रियासत कालीन परंपरानुसार देवी-देवता की पूजा कर जलाई जाती है बस्तर की होली।

बस्तर की रियासतकालीन अनूठी में 07 मार्च को होलिका दहन किया जायेगा, वहीं बसंतोत्सव अर्थात होली धुरेड़ी 08 मार्च को संपन्न होगी, जिसे लेकर तैयारी शुरू हो गई है। दंतेवाड़ा का फागुन मंड़ई इन दिनों अपने चरम पर है। विदित हो कि बस्तर की रियासत कालीन होलिका दहन भक्त प्रहलाद व होलिका से नहीं बल्कि देवी-देवताओं से जुड़ा हुआ है। बस्तर के रियासतकालीन होली में दंतेवाड़ा की फागुन मंडई, माड़पाल की होली, जगदलपुर की जोड़ा होलिका दहन, कलचा की होली, पुसपाल का होली मेला आज भी शताब्दियों से अनवरत जारी है।बस्तर की होली में भक्त प्रहलाद और होलिका गौण हो जाते हैं, इनके स्थान पर कृष्ण के रूप में विष्णु-नारायण एवं विष्णु के कलयुग के अवतार कल्कि के साथ देवी माता दंतेश्वरी, माता मावली एवं स्थानीय देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना की शताब्दियों पुरानी परंपरा के साथ रंगों का पर्व होली मनाया जाता है। बस्तर के ग्रामीणों की आस्था, विश्वास और समृद्ध परंपरा के अनवरत निर्वहन को होली के अवसर पर यहां साक्षात देखा जा सकता है।

पुसपाल में होलिका दहन नहीं अपितु भरता है मेला

बस्तर संभाग के सभी स्थानों पर होलिका दहन का आयोजन स्थानीय देवी-देवताओं की पूजा अर्चना के साथ किए जाने की परंपरा है, लेकिन जिला मुख्यालय से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित ग्राम पुसपाल में होलिका दहन नहीं किया जाता है। यहां होलिका दहन के स्थान पर परंपरानुसार माता मंदिर में विराजित बहिनिया शीतला, धारणी देवी, परदेसिन देवी, भंडारिन देवी, महामाया आदि सात देवियों और महादेव की पूजा के बाद होली मेले का आयोजन होता है। होली मेला के दौरान मनोरंजन के लिए ख्याति नाम नाट मंडली को आमंत्रित किया जाता है, यह होली मेला का मुख्य आकर्षण होता है। ग्राम के 500 परिवारों के सहयोग से होली मेले की व्यवस्था की जाती है, होली मेले में आसपास के 25 ग्राम देवी-देवता शामिल होते हैं।

दंतेवाड़ा का फागुन मंडई एवं होलिका दहन

दंतेवाड़ा के ऐतिहासिक रियासत कालीन 09 दिनों तक चलने वाले आखेट नवरात्र पूजा विधान के साथ फागुन मंडई में आंवरामार पूजा विधान के बाद, सती सीता स्थल पर शिला के समीप बस्तर संभाग की पहली होलिका दहन की जाती है। यहां गंवरमार रस्म में गंवर (वनभैंसा) का पुतला तैयार किया जाता है। इसमें प्रयुक्त बांस का ढांचा तथा ताड़-फलंगा धोनी पूजा-विधान में प्रयुक्त ताड़ के पत्तों से होली सजती है। होलिका दहन के लिए 07 तरह की लकड़ियों जिसमें ताड, बेर, साल, पलाश, बांस, कनियारी और चंदन के पेड़ों की लकड़ियों का इस्तेमाल किया जाता है।

माड़पाल में जलती है दूसरी होली

बस्तर के महाराजा पुरुषोत्तम देव, भगवान जगन्नाथ के परम भक्त थे। सन् 1408 में महाराजा पुरुषोत्तम देव भगवान जगन्नाथ के सेवक के रूप में रथपति की उपाधि का सौभाग्य प्राप्त कर लौटते वक्त होली की रात ग्राम माड़पाल पहुंचे और वहीं रुके । उन्होंने होलिका दहन भी किया, तब से यह परंपरा लगातार चली आ रही है। संभाग मुख्यालय से 14 किलोमीटर की दूरी पर ग्राम माड़पाल में आज भी राज परिवार के सदस्य होलिका दहन में भाग लेते हैं। माड़पाल में होलिका दहन की रात छोटे रथ पर सवार होकर राजपरिवार के सदस्य होलिका दहन कुंड की परिक्रमा कर, मां दंतेश्वरी की पूजा-अर्चना के बाद होलिका दहन की रस्म निभाते हैं।

तीसरी एक मात्र जगदलपुर में जलती है जोड़ा होली

माड़पाल की होलिका दहन के उपरांत बस्तर संभाग में होलिका दहन किये जाने की परंपरा आज भी विद्यमान है। इस परंपरा में पूर्व की अपेक्षा अब कुछ परिवर्तन जरूर हो गए हैं। पहले माड़पाल में होली जलने के बाद, उस होली की आग जगदलपुर मावली मंदिर के सामने जोडा होलिका दहन के लिए लायी जाती थी, परंतु अब वहां की अग्नि नहीं लाई जाती।माड़पाल एवं जगदलपुर के जोड़ा होलिका दहन के उपरांत ही बस्तर संभाग के अन्य स्थानों पर होलिका दहन किए जाने की परंपरा आज भी बदस्तूर जारी है।

रंगपंचमी की पूर्व संध्या कलचा में जलती है चौथी होली

संभागीय मुख्यालय जगदलपुर से सात किलोमीटर दूर ग्राम कलचा में होलिका दहन, रंगपंचमी की पूर्व संध्या पर किया जाता है। होली की रात कलचा में होलिका दहन नहीं किया जाता है और न ही दूसरे दिन रंग-गुलाल खेला जाता है। यहां रंग-पंचमी के दिन रंग-गुलाल खेले जाने की परंपरा है। माडपाल की होली में राजा के उत्सव में शामिल होने की परंपरा के कारण ग्राम कलचा में रंगपंचमी की पूर्व संध्या पर होलिका दहन करने की परंपरा बन गई। यहां पंचमी के दिन धूमधाम से रंगोत्सव पर्व मनाया जाता है।(एएमएपी)