उमेश चतुर्वेदी ।

क्या टेलीविजन के दर्शकों की संख्या का आंकड़ा जुटाने वाली ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल यानी बार्क के आंकड़ों को प्रभावित किया जा सकता है? क्या जिन घरों में पीपल्स मीटर लगे हैं, उन्हें महज चार-पांच सौ रुपये प्रति महीने का गिफ्ट देकर कोई चैनल वाला अपने चैनल को देखने की व्यवस्था करा सकता है?


 

-ये सवाल इन दिनों मुंबई पुलिस कमिश्नर परमवीर सिंह के उस खुलासे के बाद उठ रहे हैं, जिसमें उन्होंने दावा किया है कि कुछ चैनल वाले मुंबई के कुछ घर वालों को चार-पांच सौ रुपये महीने की रिश्वत देकर अपने चैनल की टीआरपी बढ़ा रहे थे। हालांकि इस मामले की जो एफआईआर पुलिस ने दर्ज की है, उसमें रिपब्लिक भारत या उसके अंग्रेजी चैनल रिपब्लिक का नाम नहीं है, लेकिन परमवीर सिंह ने अपनी प्रेस कांफ्रेंस में यह कह कर जरूर सनसनी फैला दी कि जो लोग इस धोखाधड़ी में गिरफ्तार किए गए हैं, उनमें से कुछ ने रिपब्लिक का नाम लिया है। दिलचस्प यह है कि इस मामले के प्रचार और अपनी पीठ थपथपाने को लेकर मुंबई पुलिस ने जो रणनीति अख्तियार की, उसमें परमवीर सिंह ने उस चैनल को विशेष या एक्सक्लूसिव इंटरव्यू दिया, जिसकी मातृसंस्था का नाम इस मामले की एफआईआर में दर्ज है। परमवीर सिंह ने आजतक को इंटरव्यू दिया और उसकी मातृसंस्था इंडिया टुडे का नाम एफआईआर में दर्ज है।

विश्वसनीयता पर सवाल

मुंबई पुलिस की इसी रणनीति ने उसके कथित खुलासे की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर दिए। सामान्य तौर पर माना जा रहा है कि रिपब्लिक या रिपब्लिक भारत को मुंबई पुलिस ने इसलिए निशाने पर लिया, क्योंकि पालघर में साधुओं की नृशंस हत्या के बाद से ही उसने महाराष्ट्र सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। चूंकि इस केस को लेकर महाराष्ट्र पुलिस की लीपापोती का अंदेशा बढ़ा था तो रिपब्लिक के प्रोमोटर और संपादक अर्णब गोस्वामी ने कांग्रेस अध्यक्ष को ही सीधे-सीधे निशाने पर ले लिया। इससे कांग्रेस इतनी नाराज हुई कि कांग्रेस शासित राज्य छतीसगढ़ के हर जिले में अर्णब के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी। अर्णब के खिलाफ मुंबई पुलिस ने भी मामला दर्ज किया। उनसे घंटों तक पूछताछ चलती रही। यह बात और है कि सुप्रीम कोर्ट ने उनके खिलाफ दायर सभी एफआईआर में सिर्फ एक ही जगह पूछताछ करने का आदेश सुनाया।

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चूंकि कांग्रेस का शासन का लंबा इतिहास और अनुभव है, लिहाजा उसके कार्यकर्ता और नेता अपने सर्वोच्च नेतृत्व के खिलाफ उठने वाली आवाजों को हतोत्साहित करने या दबाने के लिए ऐसे हथकंडे पहले से ही अपनाते रहे हैं और उनके सामने विरोधी आवाजें या तो चुप हो जाती रही हैं या फिर जबरदस्ती उन्हें चुप कराया जाता रहा है। लेकिन अर्णब दूसरी मिट्टी के बने हैं, लिहाजा उन्होंने ना तो हार मानी और ना ही झुके। अभी यह मामला चल ही रहा था कि हिंदी सिनेमा के लोकप्रिय और बिहार मूल के अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत ने 14 जून को आत्महत्या कर ली। इसके ठीक हफ्तेभर पहले उनकी मैनेजर रहीं दिशा साल्यान की भी खुदकुशी की खबरें आईं। समाचार माध्यमों ने शुरू में इन मामलों को वैसे ही लिया, जैसे मुंबई पुलिस ने बताया। लेकिन रिपब्लिक ने अपना अलग रूख अख्तियार किया। उसने दिशा की खुदकुशी को लेकर चौंकाऊ खुलासे किए और यह बताया कि वह खुदकुशी नहीं, बल्कि हत्या थी और इसी कड़ी में सुशांत सिंह राजपूत की हत्या की गई। रिपब्लिक समूह की रिपोर्टों से स्पष्ट संकेत मिलता रहा कि इन हत्याओं के पीछे महाराष्ट्र की सत्ता से जुड़े ताकतवर हाथ हैं। इसीलिए इन मामलों को खुदकुशी बताया जा रहा है। रिपब्लिक अपनी इस राय पर अब भी कायम है कि उसका रूख सही है और ये दोनों खुदकुशी नहीं, हत्याएं हैं।

बाकी चैनलों को खल रही यह पैठ

रिपब्लिक के इस रूख से टेलीविजन की दुनिया का स्टैंड बदलने लगा। साल 2002 में बतौर चैनल स्वतंत्र रूप से शुरू होने के बाद दो-एक हफ्तों को छोड़ दें तो टीआरपी में आजतक की बादशाहत को किसी ने चुनौती नहीं दी। लेकिन रिपब्लिक भारत ने उसकी चुनौती को ना सिर्फ तोड़ दिया, ये पंक्तियां लिखे जाने तक तकरीबन सात हफ्ते से वह हिंदी समाचार चैनलों का सिरमौर बना हुआ है। वैसे भी उसका अंग्रेजी चैनल अपनी शुरूआत यानी 2017 से ही अपनी दुनिया का बादशाह है। जो लोग टेलीविजन को जानते हैं, उन्हें पता है कि टीआरपी पर ही टेलीविजन की दुनिया की कमाई निर्भर करती है। एक आंकड़े के मुताबिक भारत में टेलीविजन विज्ञापन का कारोबार 34 हजार करोड़ रुपये तक पहुंच गया है। जाहिर है कि इतनी बड़ी रकम में उसकी हिस्सेदारी ज्यादा होगी, जो सिरमौर होगा। अपनी पत्रकारिता, लीक से हटकर की गई रिपोर्टिंग के चलते रिपब्लिक ने इस लौह दीवार में ना सिर्फ बड़ा छेद कर दिया है, बल्कि उसके सहारे अपनी मजबूत पैठ स्थापित कर दी है। यह पैठ ही बाकी चैनलों को खल रही है। दिलचस्प यह है कि इस तथ्य को भारतीय टेलीविजन का दर्शक भी समझने लगा है। यही वजह है कि जब रिपब्लिक द्वारा टीवी रेटिंग प्वाइंट में हेरफेर कराने का आरोप मुंबई पुलिस कमिश्नर ने लगाया तो आम दर्शकों ने इसे पालघर कांड, सुशांत कांड की रिपब्लिक की रिपोर्टिंग के खामियाजे के तौर पर लिया। इसे सामान्य दर्शक यही मानता है कि अर्णब को महाराष्ट्र की उद्धव सरकार और कांग्रेस के सर्वोच्च परिवार पर सवाल उठाने की कीमत चुकानी पड़ रही है।

अर्णब के उभार के पहले तक भारतीय टीवी चैनलों की दुनिया में स्थापित घरानों का वर्चस्व था। एक तरह से कहें तो उनके बीच आपस में सामंजस्य तक स्थापित हो गया था कि बादशाहत भले ही किसी की रहे, वे मिलजुल कर रहेंगे। लेकिन अर्णब ने इस सोच को ही बदल दिया। अर्णब ने गलती ये की कि उन्होंने टीवी चैनलों की रिपोर्टिंग और बहसों को चीखमचिल्ली का केंद्र बना दिया, उन्होंने खुलकर अपने विरोधियों का सार्वजनिक तौर पर नाम लेना शुरू कर दिया। वे खुलकर कहने लगे कि फलां चैनल झूठा है। राजनीति की दुनिया में तो नाम लेकर सवाल उठाने और गालियां देने का चलन स्थापित हो चुका है, लेकिन टेलीविजन चैनलों की दुनिया इससे अछूती थी। अर्णब ने उसे तोड़ दिया।

इसलिए निशाने पर आ गए अर्णब

साल 2014 में केंद्रीय सत्ता में नरेंद्र मोदी के उभार के बाद भारतीय मीडिया का बड़ा हिस्सा उनको पब्लिसिटी भी देता रहा, लेकिन उनके खिलाफ नकारात्मक रूख भी बरकरार रखे रहा। मोदी और अमित शाह की जोड़ी को देश के खूंखार दुश्मन के रूप में परंपराभंजक तौर पर दिखाता रहा। पहले भी ऐसे नैरेटिव सेट किए जाते रहे हैं। शीर्ष के मीडिया घराने ऐसे आख्यान रचते रहे और पीछे से दूसरी और तीसरी श्रेणी का मीडिया उसी राह को अपनाता रहा है। भारतीय मीडिया की इस परिपाटी को अर्णब ने मानने से इनकार कर दिया और अपनी बनाई लकीर पर आगे बढ़ चले, इसलिए वे निशाने पर आ गए। माना जा रहा है कि टीआरपी में छेड़छाड़ की कथित रिपोर्ट के पीछे भी अर्णब को उनके दुस्साहस के लिए दंडित करने का ही भाव ज्यादा है।

Republic TV, Arnab Goswami in dock for TRP fraud: What you need to know

यह भी याद कर लेना चाहिए कि जब तक अर्णब भारत की बौद्धिक परंपरा के स्थापित जनों की सोच के मुताबिक वाले संस्थानों की पत्रकारिता के अंग थे, चाहे एनडीटीवी में रहे हों या फिर टाइम्स नाऊ में, वे सबके दुलारे रहे। आज टेलीविजन के जो संपादक उनकी समाचार कथाओं की आलोचना कर रहे हैं, उनके रूख पर सवाल उठा रहे हैं, वे ही महज चार-पांच साल पहले तक अर्णब को अपनी पत्रकारिता का आदर्श मानते रहे। टाइम्स नाऊ में जब तक अर्णब थे, टाइम्स नाऊ द्वारा ब्रेक की गई खबरों, लाइव रिपोर्टों तक को तमाम हिंदी चैनल खुद भी सीधे प्रसारित करते रहे। लेकिन जैसे ही अर्णब ने अपनी अलग लाइन ली, उनकी रिपोर्टिंग से लोगों को राष्ट्रवादी विचारधारा को लेकर फैलाई गई भ्रांतियां तोड़ने की कोशिश होते दिखी, तमाम चैनल और उनके कर्ताधर्ता उनके खिलाफ हो गए। जिसका नजारा रोजाना अब तमाम खबरिया टीवी चैनलों पर देखने को मिलता है। टीआरपी की लड़ाई में उन्हें मात देने के लिए कभी कोई लोकसरोकार वाली खबरें दिखाने का रस्म निभाता है तो कभी कभी कोई रिपब्लिक को झूठा साबित करता नजर आता है। हाथरस की घटना को मुद्दा बनाने के लिए जिस तरह गैर रिपब्लिक चैनल एक हुए और उन्होंने यूपी सरकार को कठघरे में खड़ा किया, उसे इस टीआरपी खेल में रिपब्लिक से पिछड़ने से उपजी कुंठा के तौर पर सामान्य दर्शकों ने देखा। यही वजह है कि रिपब्लिक भारत की बादशाहत कायम है।

राजनीति जितना सेलेक्टिव कभी नहीं रहा मीडिया

राजनीति हमेशा से मुद्दों के चयन के लिए सेलेक्टिव रही है। मीडिया भी थोड़ा-बहुत पक्षधर रहा है। लोकसरोकार के बहाने ही सही, मीडिया राजनीति जितना सेलेक्टिव कभी नहीं रहा। लेकिन दुर्भाग्यवश अब मीडिया को भी सेलेक्टिवनेस का राजनीतिक रोग लग गया है। अर्णब इसी सेलेक्टिवनेस पर चोट पहुंचा रहे हैं, इसीलिए वे उन लोगों की आंख की भी किरकिरी बन चुके हैं, जिनके वे चार-पांच साल पहले तक हीरो थे। बहरहाल इस पूरी प्रक्रिया में उन्होंने पत्रकारिता की अपनी पिच तैयार की है, जिस पर गाली देने के बहाने ही सही, दूसरे टीवी चैनल भी खेलने को मजबूर हो गए हैं।

 

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