डॉ. राजेश शर्मा।

भारत में बीबीसी डॉक्यूमेंट्री की स्क्रीनिंग को लेकर विवाद थम नहीं रहा है। केंद्र सरकार ने सोशल मीडिया पर वीडियो लिंक ब्लॉक करने के आदेश दिए जो दिए जैसे राजनीतिक दलों को एक अवसर और मिल गया केंद्र सरकार की खुली आलोचना करने का । लेकिन जो आज इस बीबीसी डॉक्यूमेंट्री को अभिव्‍यक्‍ति का आधार बता रहे हैं और संविधानिक अधिकारों की बढ़ चढ़कर चर्चा कर रहे हैं, उन्‍हें अवश्‍य एक बार भारतीय इतिहास को देखना चाहिए, जहां समय, काल, परिस्‍थ‍िति में तत्‍कालीन सरकारों ने उन तमाम पुस्‍तकों को बैन किया है जिनसे लगा कि यह भारती की संप्रभुता, एकता और अखण्‍डता के लिए किसी प्रकार से संकट खड़ा कर सकती हैं।

यह है बड़ी चिंता की बात

देश में इस समय जो सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार के फैसले को चुनौती देते हुए याचिकाएं दायर की गई हैं, उनका बहुत औचित्‍य नजर नहीं आ रहा है। वह इसलिए कि आप ऐसे समय में अपने देश के प्रधानमंत्री का विरोध कर रहे हैं जब दुनिया भारत के नेतृत्‍व को खुले मन से स्‍वीकार करने के लिए आगे आई है। आप उस दौर में हैं जहां आपका नेता स्‍थानीय न रहकर वैश्‍विक हो गया है और उसके व्‍यक्‍तित्‍व के प्रभाव से दुनिया आपको भी एक महाशक्‍ति के रूप में देखने लगी है। हर वह देश जो कल तक भारत को कमजोर, बीमारू और आर्थ‍िक रूप से पिछड़ा मानता रहा, हमारे वैज्ञानिक प्रयोगों को अस्‍वीकार करता रहा, हमारी क्षमताओं को सदैव कम आंकता रहा है।  उन देशों की स्‍थ‍िति आज यह है कि वे भी भारत की भूरी-भूरी प्रशंसा करते हुए नजर आ रहे हैं। यह चमत्‍कार जिस व्‍यक्‍ति के दम से है, यह तो विपक्ष को भी स्‍वीकारना होना कि उसका नाम नरेंद्र मोदी है, फिर आप उसके ऊपर रची गई इस फिल्‍म को दिखाकर किसे कमजोर कर रहे हैं?  वास्‍तव में आज यह सोचनेवाली महत्‍वपूर्ण चिंता की बात है।

पहले भी विवादित फिल्मों और डॉक्‍यूमेंट्री पर लग है चुकी रोक

यह पहली बार नहीं है जब किसी सरकार ने राजनीतिक कारणों से किसी फिल्म, डॉक्यूमेंट्री या किताब पर रोक लगाया हो। इसके पहले इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई, राजीव गांधी और मनमोहन सिंह की सरकार में विवादित फिल्मों और डॉक्‍यूमेंट्री पर कार्रवाई की गई थी। इंदिरा सरकार के दौरान कई फिल्मों को रिलीज होने पहले ही रोक दिया गया।  यह एतिहासिक तथ्‍य है कि साल 1964 से 1997 के बीच 7 प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल में 17 किताबों पर बैन लगाया गया था। इनमें से 7 किताबें ऐसी थी जिस पर इंदिरा गांधी के कार्यकाल में बैन किया गया था। ‘सैटेनिक वर्सेज’ साल  1988 में बैन लगाया गया था, जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे। ये सलमान रुश्दी की चर्चित किताबों में से एक थी।

पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के कार्यकाल में ‘प्राइस ऑफ पावर’ की बिक्री पर स्टे लगा दिया था। इस किताब में मौजूदा पीएम के बारे में दावा किया गया था कि मोरारजी देसाई अमेरिकी खुफिया एजेंसी के एजेंट थे। इसके अलावा ‘स्मैश एंड ग्रैब: एनेक्सेशन ऑफ सिक्किम’ किताब के खिलाफ भी दिल्ली हाईकोर्ट में दायर याचिका के बाद इस पर बैन लगा दिया गया था। इनके अतिरिक्‍त अनेक पुस्‍तकों का और जिक्र किया जा सकता है,जिन्‍हें समय-समय पर विभिन्‍न सरकारों द्वारा रोका गया है।

यह भी आज समझ लेने की जरूरत है कि बीबीसी द्वारा डॉक्यूमेंट्री से भारत में विवाद खड़ा करने का यह कोई पहला प्रकरण नहीं है। वह पूर्व में भी विवाद खड़े करती रही है। 2015 में आई लेस्ली उडविन की ‘इंडियाज डॉटर’ दिल्ली में कुख्यात निर्भया सामूहिक बलात्कार और हत्या पर आधारित डॉक्यूमेंट्री बीबीसी की ही थी। बलात्कारियों में से एक मुकेश के साथ इंटरव्यू के कुछ हिस्सों सहित फिल्म के कुछ अंश प्रसारित किए गए थे। पुलिस ने इस डॉक्यूमेंट्री पर रोक लगाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया। उस मामले में एक प्राथमिकी दर्ज की गई थी जिसमें कहा गया था कि कंटेंट अत्यधिक आपत्तिजनक, दुर्भावनापूर्ण और अपमानजनक टिप्पणियों के साथ है।  भारत सरकार, सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने तुरन्‍त इस को संज्ञान में लिया और ‘एडवाइजरी’ जारी की थी, जिसमें सभी प्राइवेट सैटेलाइट टीवी चैनलों को ‘इंडियाज़ डॉटर’ डॉक्यूमेंट्री या इसके किसी अंश का प्रसारण नहीं करने की सलाह दी गई थी।

ध्‍यान में रखने की जरूरत है कि बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री द मोदी क्वेश्चन 2002 के गुजरात दंगों पर बनी पहली डॉक्यूमेंट्री नहीं है बल्कि इसके आने से दशकों पहले राकेश शर्मा की तरफ से डायरेक्ट की गई डॉक्यूमेंट्री ‘फाइनल सॉल्यूशन’ में बताया गया था कि गुजरात में सांप्रदायिक हिंसा को प्लान किया गया था। सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन ने डॉक्यूमेंट्री को समाज में हिंसा फैलाने वाला बताते हुए इसे पास नहीं किया। आनंद पटवर्धन की डॉक्यूमेंट्री ‘राम के नाम’ की गिनती सबसे विवादित डॉक्युमेंट्री में की जाती है। 1992 में फिल्माई गई ये डॉक्यूमेंट्री अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) के अभियान पर आधारित है। ‘किस्सा कुर्सी का’, ‘आंधी’, ‘तमिल ड्रामा कुत्रापथिरिकई’, ‘ब्‍लैक फ्राइडे’ और ‘इंशाअल्लाह कश्मीर’ को भी पुरानी सरकारों की तरफ से बैन किया जा चुका है।

केंद्रीय मंत्री की बातें बहुत हद तक सही

बीबीसी की विवादित डॉक्यूमेंट्री पर अभी कुछ दिन पहले केंद्रीय मंत्री किरेण रिजिजू ने सोशल मीडिया में लिखा है कि ‘कुछ लोगों के लिए गोरे शासक अभी भी मालिक हैं जिनका भारत पर फैसला अंतिम है न कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय का फैसला या भारत के लोगों की इच्छा. भारत में कुछ लोग अभी भी औपनिवेशिक नशे से दूर नहीं हुए हैं।  वे लोग बीबीसी को भारत का उच्चतम न्यायालय से ऊपर मानते हैं  और अपने नैतिक आकाओं को खुश करने के लिए  देश की गरिमा और छवि को किसी भी हद तक गिरा देते हैं। आज केंद्रीय मंत्री की कही ये सभी बातें बहुत हद तक सच लग रही हैं।

बीबीसी डॉक्यूमेंट्री पर समझने की बात इतनी भर है कि ये भारत की तेजी से वैश्विक शक्‍तिशाली उभरती छवि के खिलाफ ‘षड्यंत्र’ है।  डॉक्यूमेंट्री में प्रधानमंत्री पर हमला वास्‍तविकता में भारतीय न्यायपालिका के लिए भी चुनौती है। यह भी आश्‍चर्य है कि भारत में आज ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है जोकि एक विदेशी डॉक्यूमेंट्री निर्माता, ‘वह भी हमारे औपनिवेशिक शासक’, की राय को देश की शीर्ष अदालत के फैसले से अधिक महत्व दे रहे हैं।

भारत को विश्‍व भर में कमजोर करने की साजिश

आज आवश्‍यकता देश के सभी लोगों के बीच इस बात को ध्‍यान में रखने की है कि यह एक ऐसा समय है जब भारत ने जी20 की अध्यक्षता ग्रहण की है। आखिर इसी समय इस झूठी सामग्री को सामने लाने के लिए यह विशेष समय चुना जाना दर्शाता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो सिर्फ बहाना हैं, इनके माध्‍यम से भारत को विश्‍व भर में कमजोर करने की साजिश बीबीसी ने रची है और हमारे देश के तमाम लोग उसे सिर्फ इसलिए कि वे पीएम के रूप में मोदी को पसंद नहीं करते हैं अभिव्‍यक्‍ति का नाम देकर वास्‍तव में देश को कमजोर करने का ही काम कर रहे हैं।
(लेखक वरिष्‍ठ स्‍तम्‍भकार एवं सामाजिक विश्‍लेषण  हैं।)