियवा के अन्दर-बाहर व्यापे अफाट अन्धकार के बारे में सोचता हूँ, तो लगता है कि करियवा के लात मारने की शुरुआत तो उसके लाचार अन्धत्व से मिली काली दुनिया की मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया स्वरूप हुई होगी, फिर इससे उसके ऊबजनित आक्रोश को किंचित राहत मिली होगी, जो धीरे-धीरे दुर्निवार लत बनती गयी होगी। इस लत के अलावा उसकी किसी गतिविधि की कोई पहलकदमी कभी नज़र नहीं आती थी। उसके अन्धेपने ने उसे कदाचित बहुत बेपरवाह भी बना दिया था।
पेशेवर वृत्ति
कभी मैंने उसे खाने के बाद की डकार लेते नहीं सुना। किसी चीज़ की चाहत-ज़रूरत के लिए भोंकरते (गुहार लगाते) नहीं सुना। कहीं जाने के लिए छटपटाते नहीं देखा। जैसे सारी इच्छाएं-प्रतिक्रियाएं उसके अदृश्य संसार की भेंट चढ गयी हों। लेकिन चारा-दाना मिलने पर खाने में कोई कोताही नहीं बरतता, जुआठ गरदन पे रख दिये जाने पर काम से मुँह मोडते भी कभी नहीं दिखा। गोया खाने-जुतने के अलावा उसे किसी चीज़ से मतलब नहीं, क्योंकि इसके सिवा उसके लिए दुनिया का कोई अस्तित्त्व था ही नहीं। आज की भाषा इसे पेशेवर वृत्ति (प्रोफेशनल अटीट्यूड) कहेगी, पर यदि आज अर्जुन मेरे सामने पूछते कृष्ण से ‘स्थितप्रज्ञस्य का भाषा, समाधिस्थस्य केशव?’, तो मैं स्थितप्रज्ञ-सा खाने व काम करने तथा समाधिस्थ-सा बैठे रहने वाले अपने करियवा को सामने खडा कर देता। करिया के इस भाव को भाँप पाने की नज़र तब होती, तो क्या उनसे काम करा पाता? (जारी)
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