जिले का किशनगढ़ अपनी चित्रकारी शैली के लिए देश ही नहीं, बल्कि दुनिया में विख्यात है। किशनगढ़ शैली में बणी ठणी की कृति को श्रेष्ठ माना जाता है, जिसमें एक नारी के सौंदर्य को प्रदर्शित किया गया है। बणी-ठणी चित्र के पीछे की कहानी के बारे में भी बहुत कम ही लोग जानते हैं। राजस्थान की मोनालिसा कहे जाने वाली बणी-ठणी महज एक चित्र नहीं है, बल्कि एक पूरा चरित्र है। संत नागरीदास और बणी ठणी के बीच ईश्वरीय प्रेम की वो कहानी है, जो इतिहास में अमर हो गई।बणी-ठणी कृति किशनगढ़ शैली का ही एक अद्भुत नमूना है। इसे राजस्थान की मोनालिसा भी कहा जाता है। एक समय में किशनगढ़ एक पुरानी और बड़ी रियासत थी। पौने तीन सौ के लगभग गांव इस रियासत के अधीन थे। रियासतकाल में किशनगढ़ की राजधानी रूपनगढ़ हुआ करती थी। किशनगढ़ चित्रकला शैली का प्रादुर्भाव रुपनगढ़ से हुआ। उस वक्त रुपनगढ़ में किशनगढ़ शैली की चित्रकला के लिए एक बड़ा वर्कशॉप हुआ करता था। तत्कालीन राजा सावंत सिंह के समय में यहां तेजी से कला का विकास हुआ। वह कृष्ण भक्त होने के साथ-साथ कला के बड़े कदरदान थे। बताया जाता है कि भवानी दास किशनगढ़ शैली के पहले चित्रकार थे। उन्हें दिल्ली से किशनगढ़ लाया गया था।

चित्रकार और राजकीय हायर सैकेंडरी स्कूल के प्रधानाचार्य पवन कुमावत बताते हैं कि भवानी दास ने ही निहाल चंद को अपनी कलम सुपुर्द की थी। राजा सावंत सिंह ने किशनगढ़ शैली के चित्रकला को बढ़ावा दिया। सांवत सिंह ने ही बणी-ठणी का चित्र बनवाया था। बणी-ठणी का तात्पर्य सुंदर सजी धजी महिला से है। तीखे नाक नक्श वाली बणी ठणी के चित्र ने किशनगढ़ शैली की चित्रकला को देश दुनिया में विख्यात किया।

कुमावत बताते हैं कि बणी ठणी चित्र कृति को लेकर असमंजस की स्थित सदैव रहती है। बणी ठणी के चित्र को हम राधा के स्वरूप में देखते हैं। भारत सरकार ने बणी-ठणी चित्र का एक डाक टिकट भी जारी किया है। पोस्ट डाक टिकट पर भी राधा लिखा हुआ है। चित्रकार कुमावत बताते हैं कि राजा सांवत सिंह पर कृष्ण की भक्ति का गहरा प्रभाव था। वे राजपाट छोड़कर वृंदावन चले गए थे, जहां कृष्ण भक्ति में रमे रहते थे। उन्हें नागरीदास के नाम से भी जाना गया। कृष्ण के साथ राधा का नाम सदैव जुड़ा रहता है। राधा कृष्ण के आध्यात्मिक स्वरूप को लेकर किशनगढ़ के चित्रकारों ने उन्हें प्रेयसी के रूप में यानी एक नायक नायिका के रूप में चित्रित किया है। किशनगढ़ की एकमात्र कलम में ही यह चित्रण स्थापित होता है। इसमें आध्यात्मिक प्रेम को प्रदर्शित किया गया है।

किशनगढ़ शैली के चित्रों के जरिए प्रेम और अध्यात्म की परिभाषा क्या होती है वो चित्रकार और साहित्यकार के माध्यम से देखने को मिलती है। राजा सावंत सिंह ने राधा-कृष्ण को एक प्रेयसी के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया है। इसमें चित्रकारों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण रही है। किशनगढ़ की कलम को आज विश्व स्तर पर देखा जाता है। निश्चित रूप से यह राधा-कृष्ण के प्रेम का प्रतीक है।

काचरिया पीठ के पीठाधीश्वर डॉ. जय कृष्ण देवाचार्य कहते हैं कि राजा राज सिंह बणी ठणी को दिल्ली से लेकर आए थे। वह महारानी वृहददासी के पास रही, जिसका प्रभाव इस पर पड़ा। वृहददासी ने ही वृहददासी भागवत ग्रंथ की रचना की थी। नागरीदास के सम्मुख भी वो भगवत प्रेम के कारण ही आई। रसिक बिहारी के नाम से उन्होंने काफी पद्य ढूंढाड़ी भाषा में लिखे हैं। वृहददासी, सुंदर भवरी का साथ बणी ठणी को मिला, जिससे उनमें स्वाभाविक रूप से भगवत प्रेम बढ़ता गया।

नागरीदास जब वृंदावन चले गए तो उसके एक वर्ष बाद ही वो भी वृंदावन चली गई। वहां नागरीदास के साथ ही वो कृष्ण भक्ति में रमी रहती थी और वहीं उन्होंने प्राण त्याग दिए। वृंदावन में संत नागरीदास और उनके साथ रही बणी-ठणी की समाधि है। पीठाधीश्वर डॉ. जय कृष्ण देवाचार्य बताते हैं कि नागरीदास के साथ उनका एक चित्र भी है, जिसमें नागरीदास तुलसी माला पहने पूजा के लिए बैठे है और वो पूजन सामग्री लेकर आ रही हैं। नागरीदास और उनकी दासी के बीच ऐसा कुछ भी नहीं था, जिसे लोग उछाल रहे हैं। दोनों ही कृष्ण भक्त थे। इसमें धार्मिक रूप में वो उनके साथ रही है। बणी ठणी और संत नागरीदास के बीच ईश्वरीय प्रेम था, न कि लौकिक वासना वाला प्रेम। प्रेम और वासना शब्द में काफी अंतर है. मीरा ने भगवान कृष्ण से प्रेम किया था, जो आध्यात्मिक प्रेम था। बणी ठणी एक दासी थी। वह बेहद ही सुंदर थी। उसमें कृष्ण भक्ति का भाव था। राजा सांवत सिंह जब वृंदावन गए तब कृष्ण भक्ति के कारण ही बणी ठणी भी उनके साथ रही। वृंदावन में सावंत सिंह नागरीदास बन गए और उनके साथ कृष्ण भक्ति में बणी ठणी का जीवन भी सफल हो गया।

माना जाता है कि राजा सावंत सिंह ने ही दासी का चित्र बनवाया था, जो बणी ठणी के नाम से विख्यात हुआ। बणी ठणी की अनमोल कृति राज परिवार के पास आज भी सुरक्षित है। नागरीदास और बणी ठणी के बीच आध्यात्मिक प्रेम था, जो कृष्ण भक्ति से शुरू हुआ और कृष्ण भक्ति के साथ ही अमर हो गया।(एएमएपी)