apka akhbarप्रदीप सिंह ।

बिहार विधानसभा चुनाव में पार्टियों के गठबंधन और आपसी संबंध के बारे में इतना कुहासा पहले शायद ही रहा हो। जो साथ हैं वे कनखी से दूसरे साथी पर नजर रखे हुए हैं। जो विरोध में खड़े दिखाई दे रहे हैं वे सचमुच में विरोध में हैं या विरोध में होने का स्वांग कर रहे हैं कहना कठिन है।


 

ऐसा भी कहा जा रहा है कि जो सचमुच विरोध में हैं वे समय आने पर साथ होने को अभी से तैयार हैं। इस समय एक ही बात तय लग रही है कि ये कुहासा नतीजे आने से पहले  छंटने वाला नहीं है। कारण यह है कि सबके दिल में कुछ है और जबान पर कुछ और।

Bihar assembly election

बातचीत का नाटक

वैसे तो विधानसभा चुनाव में स्पष्ट रूप से दो गठबंधन हैं। एक, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन। जिसमें जनता दल (एकी), भारतीय जनता पार्टी, हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) और विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) है। हम और वीआईपी, जनता दल (एकी) और भाजपा की पुछल्ला पार्टियां हैं। दोनों दल चुनाव की घोषणा से पहले तक राष्ट्रीय जनता दल के साथ टिकटों की सौदेबाजी करते हुए नजर आ रहे थे। दोनों के नेता जीतन राम मांझी और मुकेश सहनी का जद एकी और भाजपा से सौदा तय हो गया था। राजद नेता तेजस्वी यादव से उनकी बातचीत का नाटक सिर्फ इसलिए चल रहा था कि धोखा देने का आरोप लगाकर गठबंधन से निकल सकें और वही हुआ। उन्हें जो सीटें मिली हैं उनमें से कितनों पर उनके उम्मीदवार हैं और कितने सहयोगी पार्टी के दिए हुए कहना कठिन है।

राजग में भाजपा और जद एकी ऐसे युगल हैं जिन्हें विवाहेतर संबंधों से परहेज नहीं है। दोनों नफे नुक्सान का आकलन कर रहे हैं कि शादी बनाए रखना अच्छा है कि नये प्रेमी के साथ चले जाना। दरअसल दोनों को पता नहीं है कि शादी से बाहर जाने का अंजाम क्या होगा। इसमें जद एकी की बैचैनी ज्यादा है। दरअसल उसे बराबरी का रिश्ता रास नहीं आ रहा है। जब से संबंध जुड़ा है उसे दबंगई की आदत रही है। दूसरी ओर भाजपा लम्बे समय तक दबे रहने के बाद बराबरी का हक मांग रही है। समय और परिस्थिति अनुकूल होने पर वह अपनी क्षमता के अनुसार अधिकार लेने को तैयार है। हुआ यह है कि दूसरी ओर जो लोग शीर्ष पर हैं उन्हें दबंगों को रोए दिए बिना उनकी असली जगह दिखाने का हुनर आता है। उनका फंडा साफ है, जिसकी जितनी ताकत उसकी उतनी हिस्सेदारी। अब ये लोग मायके चले जाने की धमकी में भी नहीं आते। क्योंकि उन्हें मायके के जन्नत की हकीकत पता है।

गठबंधनों में आपसी संबंध

उधर राजद, कांग्रेस और वामदल चुनाव तो साथ लड़ रहे हैं। पर कांग्रेस और वामदलों की नजर राजद के यादव मुसलिम वोट बैंक पर है। इसलिए यह तात्कालिक सुभीते का सौदा है। चुनाव के बाद भी साथ रहने की गारंटी नहीं है। चुनाव नतीजे आने के बाद अगर कांग्रेस, वामदलों और जनता दल एकी मिलकर एक सौ बाइस सीटों का आंकड़ा पार कर जाते हैं तो इन्हें अपने बड़े सहयोगी दल राजद और भाजपा को छोड़ने में एक पल भी नहीं लगेगा। लेकिन आज की परिस्थिति में यह दूर की कौड़ी लगती है। यह बात सिर्फ इसलिए कही कि इससे पता चलता है कि विभिन्न गठबंधनों में आपसी संबंध कितने ‘मजबूत’ हैं।

उधार का सिंदूर

बिहार विधानसभा के इस चुनाव की बात चिराग पासवान के बिना पूरी नहीं हो सकती। अभी तक किसी को समझ में नहीं आ रहा है कि चिराग पासवान मिसगाइडेड मिसाइल हैं, शिखंडी या फिर बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना की भूमिका में। भाजपा मानती है कि वे बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना बन रहे हैं। राजग से अलग हो गए हैं पर अपने को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का हनुमान बता रहे हैं। लेकिन ‘प्रभु श्रीराम’ ने अभी तक उनकी ओर तिरछी नजर से भी नहीं देखा है। दरअसल चिराग पासवान के पास खोने के लिए कुछ नहीं है। सीटों के बंटवारे में अपने दिवंगत पिता की तरह उन्होंने भी बहुत बड़ा मुंह खोला पर मुंह खुला ही रह गया। उसके बाद उनके पास गंवाने के लिए कुछ नहीं रह गया है।


उन्हें पता है कि पिता के जीवित रहते ही पार्टी का जनाधार भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी के सहयोग से बड़ा नजर आ रहा है। इसलिए वे अपने पिता की विरासत के बूते चुनाव लड़ने की बात नहीं कर रहे हैं। पासवान को पता है कि नीतीश कुमार पंद्रह साल मुख्यमंत्री रहने के बाद अब पहले जैसे लोकप्रिय नहीं हैं। राजग में उनकी दबंगई भी नहीं रह गई है। वे भाजपा, राजद और कांग्रेस सबके साथ रह लिए हैं। उनकी इसी कमजोरी का चिराग फायदा उठाना चाहते हैं। दूसरे उन्हें यह भी पता है कि जो लोग नीतीश कुमार से नाराज हैं वे भी प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर नरम पड़ जाते हैं। तो एक नकारात्मक और एक सकारात्मक कारक को अपने चुनावी लाभ में बदलना चाहते हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि वे नीतीश कुमार को चिढ़ाने और भाजपा को असहज करने के अलावा कुछ ज्यादा कर नहीं पा रहे। चुनाव अपनी ताकत पर लड़े और जीते जाते हैं। चिराग पासवान उधार के सिंदूर से अपनी मांग भरना चाहते हैं।

नीतीश के डर

भाजपा के अभी तक के रवैए से साफ नजर आता है कि वह अपनी ताकत तो बढ़ाना चाहती है लेकिन गठबंधन को खतरे में नहीं डालना चाहती। क्योंकि बिहार विधानसभा चुनाव में वह एकमात्र राष्ट्रीय दल (कांग्रेस अब मल्टी स्टेट पार्टी रह गई है) है। उसकी राजनीतिक सोच का दायरा बिहार तक सीमित होने की बजाय राष्ट्रीय है। पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा का चिराग पासवान के खिलाफ खुलकर बोलना इसी सोच का परिणाम है। पर कहते हैं न कि वहम का इलाज हकीम लुक्मान के पास भी नहीं था। नीतीश कुमार उसी व्याधि से ग्रस्त हैं। उनकी पार्टी को लग रहा है कि चिराग भाजपा के शिखंडी हैं। पर नीतीश कुमार भीष्म पितामह नहीं हैं।

नीतीश कुमार का दूसरा डर वास्तविक है। गठबंधन में भाजपा का स्ट्राइक रेट अपने सहयोगी दल से ज्यादा होता है। साल 2010 के विधानसभा चुनाव में उसका स्ट्राइक रेट नब्बे फीसदी था। इस बार भी उसका स्ट्राइक रेट यही रहा तो पार्टी की सीटों का आंकड़ा सौ के पास पहुंच सकता है। जिसकी संभावना बहुत प्रबल है। दूसरी ओर नीतीश कुमार की पार्टी का स्ट्राइक रेट सत्तर फीसदी के आसपास रहा है। भाजपा के साथ भी और राजद के साथ भी। ऐसे में भाजपा के सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरने की संभावना वास्तविकता के करीब नजर आती है।


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