दर्द का पहाड, पहाड का दर्द-2।
व्योमेश चन्द्र जुगरान।
अभी पिछले दिनों उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने दो दिन के पौड़ी प्रवास के दौरान ऐलान किया कि मंडलीय मुख्यालय के रूप में पौड़ी शहर का पुराना वैभव लौटाया जाएगा। उन्होंने कहा कमिश्नर गढ़वाल के सहित सभी मंडलीय अफसरान रोटेशन के हिसाब से पौड़ी में बैठेंगे।
कॉस्मेटिक ऐलान
मुख्यमंत्री की इस घोषणा को इस तरह से प्रस्तुत किया जा रहा है मानो पौड़ी के भाग जाग गए हों और अब इसके दिन बहुरेंगे। कोई यह पूछने वाला नहीं है कि यदि पौड़ी कमिश्नरी मुख्यालय है तो यहां के मंडलीय कार्यालय देहरादून में क्यों हैं। इन्हें तो मुख्यालय में ही होना चाहिए और फिर रोटेशन का सवाल कहां उठता है। बताया जाता है कि ऐसे 34 विभाग हैं जो पौड़ी मंडलीय मुख्यालय के नाम पर देहरादून में जा बसे हैं। अब मुख्यमंत्री इन्हें रोटेशन (यानी कुछ दिन यहां तो कुछ दिन वहां) के आधार पर देकर सौगात बांटना चाहते हैं। इससे क्या भला होने वाला है, वही जानें। हमारा मानना है कि जब तक कमिश्नर अपने विभागों के साथ एक पूर्णकालिक अधिकार संपन्न सत्ता के रूप में पौड़ी में नहीं बैठते, तब तक इस तरह के कॉस्मेटिक ऐलानों का कोई अर्थ नहीं है।
अविभाजित यूपी के दौर में कमिश्नरी के रूप में पौड़ी के शानदार अतीत की यादें आज भी मन में बसी हैं। जिला अस्पताल जो कि आज पीपीपी मोड में देहरादून के एक प्राइवेट मेडिकल कॉलेज का इंटर्नशिप सेंटर और रैफर केंद्र बनकर रह गया है, कभी एक से बढ़कर एक बेहतरीन डॉक्टरों की मौजूदगी के कारण गढ़वालभर में प्रसिद्ध था। तब अस्पताल ही नहीं, शहर के प्रशासनिक अमले में एक से एक काबिल अफसर हुआ करते थे जो आम नागरिकों की आसान पहुंच में थे और उनकी समस्याओं को तवज्जो देना अपना परम कर्तव्य समझते थे। ऐसा ही एक वाकिया याद आता है जिसे साझा करना चाहता हूं।
तब पौड़ी शहर इतना तंग नहीं था। मकानों व घरों के आसपास खाली जमीन/खेत भी खूब हुआ करते थे। ठंडी तासीर के कारण बरसात इस शहर पर कुछ अधिक ही कृपालु रहती थी। हफ्तों तक निरंतर बारिश और कोहरा। खूब धुला-धुला और हरियाला माहौल। पर, जगह-जगह कच्चे रस्ते-पुश्ते-भीटे बहा ले जाते डरावने मटमैले रौले-बौले (बरसाती नाले) भी।
बरसाती नाले का उत्पात
ऐसे ही एक बरसाती नाले को हमारे मोहल्ले में उत्पात मचाते सालों हो गए थे। ऊपर कंडोलिया से इकट्टा होकर पानी जब बहाव की शक्ल में नीचे को रफ्तार पकड़ता तो कंडोलिया रोड पर बने एक बड़े से पिट में जा घुसता। …और फिर इस पार ठीक हमारे मुहल्ले के ऊपर किसी गुस्सैल झरने की तरह बाहर फूट पड़ता। अब उसका वेग दूना-चौगुना हो जाता। सब अपने-अपने बचाव में लगे रहते और अपने मकानों के ऊपर वाले खाली खेतों में खाइयां खोदकर पानी का रास्ता बदलने का उपक्रम करते। लेकिन एक का बचाव तो दूसरे का खतरा। बस फिर लड़ाईयां और कोहराम। खासकर पांच-छह परिवारों के बीच तो बरसात भर कुट्टी रहती थी।
सबके दस्तखत वाली एक अर्जी कभी डीएम साब को तो कभी नगरपालिका और कभी एक्जीक्यूटिव इंजीनियर को लिखने का समानांतर दस्तूर भी चलता रहता। दरअसल नाले से सबसे अधिक पीडि़त हम ही थे और हमारे खेत का एक हिस्सा इसका स्थायी रास्ता बनकर गधेरे में बदल चुका था। लिहाजा अर्जी की पहल हमारी ओर से ही होती। फिर पिता शिक्षक थे तो कागजी कार्रवाई उन्हें ही आगे कर संपन्न होती।
‘देव’ आया तो ‘रागस’ कैसे ठहर पाता
उस साल नए डीएम साब आए थे। हमेशा की तरह अर्जी बनी और रस्मी तौर पर पहुंचा दी गई। वही सब लिखा था कि पानी के इस खौफनाक बहाव और आवाज से खासकर बच्चे बुरी तरह डर जाते हैं। अंग्रेजी मे शब्द प्रयोग किया गया था- मॉन्सटर यानी राक्षस। एक रोज भारी बारिश हो रही थी। ‘रागस’ अपने रौद्र रूप में उफन रहा था। वाकई डर लगता था कि कहीं सब तहस-नहस न कर दे। अचानक किसी फिल्मी बॉस की तरह सिर से लेकर नीचे तक रेनकोट पहने और छाता ओढ़े छह फुट्टा एक शख्स हमारे चौक में आकर पिताजी को पूछने लगा। उसकी नजर ऊपर उबड़-खाबड़ पाखे से नीचे आ रहे गहरे मटमैले नाले पर थी।
जी हां, वह नए डीएम साहब थे। मुहल्ले में हलचल मच गई। सब लोग इकट्ठा हो गए। अब डीएम साब आगे-आगे और मुहल्ला पीछे-पीछे। रास्ता था नहीं, मोटी बारिश में झाड़-झंकाड़ और उबड़-खाबड़ रस्ते पर हाथपांवों के सहारे डीएम साब चढ़ाई चढ़ते गए और अंतत: कंडोलिया रोड पर बने उस खूंखार पिट तक जाकर ठिठक गए। उन्होंने तसल्ली से मुआयना किया और फिर आश्वासन देकर सब लोगों से विदा ली। एक सप्ताह के भीतर ही नाले का काम-तमाम हो गया। जो काम सालों-साल से नहीं हो सका था, वह चुटकी में हो गया। मुहल्ले में एक ‘देव’ आया था, रागस कैसे ठहर पाता!
आपको दिलचस्पी होगी कि उस ‘देव’ का नाम क्या था। जी हां, वो थे- केरलवासी लंबी छहररी काया और चेहरे पर बेहतर फबती काली दाढ़ी वाले युवा आईएएस टी. जॉर्ज जोसेफ। यूपी कैडर का यह अधिकारी बाद में कई चुनौतीपूर्ण दायित्वों को निभाता भी देखा/सुना गया। सुना है सेवानिवृत्त होकर वह मुबंई में रहते हैं। ईश्वर उन्हें लंबी आयु दे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)