प्रदीप सिंह ।
लम्बी बीमारी के बाद अपने पीछे एक समृद्ध राजनीतिक विरासत छोड़कर गए राम विलास पासवान भारतीय राजनीति की ऐसी शख्सियत हैं जिन्हें हम किसी एक फ्रेम में नहीं रख सकते। केंद्रीय मंत्री, जुझारू दलित नेता, राजनीति की बारीकियों की गहरी समझ रखने वाले और अपने आप में एक संस्था बन चुके राम विलास पासवान की कमी लंबे समय तक खलेगी। पांच प्रधानमंत्रियों के साथ काम करने के बावजूद कभी ऐसी तल्खी नहीं आई जिससे प्रधानमंत्री पद की गरिमा को धक्का लगे, लोकसभा चुनाव में जीत का विश्व कीर्तिमान, दलित राजनीति के जुझारू स्वरूप को महाराष्ट्र से बाहर लाना, क्षेत्रीय दल का नेता होने के बावजूद राष्ट्रीय राजनीति में चार दशक तक सक्रियता- उनके आयामों की ही सूची बनाने में जुटें तो एक लेख में समेट पाना मुश्किल है। सामाजिक न्याय का सिद्धांत उनके लिए राजनीतिक सुविधा का सिद्धांत नहीं था। इसका सबसे बड़ा प्रमाण दलित नेता होने के बावजूद मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कराने में उनकी भूमिका है।
पासवान ने राजनीति जीवन की शुरुआत डा. राम मनोहर लोहिया की संसोपा (संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी) से की और अपनी पार्टी के नारे ‘संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ’, को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की छात्र वाहिनी के सदस्य के रूप में उन्होंने राजनीति संघर्ष की जो यात्रा शुरू की उस पर बिना रुके, बिना झुके चलते रहे। देश में इमरजेंसी लगी तो उन्होंने उसका विरोध किया और जेल गए। 1977 में जनता पार्टी में शामिल हो गए और हाजीपुर लोकसभा क्षेत्र से जीत का विश्व कीर्तिमान बनाया।
दलित राजनीति के जुझारू स्वरूप को महाराष्ट्र से बाहर लाने और सफलता पूर्वक चलाने में उनकी अहम भूमिका रही। यही वजह है कि बिहार के पासवान समुदाय में उनकी लोकप्रियता में कभी कोई कमी नहीं आई। केंद्र में सरकार किसी पार्टी की हो पासवान की जरूरत सबको थी। जिसके साथ रहे जम कर रहे। मतभेद होने पर अलग भी हो गए पर सरकार में रहकर सरकार या मुख्य सत्तारूढ़ दल के लिए कभी भी परेशानी का सबब नहीं बने।
Paid respects to late Shri Ram Vilas Paswan Ji. His unwavering commitment to social justice will always be remembered. pic.twitter.com/QaklVGclx5
— Narendra Modi (@narendramodi) October 9, 2020
उन्होंने साल 2000 में लोक जनशक्ति पार्टी बनाई। पार्टी की युवा शाखा को दलित सेना का नाम दिया। सामाजिक न्याय में उनका अटूट विश्वास था। इसी का असर था कि दलित नेता होने के बावजूद मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कराने में उन्होंने वीपी सिंह सरकार का पूरा साथ दिया। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करवाने में उनका योगदान पिछड़ा वर्ग के किसी नेता से कम नहीं रहा। उस समय के प्रधानमंत्री वीपी सिंह के वे सबसे विश्वस्त ही नहीं शक्ति पुंज भी थे। 2004 में सोनिया गांधी को संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के लिए साथियों की तलाश थी। वे राम विलास पासवान के घर उन्हें मनाने गयीं । पासवान ने उन्हें निराश नहीं किया।
राम विलास पासवान उन गिने चुने नेताओं में थे जिन्होंने पांच प्रधानमंत्रियों के साथ काम किया। पर प्रधानमंत्री पद की गरिमा के खिलाफ कभी कुछ नहीं किया। परस्पर विरोधी गठबंधनों के साथ काम करने के बावजूद उनके मन में किसी राजनीतिक दल या नेता के प्रति तल्खी का कोई भाव कभी नहीं देखा गया। हालांकि उन्होंने केंद्र में कई मंत्रालयों की जिम्मेदारी संभाली। पर रेल और सामाजिक न्याय मंत्री के रूप में उनके काम को हमेशा याद रखा जाएगा। साल 1989 में वह पहली बार मंत्री बने थे। इसके बावजूद उन्होंने अपनी प्रशासनिक क्षमता का भरपूर प्रदर्शन किया।
लोजपा के संस्थापक एवं अभिभावक श्री रामविलास पासवान जी के निधन का समाचार पूरे लोजपा परिवार के लिए बेहद पीड़ादायक है।
हमारी ईश्वर से प्रार्थना है कि प्रभु स्व. श्री रामविलास पासवान जी की आत्मा को शांति प्रदान करे।
।।ॐ शांति ॐ।। pic.twitter.com/sKOAyaIn9N— Lok Janshakti Party (@LJP4India) October 8, 2020
वस्तुत: पासवान एक क्षेत्रीय दल के राष्ट्रीय नेता थे। राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर उनकी समझ एकदम साफ थी। उनका दल भले ही क्षेत्रीय था पर उनका दृष्टिकोण राष्ट्रीय था। शायद यही कारण है कि बिहार के दलित समुदाय की एक जाति के समर्थन के बूते पर वे चार दशक से ज्यादा समय तक राष्ट्रीय राजनीति में प्रासंगिक बने रहे। बिहार में पासवान समुदाय की आबादी करीब पांच फीसदी है। पर राष्ट्रीय राजनीति में पासवान का कद अपने समुदाय की संख्या से हमेशा बड़ा रहा।
रामविलास पासवान की सबसे बड़ी ताकत उनका स्वभाव था जो आखिरी समय तक वैसा ही बना रहा। मीडिया के महत्व को समझने वाले उनके जैसे नेता भारतीय राजनीति में कम ही हैं। अगर किसी पत्रकार ने उनके खिलाफ भी खबर लिखी तो वे कभी उससे नाराज नहीं हुए। राजनीति की बदलती बयार को भापने में उन्हें महारत हासिल थी। इसलिए उनके विरोधी उन्हें मौसम विज्ञानी कहते थे। हालांकि ऐसी बातों का उनपर या उनके मतदाता पर कभी कोई असर नहीं पड़ा।
उन्हें हमेशा यह पता होता था कि कब और कहां रुक जाना है। राजनीति में यह कम लोगों को पता होता है। बिहार ही नहीं देश की और खास तौर से दलित राजनीति में उनकी कमी लम्बे समय तक महसूस की जाती रहेगी।