#santoshtiwariडॉ. संतोष कुमार तिवारी।

जो संयमी होता है और जो सभी प्रकार की वासनाओं से मुक्त हो जाता है, उसे स्वभावत:  कुछ सिद्धियां प्राप्त होती हैं। उड़िया बाबा (सन् 1875-1948) भी ऐसे ही महापुरुष थे। उन्हें कई सिद्धियाँ प्राप्त थीं, परन्तु वह उनका कोई सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं करते थे। फिर भी वह अन्नपूर्णा सिद्धि के लिए विख्यात थे। सन्तों की समस्त चेष्टाएँ लोक कल्याणार्थ होती हैं।

वह उड़िया बाबा इसलिए कहे जाते थे, क्योंकि वह मूलत: उड़ीसा के थे।

अपने अनुभवों के आधार पर उड़िया बाबा के बारे में स्वामी अखण्डानन्दजी सरस्वती (सन् 1911-1987) और श्रीप्रभुदत्त ब्रह्मचारीजी (सन् 1885-1990) ने बहुत लम्बे लेख लिखे हैं। स्वामी अखण्डानन्दजी का लेख उनकी पुस्तक ‘पावन प्रसंग’ में पृष्ठ 1 से 28 पर है। इस पुस्तक के चतुर्थ संस्करण (मई 2012) के प्रकाशक हैं: सत्साहित्य प्रकाशन ट्रस्ट, वृन्दावन।

श्रीप्रभुदत्त ब्रह्मचारीजी का लेख ‘श्री उड़िया बाबा के संस्मरण’ नामक पुस्तक के प्रथम खण्ड में पृष्ठ 21-44 तक पर है। इसके द्वितीय खण्ड में भी पृष्ठ 4 से 17 तक स्वामी अखण्डानन्दजी का उड़िया बाबा के बारे में एक लेख है। इस पुस्तक के प्रकाशक हैं: श्री कृष्णाश्रम, दावानल कुण्ड, वृन्दावन, मथुरा। इसका प्रकाशन उड़िया बाबा के परलोकगमन के लगभग दस वर्ष बाद संवत् 2015 में हुआ। इन दोनों खण्डों के संपादक हैं: स्वामी सनातनदेव और गोविन्ददास वैष्णव।

‘पावन प्रसंग’ के पृष्ठ 2-3 पर स्वामी अखण्डानन्दजी लिखते हैं:

झूसी (प्रयाग) में  आयोजित सत्संग में भागीरथी के किनारे-किनारे दूर-दूर तक विरक्त अवधूतों की झोपड़ियाँ पड़ी हुई थीं। परन्तु श्रीउड़िया बाबाजी महाराजके सत्संगका रंग अद्भुत था । जिज्ञासु, ज्ञानी, विरक्त, विद्वान् आते रहते, बड़े-बड़े दांव-पेचके प्रश्न करते और वे हँसते-हँसते थोड़ेसे शब्दों में ही उत्तर दे देते थे। अत्यन्त चमत्कारपूर्ण वातावरण था। श्रीप्रभुदत्तजी ब्रह्मचारीके सम्वत्सर-व्यापी अखण्ड नामसंकीर्तन महायज्ञका समापन महोत्सव था । ब्रह्मचारीजी ने पहले ही दिन (उड़िया) बाबा से निवेदन कर दिया कि- ‘महाराज! आपको अन्नपूर्णाकी सिद्धि है। अब आप ही उत्सव सम्भालिये। हमारे कार्यालय में केवल ढाई सौ रुपये हैं।’ बाबा हँस दिये और दिन-प्रतिदिन भण्डारे होने लगे। अन्नपूर्णा ने अपना खजाना खोल दिया। कहने की आवश्यकता नहीं कि ढाई सौ रुपये तो एक दिन के जलपानके लिए भी पर्याप्त नहीं थे।

एक बार आषाढ़ का महीना था। फर्रुखाबाद के पास एक बार आपको दिन भर कहीं भिक्षा नहीं मिली। इस घटना का वर्णन करते हुए पावन प्रसंग के पृष्ठ 13-14 पर स्वामी अखण्डानन्दजी ने लिखा:

रात का समय था। कोसों तक कहीं कोई गाँव नहीं था। कोई आदमी भी नहीं दिखाई पड़ रहा था। उड़िया बाबा को भूख भी लगी थी। पर कोई उपाय नहीं था । वह एक वह एक वृक्ष के नीचे सिद्धासन लगा कर बैठ गए। थोड़ी देर में आकाश में चन्द्रोदय हुआ। उसी समय कहीं से दो सुन्दर बालक हँसते-खिलखिलाते आपके पास आए। बोले- ‘बाबा, रोटी खाओगे?’

आपने कहा- ‘हाँ बेटा! पर तुम्हारा घर कहाँ है? किस जाति के हो तुम?’

बच्चे हँसते हुए बोले – ‘हम तो पास के ही गाँव में रहते हैं बाबा! माहेश्वरी बनिया हैं हम।’

‘बेटा! तुम इतनी रात में अकेले क्यों घूम रहे हो?’

‘ऐसे ही खेलते-खेलते हम यहाँ चले आये।’

अभी तक बाबाजी केवल ब्राह्मणों के यहाँ भिक्षा करते थे, पर इन बालकों ने ऐसा मुग्ध कर लिया कि उन्होंने उनकी भिक्षा स्वीकार कर ली।

विधि-निषेध की श्रंखला टूट गई।

May be an image of 1 person and text that says "जय श्री हरि| गुरु को मनुष्य समझना, भगवद्विग्रह को पत्थर समझना, मंत्र को शब्द समझना, 'चरणोदक को सामान्य जल मानना, महाप्रसाद को केवल भोजन समझना तथा साधु की जाति पर दृष्टि रखना उपासना के महान विघ्न हैं| ऐसे लोगों का कल्याण नहीं हो सकता श्री उडिया बाबाजी।"

बच्चे थोड़ी देर में रोटियाँ और केले की सब्जी ले आए। आप भोजन करते रहे, बालक खेलते रहे। जब खा चुके तो पूछा – ‘बाबा, हम जाएं?’

‘हाँ बेटा जाओ!’

श्रीमहाराजजी (उड़िया बाबा) थोड़ी नींद लेकर उठे तो देखते है ब्राह्म मुहूर्त की वेला में वे दोनों बालक फिर हाजिर। ‘बाबा! बाबा!!’  कहकर वे आपके पास आ गए।

बाबा ने पूछा- ‘बेटा, अभी तो सवेरा भी नहीं हुआ, तुम कैसे आ गए?’

बोले- ‘बाबा, हम खेलनेके लिए चले आए हैं। अच्छा यह तो बताओ कि आप कुछ पिएंगे?’

महाराजजी के ‘हाँ’ कहते ही वे जाकर मिट्टी की हँडिया में छाछ ले आए।

और महाराजजी के तँबे (एक तरह का पात्र) में भर कर चले गये ।

सूर्योदय होने पर श्रीमहाराजजी ने दूर-दूर तक देखा। कहीं कोई गाँव था ही नहीं। मार्ग में एक महात्मासे इस प्रसंग की चर्चा की तो बोले, ‘यह विश्वम्भर की लीला है!’

अपने उसी लेख के पृष्ठ 46-47 पर स्वामी अखण्डानन्दजी ने लिखा:

यह तो सभी देखते थे कि उनके यहां अन्न की कभी कमी नहीं पड़ती थी। कैसी भी नई या बीहड़ जगह में चले जाएं, साथ के सभी लोगों के भोजन की व्यवस्था हो जाती थी।

निराभिमानिता की वे मूर्ति थे

एक अन्य लेख (‘श्री उड़िया बाबा के संस्मरण’ द्वितीय खण्ड, पृष्ठ 16-17) में स्वामी अखण्डानन्दजी ने लिखा:

निराभिमानिता की वे (उड़िया बाबा) मूर्ति थे। … यदि आश्रम में कहीं गंदगी दीख जाती या बर्तन जूठे पड़े होते, तो किसी से कुछ भी न कह कर स्वयं ही झाड़ू लगाने या बर्तन मांजने के लिए  दौड़ पड़ते थे। उनकी सभी के प्रति समदृष्टि थी। किसी को भूखा वो नहीं देख सकते थे। … अच्छा (स्वादिष्ट) भोजन उनसे किया नहीं जाता था। … स्वयं तो सबको भोजन करा देने के बाद ही खाते थे। … अपने पास एक कौड़ी भी नहीं रखते थे और किसी से कुछ मांगते भी नहीं थे। कभी-कभी तो बिना कुछ ओढ़े-बिछाए पृथ्वी पर सो जाते थे। सचमुच वैराग्य की तो वे मूर्ति ही थे।

आपके मुख मण्डल पर सर्वदा प्रसन्नता खेलती थी, रोम-रोम उत्साह से फड़कता था और आपकी चल में अद्भुत मस्ती थी।

कुत्तों और बन्दरों की दावत

‘श्री उड़िया बाबा के संस्मरण’ (द्वितीय खण्ड, पृष्ठ 26) पर स्वामी विश्व बंधु सत्यार्थी ने लिखा:

“मैंने कई बार अपने हाथ से बना कर उन्हें भोजन कराया। वे मेरे भोजन को बड़े प्रेम से पा  लेते थे।

“बाबा के यहां भण्डारे तो प्राय: होते ही रहते थे। एक बार रामघाट में मैंने उनसे कहा, “बाबा! इन भण्डारों में कुत्तों और बन्दरों को नित्य ही भगाया जाता है। एक दिन इनकी भी दावत होनी चाहिए। बाबा ने तुरन्त मेरा प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और कहा कि जिस दिन यहाँ से उठेंगे, उस दिन उनकी दावत होगी। फिर मैं तो चला आया। परन्तु मैंने सुना था कि वहाँ कुत्तों और बन्दरों की अद्भुत दावत हुई थी। उसमें उन्हें पत्तल परोस कर खिलाया गया था। उसमें न जाने कहाँ-कहाँ से आ कर कुत्ते और बन्दर सम्मलित हो गए थे और उनकी बड़ी भारी भीड़ जमा हो गई थी।“

संग्रह करना बाबा को पसन्द नहीं था

‘श्री उड़िया बाबा के संस्मरण’ (द्वितीय खण्ड, पृष्ठ 93) पर स्वामी विश्व आत्मानन्दजी ने लिखा:

“एक दिन बाबा स्वयं ही बोले, “बेटा! मैं विरक्तों से बहुत प्रसन्न रहता हूँ। परन्तु उस ब्रह्मचारी की तरह विरक्त होने से क्या लाभ? विरक्त हो तो सच्चा ही होना चाहिए। (यह बात बाबा ने एक ब्रह्मचारी की ओर संकेत करके कही थी, जो उनके पास ही रहते थे। उन्होंने चतुर्मास्य के लिए एक घड़ा आटा रख लिया था, जिससे यदि विशेष वर्षा हो, तो भिक्षा के लिए न जाकर स्वयं रोटी बना लें।)”

कुष्ठ रोग के दाग ठीक हो गए

उसी पुस्तक के पृष्ठ 97 पर स्वामी विश्व आत्मानन्दजी जी आगे लिखते हैं:

“मेरे शरीर में आँख, कनपटी, पैर और कमर आदि पर श्वेत कुष्ठ के दाग हो गए थे। उनके लिए बाबा  ने मुझसे कहा कि शिव मन्दिर पर जाकर झाड़ू लगा आया कर, तेरे दाग ठीक हो जाएँगे। मैं पहले तो पाँच-सात दिन झाड़ू लगाने के लिए शिव मन्दिर गया। फिर विचार किया कि बाबा का आश्रम भी तो शिव मन्दिर ही है। तब मैं वहीं झाड़ू लगाने लगा। अब मेरे सब दाग मिट गए हैं।  कोई पहचान भी नहीं सकता कि मेरे शरीर पर श्वेत कुष्ठ के दाग थे। बस मैं भगवत्सेवा करता रहा।“

उसी पुस्तक के पृष्ठ 97 पर स्वामी विश्व आत्मानन्दजी जी ने आगे लिखा:

“एक बार श्री महाराजजी (श्री उड़िया बाबाजी) ने मुझे बुला कर कहा कि तू घर चला जा। मैं बहुत घबड़ाया और चकित  भी हुआ। फिर साहस करके पूछा, “मुझसे क्या अपराध हुआ है?” तब बोले, “तू मोटा बहुत हो गया है, रात-दिन खाता रहता  है।“ मैंने कहा “आपकी जैसी आज्ञा होगी वही करूंगा, आप घर न भेजें।“ बोले, “हम जो कुछ दें वही खाना, दूसरी चीज नहीं।“

“इससे पहले की बात है (अर्थात इसकी पृष्ठभूमि यह है) कि  नवरात्रि में मालपुआ और चनों का प्रसाद बंटा था। एक दिन सबको डेढ़-डेढ़ मालपुआ दिया गया। मैं था कोठारी (अर्थात भण्डारे का प्रबन्धकर्ता)। अपनी परिस्थिति का दुरुपयोग करके पाँच मालपुए खा लिए। दूसरे दिन मुझे ज्वर (अर्थात बुखार) हो गया। तब आपने बुला कर पूछा, “कल क्या खाया था?” मैंने जब सच्ची बात बताई तो बड़े नाराज हुए और बोले, “जब हमने सबको  डेढ़-डेढ़ मालपुआ दिया, तो तूने पाँच क्यों खाए? इसी से तू बीमार हुआ है।

“इसी प्रकार एक बार और मुझे ज्वर हुआ था। तब भी पूछा कि तूने कल कोई नया काम किया था? मैंने बताया कि तेल लगा कर स्नान किया था। इस पर बोले तूने तेल क्यों लगाया? तू तो कभी लगाता नहीं था। जिसे साधु होना है उसे तो तेल लगाना ही नहीं चाहिए। उन दिनों सर्दी के कारण शरीर बहुत रूखा सा रहता था। दूसरों के शरीरों को चिकना चुपड़ा देख कर ही मैंने तेल लगा लिया था।…

“इस प्रकार वह मुझे ही नहीं सभी को संभालते रहते थे। आश्रम के लोग प्राय: काम कम करते थे। वे बाबा के सामने तो खूब दौड़ धूप करते थे, किन्तु उनके हटते ही इधर-उधर हो जाते थे। बाबा उनके इस व्यवहार से असन्तोष प्रकट कर रहे थे। उसी समय किसी ने कहा इन सबको निकाल क्यों नहीं देते? तब बोले, “ईश्वर तो इन्हें अपनी सृष्टि से निकालता नहीं, मैं कैसे निकाल दूँ?

“ऐसी थी उनकी अद्भुत अनुकम्पा।“

सच्चे वैराग्य का स्वरूप क्या है

‘श्री उड़िया बाबा के संस्मरण’ (द्वितीय खण्ड, पृष्ठ 26) पर स्वामी श्रीब्रह्मऋषिदासजी ने लिखा:

हम लोग घर-बार छोड़ कर जो चले आए हैं; क्या यही वैराग्य का स्वरूप है? अथवा कुछ और भी है?

श्री महाराजजी बोले – जन्ममृत्युजराव्याधिदु:खदोषानुदर्शनम् || 13/8 ||

इस अर्घाली (अर्थात आधे श्लोक) की अपरोक्ष अनुभूति जब भगवान बुद्ध की  तरह पग-पग पर होने लगे, तब समझना चाहिए कि सच्चा वैराग्य हुआ। यदि ऐसा न हो तब तो वैराग्य की विडम्बना ही समझनी चाहिए। वह तो वैरागी का केवल औपचारिक ढंग है।

(श्रीमद्भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय का आठवां श्लोक पूरा इस प्रकार है:

इन्द्रियार्थेषु, वैराग्यम्, अनहंकारः, एव, च,

जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्।।13/8।।

अर्थात इन्द्रियों के आनन्दके भोगोंमें आसक्तिका अभाव और अहंकारका भी अभाव जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदिमें दुःख और दोषोंका बार-बार विचार करना।)

बाबा को श्रीबाँकेबिहारी से अगाध प्रेम था

‘श्री उड़िया बाबा के संस्मरण’ (द्वितीय खण्ड, पृष्ठ 136) पर श्री ब्रह्मचारी आनन्दजी ने लिखा:

श्री बाबा को वृन्दावन के प्रधान ठाकुर श्री बाँकेबिहारी जी से अगाध प्रेम था। वे जब कभी वृन्दावन पधारते अथवा वृन्दावन से कहीं बाहर जाते थे, तब श्रीबाँकेबिहारीजी के दर्शन अवश्य करते थे। बाबा के अनेक भक्त तो श्रीबाँकेबिहारीजी और बाबा में अभेद मानते थे।

सवा सेर मक्खन-बड़ा

श्री ब्रह्मचारी आनन्दजी ने आगे पृष्ठ 137-138 पर लिखा कि एक बार बाबा अनूप शहर में थे। श्री ब्रह्मचारी आनन्दजी ने वहाँ के दृश्य की चर्चा इस प्रकार की है:

अनेकों दर्शनार्थियों की भीड़ लगी हुई थी। उसी समय एक भक्त ने मिट्टी के एक बर्तन में सवा सेर मक्खन बड़ा ला कर बाबा के आगे रख दिए। पात्र (वह बर्तन) वस्त्र (एक कपड़े) से ढका हुआ था। सत्संग समाप्ति के पश्चात जब सब लोग धीरे-धीरे जाने लगे, तो बाबा उसमें से प्रत्येक को एक-एक मक्खन बड़ा देने लगे। मुझे भी दिया। मैं उसके बिलकुल समीप बैठा हुआ था। यह सब देख रहा था और अनुभव कर रहा था कि इस समय यदि सारा शहर आ जाए, तो भी बाबा इस छोटे से पात्र से ही सबकी पूर्ति कर देंगे। अन्त में बोले, “अब तो कोई नहीं रहा है?” यह कह कर ऊपर का वस्त्र हटाया, तो उसमें केवल एक मक्खन बड़ा और थोड़ा सा टुकड़ा बचा हुआ था। उसमें से कण मात्र उन्होंने अपने मुख में डाल लिया। वह दृश्य ठीक वैसा ही था जैसा कि युधिष्ठिर को भगवान सूर्य द्वारा  दिए हुए पात्र में से जब तक द्रोपदी स्वयं खा ले वह सबकी तृप्ति कर देता था।

निराकार और साकार उपासना में क्या भेद है

‘श्री उड़िया बाबा के संस्मरण’ (द्वितीय खण्ड, पृष्ठ 140) पर श्री लक्ष्मीनारायण वैद्यजी ने लिखा:

मुझे ‘कल्याण’ पढ़ने का व्यसन था। उसमें श्री महाराजजी के उपदेश प्रकाशित हुआ करते थे। मैं उन्हें बड़े चाव से पढ़ता था। उन्हीं ने मेरे हृदय में आपके लिए (उड़िया बाबा के लिए) श्रद्धा उत्पन्न कर दी।

श्री लक्ष्मीनारायण वैद्यजी ने पृष्ठ 141 पर लिखा:

मैंने कहा – महाराजजी! … इसका क्या कारण है कि कुछ लोग कुछ लोग निराकार की उपासना करते हैं और कुछ साकार की।

महाराजजी बोले – मनुष्य दो प्रकार के होते हैं – हृदय प्रधान और मस्तिष्क प्रधान। जो हृदय प्रधान हैं उनमें श्रद्धा, भक्ति और भाव की प्रधानता होती है, इसलिए वे साकारोपासक होते हैं। और जो मस्तिष्क प्रधान होते हैं, उनमें विचार शक्ति की प्रधानता होती है, अत: वे निर्गुण-निराकार की उपासना करते हैं।

श्री लक्ष्मीनारायण वैद्यजी ने पृष्ठ 142 पर लिखा:

बैठने के लिए आपने सिद्धासन सर्वोत्तम बताया। और रामायण तथा भगवात् का स्वाध्याय करने की अनुमति दी।

सिद्धासन के अभ्यास और द्वादशाक्षर मन्त्र के जपने से मुझे संसार से उपराम (विरक्त) कर दिया।

(द्वादशाक्षर मन्त्र है: ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। इसका अर्थ है: ॐ, मैं भगवान वासुदेव या  भगवान विष्णु को नमन करता हूं। सनातन धर्म में और विशेषत: वैष्णव सम्प्रदाय में यह सबसे महत्वपूर्ण मंत्र है।)

बाबा को भिक्षा में आधी रोटी मिली

‘श्री उड़िया बाबा के संस्मरण’ (द्वितीय खण्ड, पृष्ठ 147) पर श्री व्रजमोहनजी लिखते हैं:

(एक बार बाबा वृन्दावन की ओर जा रहे थे। रास्ते में) श्री महाराजजी माँट पहुंचे। एक घर पर भिक्षा मांगने के लिए ‘नारायण हरि’ किया अर्थात (‘नारायण हरि’ की आवाज की)। उस घर की बुढ़िया भोजन कर रही थी। वह आवाज सुनते ही बोली, “बाबा अभी हाल लाऊं।“ और तुरन्त उठ कर हाथ लहंगा से पोछ आधी रोटी ले आई। महाराजजी ने उस रोटी को बहुत प्रशंसा करते हुए पाया (अर्थात प्राप्त किया) और बोले भैया! बृजवासियों में अब भी बड़ा भाव है (अर्थात श्रद्धा है)।

(श्री उड़िया बाबा के संस्मरण’ (द्वितीय खण्ड, पृष्ठ 22) पर श्री कृष्णानन्दजी महाराज लिखते हैं – “मेरे जैसों के सामने (बाबा) प्राय: कहा करते थे कि जो साधु भिक्षा मांगने में शरमाता  है वह आधा साधु है …”)

श्री व्रजमोहनजी आगे पृष्ठ 148-149 पर लिखते हैं:

इसके पश्चात महाराजजी वृन्दावन पहुंचे और भजनाश्रम में ठहरे। यहाँ भी आप सबसे छिपकर रहते थे और चुपचाप  श्री बाँकेबिहारीजी, श्री राधाबल्लभजी और श्रीआनन्दीबाईजी आदि के मन्दिरों में दर्शन कर आते थे। मैं तो पहली बार वृन्दावन आया था। …

(वह छिपकर इसलिए रहना चाहते थे, क्योंकि जैसे ही उनके आगमन की बात फैलती तो उनके चारों ओर भक्तों की भीड़ लग जाती थी।)

श्री व्रजमोहनजी पृष्ठ 149 पर लिखा:

यहाँ (वृन्दावन में) आपने मुझे एकादशी का व्रत रखवाया और मुझे यज्ञोपवीत धरण करवाया। फिर गौ सहित भगवान् श्रीकृष्ण का एक चित्र खरीदवा कर मुझे दिया और कहा कि इन्हीं का ध्यान किया करो।

प्रारम्भ के चार-पाँच वर्षों में श्री महाराजजी मुझे बड़े आदमियों के यहाँ नहीं खाने देते थे। किसी गरीब के घर भोजन करा देते थे।

(‘श्री उड़िया बाबा के संस्मरण’ (प्रथम खण्ड, पृष्ठ 82) पर श्रीविज्ञानभिक्षुजी ने अपने संस्मरण के अन्त में बाबा के कई उपदेश भी गिनाए हैं। उनमें से एक है:  धनिकों के अन्न से बचो।)

श्री व्रजमोहनजी ने आगे पृष्ठ 149-150 पर लिखा:

जिस दिन मुझे प्रमाद (असावधानी या लापरवाही) होता, तुरन्त रोक देते। मैंने अनुभव किया कि उनसे मेरी किसी भी क्षण की कोई क्रिया छुपी नहीं रह सकती थी।  यह बात उन्होंने मेरे मन में अच्छी तरह बैठा दी थी। मैं जब-जब उनसे मिलता तब-तब वे मेरी प्रत्येक साधना, स्थिति और स्वभाव के विषय में सूक्ष्म बातें खोल कर बतला देते थे। मैं उनमें परचित्तभिज्ञान सिद्धि को स्पष्ट अनुभव करता था। (परचित्तभिज्ञान सिद्धि से अर्थ है दूसरों के मन की बात जान लेने की शक्ति।)

वे सभी सम्प्रदायों के महापुरुषों का आदर करते थे

‘श्री उड़िया बाबा के संस्मरण’ (द्वितीय खण्ड, पृष्ठ 22) पर श्री कृष्णानन्दजी महाराज लिखते हैं:

बाबा को किसी भी सम्प्रदाय विशेष का आग्रह नहीं था। वे सभी सम्प्रदायों के महापुरुषों का आदर करते थे।  एक बार सत्संग में जब श्री हरि बाबाजी भी विद्दमान (मौजूद) थे, मैंने आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्दजी पर कुछ कटाक्ष कर दिया। इस पर बाबा और हरि बाबा दोनों ही मुझ पर अप्रसन्न हुए और बोले, “तुमने  स्वामी दयानन्द को क्या समझ रखा है?” मैं तो चुप रह गया।

(ऐसे ही एक अलग प्रसंग में उड़िया बाबा ने ईसा मसीह की निन्दा करने वाले से भी अप्रसन्न हुए थे।)

बाबा की भविष्यवाणी

‘श्री उड़िया बाबा के संस्मरण’ (प्रथम खण्ड, पृष्ठ 108-109) पर बाबा श्रीदेवकीनन्दनशरणजी (दीनजी) लिखते हैं:

जब से बाबा लखनऊ पधारे थे उस दिन से  मैं नित्य ही उनसे प्रार्थना करता था कि मुझे साधु बना लीजिए, अब मैं आपके साथ ही रहा करूंगा। एक दिन तो जब वह गणेशगंज (लखनऊ का एक मुहल्ला) जाने वाले  थे, मैंने उनके चरण पकड़ कर साधु बना लेने की प्रार्थना की थी। तब वे बोले,”नहीं, तुम साधु नहीं बन सकते। तुम्हें साधु होने का संस्कार नहीं है। अभी तुम्हें आर्थिक चिंता है और सन्तानप्राप्ति भी शेष है, इसलिए अभी तुम साधु नहीं बन सकते।“

मैं – “बाबा! आपकी इन बातों से तो मेरे चित्त में बहुत दु:ख होता है। मैं तो कई वर्षों से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर रहा हूँ। क्या मुझे फिर गार्हस्थ्य जाल में फंसना होगा?”

बाबा – “यह तो होनहार है, टल नहीं सकता।  धैर्य धरण करो। आगे चल कर तुम साधु हो जाओगे।“

मैं – “यदि बीच ही में मर गया तो?”

बाबा – “क्या तुमने शरीर अपने अधीन कर लिया है? यदि मर भी गए तो दूसरा शरीर धरण करके साधु होगे। यदि तुम साधु न हो सको, तो मुझे साधु मत कहना।“

मैं – “तो बाबा! वह सन्तानप्राप्ति वाली बात तो आप किसी तरह मेट दीजिए।“

बाबा – “होनहार अमित होती है। रावण जैसे प्रतापी भी होनहार नहीं मेट सके, तुम्हारी क्या सामर्थ्य है?”

यह कह कर बाबा ने वह इतिहास सुनाया जिस प्रकार रावण की पुत्री का विवाह एक  भंगी के लड़के के साथ हुआ था। इसके पश्चात बाबा से मेरा वियोग हो गया। किन्तु दस-बारह वर्ष के भीतर उनकी भविष्यवाणी सत्य हो गई और उनके कथनानुसार मैं इस जीवन में ही साधु भी हो गया। इससे पता चलता  है कि बाबा को भविष्य का भी ज्ञान हो जाता था। मेरे ऊपर बाबा के अनन्त उपकार हैं।

पाकिस्तान के बारे में बाबा की भविष्यवाणी

‘श्री उड़िया बाबा के संस्मरण’ (प्रथम खण्ड, पृष्ठ 110) पर सेठ श्री जुगलकिशोरजी बिड़ला  लिखते हैं:

मैं वृन्दावन के आश्रम में श्री उड़िया बाबाजी से भी मिलने जाया करता था। … कथा-संकीर्तन की समाप्ति पर कई बार बाबा से देश की परिस्थिति के सम्बन्ध में वार्तालाप होता था। … (द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति पर जब अंग्रेजों की विजय हुई, तो) उस समय भी बाबा ने दृढ़ता पूर्वक वही बात दुहराई कि कुछ भी हो अब भारत में एक वर्ष के भीतर-भीतर अंग्रेज़ी साम्राज्य समाप्त हो  जाएगा … ।

बाबा की वह भविष्यवाणी प्रत्यक्ष चरितार्थ हुई, यद्दपि इसमें पाकिस्तान भी बन गया और वहाँ के करोड़ों हिंदुओं को  भयानक संकटों का सामना करना पड़ा।  सन्त और भक्त होते हुए भी बाबा पाकिस्तान के हिंदुओं की इस घोर विपत्ति से चिन्तित दिखाई देते थे। यह भी कहते थे कि कुछ वर्षों पश्चात् पाकिस्तान को अपने पापों के कारण नष्ट होना पड़ेगा तथा भारत में अवश्यमेव रामराज्य एवं धर्मराज्य स्थापित होगा।

स्त्री स्पर्श के बाद तीन दिन उपवास

‘पावन प्रसंग’ पुस्तक के पृष्ठ 9 पर स्वामी अखण्डानन्दजी लिखते हैं:

उड़िया बाबा ने बालेश्वर में एक गाँव में एक मकान में आग लगी देखी। उस मकान के अन्य लोग तो बाहर आ गए थे, नव वधू भीतर ही रह गई थी। उसके लिए सभी व्याकुल थे और चिल्ला रहे थे पर किसी को भी साहस नहीं हो रहा था कि आग में भीतर घुसकर उसे निकाल लाए। आपने यह करुण स्थिति देखी तो धधकती आग के भीतर घुस गए  और उस वधू को पकड़ कर बाहर खींच लाए। उसकी प्राणरक्षा तो हो गई  पर आपको लगा कि स्त्री का स्पर्श होने से ब्रह्मचर्य-व्रत के अनुकूल कार्य नहीं हुआ। अतः आपने तीन दिन और तीन रात का उपवास कर उसका प्रायश्चित किया ।

श्री उड़िया बाबा के संस्मरण’ (प्रथम खण्ड पृष्ठ 22) में श्रीप्रभुदत्त ब्रह्मचारीजी ने लिखा कि उड़िया बाबा मान-अपमान दोनों में ही उदासीन रहते थे।

इसी लेख में आगे पृष्ठ 29 पर श्रीब्रह्मचारीजी ने लिखा कि बाबा ने मुझसे कहा कि “तुम्हारी लिखने-लिखाने की प्रवत्ति है, तुम पुस्तक लिखो।“ तभी मैंने  ‘चैतन्यचरितावली’ लिखी।

आगे पृष्ठ 43 पर श्रीब्रह्मचारीजी ने लिखा कि भागवती कथा लिखने में भी मुझे उनके द्वारा बहुत स्फूर्ति मिली।

‘श्री श्रीचैतन्य-चरितावली’ ग्रन्थ पाँच खण्डों में है। इसे गीता प्रेस, गोरखपुर ने प्रकाशित किया। इससे पहले श्री चैतन्यदेव की इतनी बड़ी सविस्तार और सचित्र जीवनी हिन्दी में पहले कभी प्रकाशित नहीं हुई थी। श्री भागवत दर्शन (भागवती कथा) ग्रन्थ लगभग 80 खण्डों में है और इसे संकीर्तन भवन, झूंसी, प्रयाग ने प्रकाशित किया। ये दोनों ग्रन्थ श्रीप्रभुदत्त ब्रह्मचारीजी की सर्वश्रेष्ठ पुस्तकों में से हैं।

श्रीप्रभुदत्त ब्रह्मचारीजी ने अपने लेख के पृष्ठ 29-30 पर लिखा कि उड़िया बाबा बड़े-बड़े अपराधों को क्षमा कर देते थे। एक भूले भाई ने उन पर प्रहार किया। उनकी नाक में घाव हो गया। फिर भी उन्होंने  उससे कुछ नहीं कहा। इतना ही नहीं, उसे दूध भी पिलाया और पुलिस तक में नहीं दिया।

उड़िया बाबा धैर्य-पुरुष थे। दूसरों के अपराधों को क्षमा करना भी उनका विशेष गुण था।

(लेखक सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।)