प्रदीप सिंह ।
अपना देश भी गजब है। यहां माथा देखकर तिलक लगाने की परम्परा है। व्यक्ति के रसूख से उसके अपराधी होने या न होने का आकलन होता है। सेलिब्रिटी हो तो आरोपी होने पर भी सहानुभूति उसी के साथ हो जाती है, पीड़ित के साथ नहीं।
जी हां, यहां बात फिल्म अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती की हो रही है। उन्हें बाम्बे हाईकोर्ट से जमानत मिल गई है। उनके समर्थकों और मीडिया के एक धड़े की प्रतिक्रिया ऐसी है मानो उन्हें बाइज्जत बरी कर दिया गया है। इतनी ही नहीं अदालत का फैसला आने से पहले ही इतने दिन रिया को जेल में रखना अपराध माना जा रहा है।
सुशांत नशेड़ी …रिया विदुषी
यह सही है कि किसी भी व्यक्ति की स्वतंत्रता एक क्षण के लिए भी नहीं छिननी चाहिए। पर हम उस देश की न्याय और कानून व्यवस्था की बात कर रहे हैं जहां लोग दशकों तक जेल में सिर्फ इसलिए रहते हैं कि उनका मुकदमा शुरू नहीं हुआ या उनके पास जमानत के पैसे नहीं हैं। दो मामलों के जिक्र से बात और साफ हो जाएगी। साल 1996 में दिल्ली पुलिस ने अट्ठाइस वर्षीय मोहम्मद अली भट को नेपाल की राजधानी काठमांडू से उठाया। यह कश्मीरी युवक वहां शाल बेचने का काम करता था। उसे दिल्ली लाकर लाजपतनगर बम धमाके में आरोपी बना दिया। उसके बाद उसे राजस्थान के समलेठी बम विस्फोट कांड का आरोपी बनाया गया। चौबीस साल बाद बाइस जुलाई, 2020 को राजस्थान हाईकोर्ट ने उसे निर्दोष बताया। दूसरा मामला उत्तर प्रदेश के बिजनौर का है। साल 2007 में बाला सिंह नाम के युवक को हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया। साल 2017 में पुलिस को पता चला कि हत्या उसके भाई ने की है। पर दस साल पहले उसकी मां की यही बात पुलिस मानने को तैयार नहीं थी। इनकी चर्चा आपने कहीं सुनी है।
मुझे पता नहीं रिया चक्रवर्ती दोषी हैं या निर्दोष। यह तय करना मेरा काम भी नहीं है। उसके लिए देश में अदालतें हैं। सुशांत सिंह राजपूत की मौत के मामले की जांच ने बता दिया है कि सुशांत बहुत बड़े नशेड़ी थे। यह भी कि रिया सहित बॉलीवुड की तमाम अभिनेत्रियां उनके लिए नशीले पदार्थ का प्रबंध करने में निष्काम भाव से जुटी हुई थीं। रिया ने तो अपने भाई को भी इस पुण्य के काम में लगा दिया। पर डाक्टरों ने बड़ी नाइंसाफी की। मुंबई के कूपर अस्पताल के डाक्टरों ने पोस्टमार्टम रिपोर्ट में लिखा ही नहीं कि सुशांत सिंह राजपूत नशे के आदी थे। वही गलती एम्स, दिल्ली की फारेंसिक टीम ने की। और तो और सुशांत का इलाज करने वाले किसी डाक्टर ने यह नहीं कहा कि सुशांत नशे के आदी थे। पर इससे क्या होता है, रिया कह रही हैं तो मान लेना चाहिए कि ऐसा ही होगा। इन डाक्टरों की अक्षमता की सजा रिया को तो नहीं दी जा सकती। बेचारी एक तो सुशांत के लिए इतना कष्ट उठा रही थी और उल्टे उसे ही जेल भेज दिया।
मुझे पता नहीं रिया चक्रवर्ती दोषी हैं या निर्दोष। यह तय करना मेरा काम भी नहीं है। उसके लिए देश में अदालतें हैं। सुशांत सिंह राजपूत की मौत के मामले की जांच ने बता दिया है कि सुशांत बहुत बड़े नशेड़ी थे। यह भी कि रिया सहित बॉलीवुड की तमाम अभिनेत्रियां उनके लिए नशीले पदार्थ का प्रबंध करने में निष्काम भाव से जुटी हुई थीं। रिया ने तो अपने भाई को भी इस पुण्य के काम में लगा दिया। पर डाक्टरों ने बड़ी नाइंसाफी की।
बड़े लोगों को ही जमानत का अधिकार
रिया को जमानत मिलने से भी उस वर्ग की नाराजगी कम नहीं हुई है। भला एक सेक्युलर सरकार की पुलिस जांच पर सवाल कैसे उठा दिया। जिस परिवार का बेटा मरा वही परिवार बिना किसी अपराध के कटघरे में खड़ा है। जैसे कि जांच की मांग करके उन्होंने बहुत बड़ा गुनाह कर दिया हो। इस वर्ग ने मृतक ( सुशांत) को ही खलनायक बना दिया है। उसके आसपास के सब लोग धर्मात्मा हैं और इतने सालों से सुशांत के सितम चुपचाप सह रहे थे। मान लीजिए कि सुशांत ने आत्महत्या की। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि अदालत का फैसला तो दूर सीबीआई ने अभी तक चार्जशीट भी फाइल नहीं की है।
रिया को जमानत मिलना देश में आजादी के बाद से बनी संस्कृति कि- बेल का अधिकार बड़े लोगों को ही है- के अनुरूप है। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक देश में ज्यादातर विचाराधीन कैदी युवक-युवतियां हैं। इनमें से दो तिहाई दलित, आदिवासी और पिछड़ा वर्ग के लोग हैं। वकील रखना तो दूर इनके पास जमानत के पैसे भी नहीं होते हैं। देश की सर्वोच्च अदालत, सुप्रीम कोर्ट ने चालीस साल पहले कहा था कि ‘इतनी बड़ी संख्या में विचाराधीन कैदियों का होना न्याय व्यवस्था के लिए शर्म की बात है।’ तब से विचाराधीन कैदियों की संख्या लगातार बढ़ रही है और साथ ही शायद न्याय व्यवस्था की शर्म भी। सुप्रीम कोर्ट ने इन विचाराधीन कैदियों के बारे में एक और बात कही कि ‘ये मानवता की दुर्भाग्यशाली प्रजाति हैं।’
ताकतवर लोगों को आसानी से जमानत
सुप्रीम कोर्ट बार बार कहता है कि बेल यानी जमानत नियम है और जेल अपवाद। पर यह बात केवल रसूख वालों पर ही लागू होती है। देश के गरीब तबके के लिए आज भी जेल ही नियम है और बेल अपवाद। लॉ कमीशन ने इससे भी आगे बढ़कर बात कही। अपनी 268वी रिपोर्ट में आयोग ने कहा कि ‘भारत में यह कायदा बन गया है कि रसूख वाले, धनाढ़्य और ताकतवर लोगों को आसानी से जमानत मिल जाती है। जबकि गरीब व्यक्ति जेल में सड़ता रहता है।’ अदालतों का हाल यह है कि 14 नवम्बर, 2019 तक निचली अदालतों में 18 लाख, 46 हजार 741 मामले दस साल से ज्यादा समय से लम्बित हैं। इसके अलावा दो लाख 45 हजार 657 मामले विभिन्न हाईकोर्ट में लम्बित हैं।
ऐसी न्याय व्यवस्था में मामला दर्ज होते ही मुकदमा शुरू हो जाना और गिरफ्तारी के एक महीने में जमानत मिल जाने को यदि अन्याय मानें तो बेचारे उन लाखों विचाराधीन कैदियों के बारे में क्या कहें। मुझे रिया चक्रवर्ती के प्रति कोई राग द्वेष नहीं है। मुझे कानून बनाना हो तो मैं किसी बेटी को कुसूरवार होने पर भी सजा न दूं। पर यहां बात देश के संविधान से बने कानून की हो रही है। आजादी के इतने दशकों बाद भी अमीर को मिलने वाले न्याय को अन्याय बताने का शोर मचाने और गरीब के साथ होने वाले अन्याय पर खामोशी का सिलसिला कब तक चलता रहेगा।