डॉ. संतोष कुमार तिवारी ।
मैं जब महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी आफ बड़ौदा में प्रोफेसर था, तब मुझे एक बार गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद में कुछ अकादेमिक कार्य के लिए बुलाया गया था। विद्यापीठ के पड़ोस में ही नवजीवन ट्रस्ट है जोकि महात्मा गांधी से संबधित पुस्तकें प्रकाशित करता है। तब ऐसे ही मैं नवजीवन ट्रस्ट भी चला गया। और वहाँ के मैनेजिंग ट्रस्टी श्री जीतेन्द्र देसाईजी (1939-2011) से मिला। मैं उनसे बहुत प्रभावित हुआ। वह खद्दर पहनते थे। उनकी पुराने स्टाइल की छोटी सी मेज पर गुजराती भाषा में कुछ परिचय पुस्तिकाएं रखी थीं।
जीतेन्द्रभाई जानते थे कि मैंने ब्रिटेन के कार्डिफ विश्वविद्यालय से प्रेस काउंसिल पर पीएच.डी. की है, और पत्रकारिता- अध्यापन के क्षेत्र में आने से पूर्व लगभग दो दशकों तक सक्रिय पत्रकारिता भी की है। उन्होंने मुझसे अनुरोध किया कि मैं प्रेस काउंसिल आफ इंडिया पर एक पुस्तिका लिखूँ। मैंने कहा कि मैं गुजराती भाषा समझता हूँ पर लिखने में कमजोर हूँ। मेरी बड़ौदा यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाया जाता है। मैंने उनसे बताया कि मैं अंग्रेजी में लिख सकता हूँ। तब उन्होंने कहा कि आप अंग्रेजी में ही लिख दीजिये। हम लोग उसका गुजराती भाषा में अनुवाद करवा लेंगे। उन्होंने मुझे राय दी कि मैं इस मामले में परिचय ट्रस्ट के सम्पादक चन्द्रकान्त शाह से बात कर लूँ।
श्री चन्द्रकान्त शाह मुंबई में रहते थे। मैंने उनको एक पत्र लिखा और उन्हें संक्षेप में अपने बारे में और प्रेस काउंसिल आफ इंडिया के बारे में जानकारी दी। लगभग एक सप्ताह में ही उनके हाथ से लिखा एक पोस्टकार्ड मुझे मिला। उसमें लिखा था कि मैं छ्ह हजार शब्दों में प्रेस काउंसिल आफ इंडिया पर अपनी पाण्डुलिपि अंग्रेजी में लिख कर भेज दूँ। और उसके साथ अपना संक्षिप्त परिचय व फोटो भी उन्हें भेज दूँ। पोस्टकार्ड में उन्होंने यह भी लिखा था कि मेरी पुस्तिका का कापीराइट मेरे पास ही रहेगा और परिचय ट्रस्ट इस लेखन के लिए मुझे दो हजार रुपये देगा। सभी जरूरी बातें उन्होने एक ही पोस्ट कार्ड में लिख दी थीं। प्रत्येक परिचय पुस्तिका में लेखक का संक्षिप्त परिचय व फोटो अन्तिम कवर पेज पर छापा जाता है।
वर्ष 2002 के अन्त में मैंने उनको प्रेस काउंसिल आफ इंडिया पर अपनी पाण्डुलिपि भेज दी। कुछ दिनों बाद जनवरी 2003 में 36 पेज की मेरी परिचय पुस्तिका छप कर मेरे पास आ गई। उसके साथ दो हजार रुपए का एक चेक भी लगा हुआ था और उस चेक प्राप्ति के वास्ते एक रसीद भी लगी थी। उस रसीद पर मुझे अपने हस्ताक्षर करके उन्हें वापस भेजना था। मैंने सोचा कि परिचय ट्रस्ट वाले अपनी मातृभाषा की सेवा पूरी लगन से कर रहे हैं; इसलिए मुझे उनसे कुछ भी मानदेय नहीं लेना चाहिए। इस कारण मैंने उस चेक को अपनी बैंक में जमा नहीं किया और उन्हें वह रसीद भी अपने दस्तखत करके वापस नहीं भेजी।
कुछ दिनों बाद श्री चन्द्रकान्त शाह एक पत्र मेरे पास आया जिसमें उन्होंने मेरे दस्तखत की हुई रसीद मांगी। मैंने उनको उत्तर दिया कि मैं आपसे कोई पैसा नहीं लेना चाहता हूँ और मैंने उनको वह दो हजार रुपये का चेक वापस कर दिया। इस पर उनका फिर एक पत्र मेरे पास आया जिसमें कि वह चेक फिर संलग्न था। पत्र में उन्होंने मुझसे चेक स्वीकार करने के लिए पुनः अनुरोध किया। तब मैंने उसे स्वीकार कर लिया और उसकी प्राप्ति की रसीद उनको भेज दी। उन दिनों किसी चेक को छह माह वैध माना जाता था जिसेकि बाद में घटा कर तीन माह कर दिया गया है।
जन्मभूमि ट्रस्ट से उदार आर्थिक सहायता
प्रेस काउंसिल आफ इंडिया पर मेरी परिचय पुस्तिका में यह लिखा हुआ है कि वह पुस्तिका जन्मभूमि ट्रस्ट की उदार आर्थिक सहायता से प्रकाशित की गई है। जन्मभूमि ट्रस्ट से परिचय ट्रस्ट ने ही संपर्क किया था, मैंने नहीं। जन्मभूमि ट्रस्ट गुजराती भाषा में समाचार पत्र भी निकलता है।
दीप से दीप जले
परिचय ट्रस्ट के बारे में मैंने अपना अनुभव लखनऊ में प्रोफेसर शैल चतुर्वेदीजी से साझा किया। मेरा अनुभव सुन कर उनके आँखों में एक चमक आ गई। शैल चतुर्वेदीजी गोरखपुर विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफेसर थे। उनके पिताजी पद्म भूषण पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदीजी अनन्य हिन्दी सेवक थे। वह हिन्दी की यशस्वी पत्रिका सरस्वती के सम्पादक भी रहे थे। शायद उन्हीं के पैसे से हिन्दी वाङ्ग्मय निधि अर्थात ट्रस्ट बना था हिन्दी की सेवा करने के लिए। शैल चतुर्वेदीजी इस निधि के अध्यक्ष थे।
परिचय ट्रस्ट के बारे में मेरा अनुभव सुनकर चतुर्वेदीजी ने ‘हमारा लखनऊ पुस्तकमाला’ प्रारम्भ की। इसके अंतर्गत उन्होंने दस रुपये मूल्य की लगभग बीस छोटी-छोटी पुस्तकें लखनऊ के बारे में निकालीं। इनमें से कुछ के शीर्षक इस प्रकार थे: लखनऊ का बंग समाज, लखनऊ के मुहल्ले और उनकी शान, लखनऊ के कश्मीरी पंडित, लखनऊ – नवाबों से पहले, लखनऊ में 1857 की क्रांति (दो भागों में), बेगम हज़रत महल, लखनऊ का कायस्थ समाज, लखनऊ के चित्रकार और मूर्तिकार, लखनऊ के संगीतकार, लखनऊ का शिया समाज, मुंशी नवल किशोर और उनका प्रेस, लखनऊ का काफी हाउस, आदि।
इस प्रकार ज्ञान का प्रकाश फैलाने के लिए जो दीपक शिकागो यूनिवर्सिटी में प्रज्ज्वलित हुआ था, उससे परिचय ट्रस्ट भी प्रज्ज्वलित हुआ और हिन्दी वाङ्ग्मय निधि को भी उससे प्रेरणा मिली।
एक बार मैंने चतुर्वेदीजी से कहा की यदि आप लखनऊ के बारे में ये पुस्तिकाएँ अंग्रेज़ी में निकालें, तो आपका नाम पूरे विश्व में फैलेगा। तब उनका उत्तर था – “जिसे अंग्रेजी में निकालना हो, निकाले; मुझे केवल अपनी मातृभाषा हिन्दी की ही सेवा करनी है।“
(लेखक झारखण्ड केन्द्रीय विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं)