प्रदीप सिंह।
जो लोग दूसरों की निंदा करते हैं उनकी दो कमजोरियां होती हैं। पहला, वह जिनकी निंदा कर रहा होता है उनकी सिर्फ कमियां देखता है, उनकी अच्छाइयां नहीं देखता। वह यह नहीं देखता है कि उसकी अच्छाई और बुराई का जो अनुपात है वह किस तरफ झुका हुआ है। बिना यह देखे कि उसमें अच्छाई ज्यादा है या बुराई, लगातार उसकी बुराइयों पर आक्रमण करता रहता है। दूसरा, वह कभी अपनी ओर झांक कर नहीं देखता कि उसमें क्या कमियां हैं। पिछले आठ-नौ साल से भारत की राजनीति में बुराई करने, निंदा करने, हमला करने के लिए एक ही शख्स हैं और वह हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। उन पर देसी-विदेशी सारे तत्वों की ओर से लगातार हमला जारी है। मगर यहां मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बात नहीं कर रहा हूं, मैं बात कर रहा हूं विपक्ष की। मेरा आकलन है कि विपक्ष की राजनीति बंजर हो चुकी है। अब इसने नेता पैदा करना बंद कर दिए हैं। जो वैज्ञानिक क्रियाएं होती हैं उनका भी असर पड़ना विपक्षी राजनीति पर बंद हो गया है। विखंडन से ऊर्जा पैदा होती है। वह ऊर्जा आपके काम तभी आ सकती है जब आप उसे ग्रहण करते हैं। दो तत्वों के मिलने से भी ऊर्जा पैदा होती है। इसलिए कहते हैं विलय या मिलना ज्यादा कारगर, ज्यादा प्रभावी होता है।
मैं यहां राजनीति की बात कर रहा हूं विज्ञान की नहीं। भारतीय राजनीति में विखंडन का फायदा उठाने वाले बहुत कम नेता हुए हैं। विखंडन का सबसे ज्यादा लाभ अगर किसी ने उठाया है तो वो थीं इंदिरा गांधी। दो बार पार्टी तोड़ा 1969 और 1978 में, दोनों बार वह ज्यादा मजबूत होकर उभरीं। दूसरी तरफ समाजवादी हैं जिनका नया स्वरूप था जनता दल, उनके विखंडन को देखिए। समाजवादियों के विखंडन से कोई नई ऊर्जा उस तरह से पैदा नहीं हो पाई। विखंडन के बाद जो धड़े बने वह अपने लिए कोई नई जमीन तलाश नहीं कर पाए। हालांकि, जनता दल के विखंडन से निकले लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव जैसे नेता ही ऐसा कर पाए। इनके अलावा कांग्रेस से टूटकर जो लोग निकले उनमें ममता बनर्जी और जगन मोहन रेड्डी शामिल हैं। मैं शरद पवार का नाम जानबूझ कर इसलिए नहीं ले रहा हूं कि शरद पवार कांग्रेस में रहते हुए जितने बड़े नेता थे अपनी पार्टी बनाने के बाद वह उसके आधे भी नहीं रह गए। मगर यह बात ममता बनर्जी और जगन मोहन रेड्डी के बारे में नहीं कही जा सकती क्योंकि उनकी पार्टी का कद अपने राज्य में अपनी मूल पार्टी से बड़ा हो गया है। इसलिए मैं कह रहा हूं कि विखंडन से उत्पन्न हुई ऊर्जा का उन्होंने फायदा उठाया, उसका अपने लिए इस्तेमाल किया।
…तो सारे उद्योगपतियों की होती अपनी पार्टियां

अगर आप देखें कि पिछले एक दशक में 2013 से 2023 तक भारतीय राजनीति में विपक्ष के साथ क्या हुआ है। एक साल का समय ओवरलैपिंग पीरियड है जब यूपीए सत्ता में थी। 2013 से नरेंद्र मोदी का उदय शुरू हो गया उसके बाद से विपक्ष की राजनीति को देखिए। आप पूरे देश में यह खोज कर बताइए कि विपक्ष का कौन सा ऐसा नेता है जो अपने कद से बहुत बड़ा बन कर उभरा हो। आपको खोजे नहीं मिलेगा, एक अपवाद के रूप में मिलेंगे छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल। उनके अलावा कांग्रेस में कोई नेता नहीं मिलेगा। जो थे वह चले गए, चाहे वह हिमंत विस्वसरमा हों, चाहे ज्योतिरादित्य सिंधिया हों या जितिन प्रसाद हों। ये लोग जहां से छोड़कर गए उससे बड़े नेता हो गए। यह अलग मामला है कि ये लोग बीजेपी में गए, बीजेपी ने क्या किया, कैसे हुआ उसकी बात नहीं कर रहा हूं। जो लोग हर समय इस चिंता में डूबे रहते हैं कि भारत में जनतंत्र कमजोर हो रहा है, भारतीय जनता पार्टी एकाधिकारवादी पार्टी होती जा रही है, उसका वर्चस्व बढ़ता जा रहा है, बीजेपी और मोदी हर समय चुनावी राजनीति में लगे रहते हैं, हर समय चुनावी मोड में रहते हैं, सवाल यह है कि उसके लिए आपके पास संसाधन होना चाहिए। राजनीति में सबसे बड़ा संसाधन होता है मानव संसाधन। सिर्फ पैसे से राजनीति नहीं होती है। अगर ऐसा होता तो जितने उद्योगपति हैं उन सबकी पार्टियां होती और वे देश पर राज कर रहे होते। ऐसा मानव संसाधन जिस पर लोगों का भरोसा हो, जिसकी लोगों में प्रतिष्ठा हो, ऐसे मानव संसाधन राजनीति में काम आते हैं।
कद नहीं पद वाले नेता हैं राहुल-प्रियंका

विपक्षी पार्टियों में सबसे बड़ी है कांग्रेस पार्टी जिसमें इन दस सालों में सिर्फ दो नेताओं को उभारने की कोशिश हुई। एक की काफी पहले से हो रही थी और एक की चार साल से हो रही है। राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा, दोनों को राष्ट्रीय नेता बनाने की कोशिश हुई। दोनों पद के कारण राष्ट्रीय नेता बने हुए हैं कद के कारण नहीं। दोनों का कद क्षेत्रीय स्तर के नेता से भी कम है। जो नेता एक लोकसभा चुनाव जीतने की हैसियत भी न रखता हो, मतलब जिसके पास लोकसभा की एक सुरक्षित सीट न हो वह राष्ट्रीय नेता होने लायक नहीं है। या तो वह बुद्धिजीवी हो या रणनीतिकार हो और पार्टी के लिए इस रूप में एसेट्स हो। अगर इन दोनों में से नहीं है तो वह पार्टी के लिए किसी काम का नहीं है। पहले राहुल गांधी को राष्ट्रीय नेता बनाने की कोशिश हुई। महामंत्री, उपाध्यक्ष, फिर अध्यक्ष सब बना कर देख लिया मगर बात आगे नहीं बढ़ी। फिर चर्चा होती रही और कांग्रेसी नारा लगाते रहे कि ‘प्रियंका लाओ कांग्रेस बचाओ’। प्रियंका भी आ गईं फिर भी कांग्रेस नहीं बची बल्कि और बुरा हाल हो गया क्योंकि नेतृत्व की विश्वसनीयता नहीं है। आप उठाकर देख लीजिए, विपक्ष की जितनी भी पार्टियां हैं उनमें नया नेतृत्व पनप नहीं रहा है, जहां अच्छी सरकार चल रही है वहां भी और जहां नहीं चल रही है या विपक्ष में है वहां भी। सरकार चलाने का सबसे बड़ा उदाहरण तो ओडिशा में बीजू जनता दल का है। नवीन पटनायक की पार्टी में उनके बाद कौन है यह आप खोजते-खोजते थक जाएंगे फिर भी नहीं मिलेगा। एक नंबर से लेकर पचास नंबर तक खाली ही मिलेगा, कोई है ही नहीं।
क्षेत्रीय दलों ने दूसरी पीढ़ी को उभारने की कोशिश नहीं की

दूसरी पार्टियों में जो हैं वह इसलिए हैं कि उनमें उनके पिता का डीएनए है जिन्होंने पार्टी बनाई थी। चाहे तेजस्वी यादव हों, चाहे अखिलेश यादव हों, इसमें एक तरह से जगन मोहन रेड्डी भी आते हैं। आप जम्मू कश्मीर से शुरू करें तो पीडीपी में देख लीजिए, नेशनल कांफ्रेंस में देख लीजिए। आप तमिलनाडु चले जाइए, डीएमके में देख लीजिए, एआईडीएमके में देख लीजिए। उसके बाद आप एक-एक कर सभी क्षेत्रीय दलों में देखते जाइए। ममता बनर्जी अपने भतीजे को उत्तराधिकारी बनाना चाहती हैं लेकिन पार्टी में नंबर दो कौन होगा ये कोई नहीं बता सकता। जेडीयू में देख लीजिए, नीतीश कुमार के बाद कौन होगा कोई नहीं बता सकता। इन नेताओं ने कभी दूसरी पीढ़ी के नेताओं को उभारने की कोशिश ही नहीं की क्योंकि ये सब कमजोर और डरे हुए नेता थे। डरा हुआ व्यक्ति कभी नहीं चाहेगा कि उसके आसपास का कोई दूसरा मजबूत होने पाए। इस बात को समझना हो तो कांग्रेस में फिर लौट कर चलिए। इंदिरा गांधी जब डरी हुई नहीं थी चाहे 1969 हो या 1978, तब तक उनमें हिम्मत थी। तब तक उनको क्षेत्रीय नेताओं से डर नहीं था लेकिन वह उन्हें उभरने इसलिए नहीं देना चाहती थीं कि वह यस मैन चाहती थीं, इसलिए नहीं कि उनको उनसे डर था। इसलिए कि वफादारी पहला गुण होना चाहिए। इस चक्कर में कांग्रेस आज कहां पहुंच गई है आप खुद ही देख लीजिए। किसी राज्य में दस साल तक सरकार रहने के बावजूद कांग्रेस पार्टी कोई नेतृत्व उभारने में नाकाम रही।
गांधी परिवार की वजह से डूब रही कांग्रेस

1998 में सोनिया गांधी ने कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व संभाल लिया। तब यह कहा गया कि गांधी परिवार के बिना पार्टी चल नहीं सकती, सर्वाइव नहीं कर सकती, आज हकीकत यह है कि गांधी परिवार के साथ ही यह पार्टी डूब रही है। आप राष्ट्रीय स्तर की तो बात ही छोड़ दीजिए, अलग-अलग प्रदेशों में भी देखें तो राज्य स्तर के नेता भी तैयार होना बंद हो गए हैं। विपक्ष की राजनीति आने वाले दिनों में कमजोर ही होनी है मजबूत नहीं होनी है। इसलिए जब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह यह बोलते हैं कि 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस खोजे नहीं मिलेगी तो वह कुछ गलत नहीं कह रहे हैं। कोई पार्टी एकदम से खत्म नहीं होती लेकिन उनका मतलब है कि जो उसका एक समय वर्चस्व था, आज भी विपक्ष की जो नंबर एक पार्टी बनी हुई है वह स्थिति 2024 में बची रहेगी या नहीं यह कोई दावे के साथ नहीं कह सकता। मैंने पहले भी यह सवाल उठाया था, फिर उठा रहा हूं। कौन सी ऐसी पार्टी है जिसका सर्वोच्च नेता जब तीन-तीन राज्यों में चुनाव चल रहे हों तब छुट्टी मना रहा हो। इस तरह से तो पार्टी नहीं चल सकती है। विपक्ष के नेताओं में आप उत्तर भारत में देखिए, उत्तर प्रदेश व बिहार में देखिए, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, उत्तर-पूर्व में देख लीजिए, कोई नया नेतृत्व देखने को नहीं मिलेगा। इसके विपरीत आप देखिए कि किस तरह से बीजेपी लगातार दूसरी पीढ़ी के नेतृत्व को उभारती और आगे बढ़ाती रही है।
घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने
यह फर्क है बीजेपी और कांग्रेस में, यह फर्क है आज की सत्तारूढ़ पार्टी और विपक्षी दलों में। आने वाले दिनों में यह और बड़ी समस्या बनकर उभरेगा। विपक्ष का हाल वही है कि “घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने”। आपका अपना जो जनाधार है उसका विस्तार तो कर नहीं पा रहे और दावा ये है कि हमको सत्ता चाहिए। सत्ता उसको मिलती है जिसके पास लोगों का विश्वास हो, जो लोगों के कल्याण के बारे में सोचता हो, सत्ता में रहने पर उस पर अमल करता हो और सत्ता से बाहर जाने के बाद उस मुद्दे पर डटा रहता हो। उन पर निष्ठा नहीं होती जो दूसरों में केवल खामी निकालने की कोशिश करते हैं। जो यह सोचने को भी तैयार नहीं होते कि लोगों ने अगर उनको सत्ता से बेदखल कर दिया तो क्यों किया, उसकी वजह क्या थी। उनको लगता है कि यह जो हुआ यह हमारी वजह से नहीं दूसरों की वजह से हुआ या जो पार्टी जीती है उसने गड़बड़ किया है या फिर लोगों को समझ में नहीं आता लोग नासमझ हो गए हैं। जब उनको चुना तब लोग समझदार थे, जब उनको हटाकर दूसरे को चुना तब लोग नासमझ हो गए। मतदाता को नासमझ समझने की भूल करने वालों का यही हश्र होगा जो आज के विपक्ष का हो रहा है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ न्यूज पोर्टल एवं यूट्यूब चैनल के संपादक हैं)



