सत्यदेव त्रिपाठी।
रामनवमी के अवसर पर निकलने वाली हिंदुओं की शोभायात्राओँ पर महाराष्ट्र-गुजरात-बंगाल आदि प्रांतों के कई शहरों में और छिटफट अन्य तमाम स्थलों पर जम के पत्थरबाजियाँ हुईं दंगे हुए लोग घायल हुए अस्पताल गये अफ़रातफ़री मची, पुलिस व प्रशासन के काम बढ़े, परेशानियाँ बढ़ीं धन-जन की काफ़ी हानियाँ हुईं। क्यों? आख़िर क्यों?
कथित वजह, जिसे बहाना कह सकते हैं, तो इतनी ही है कि उनकी बस्तियों के रास्तों से होकर न जाएँ हिंदुओं की शोभायात्राएँ…! याने हिंदू-शोभायात्राओं के लिए वे इतने असह्य हैं कि कुछ मिनट में गुजरते भर भी देख-सुन तक नहीं सकते। देख-सुन लेने से शायद उनके इस्लाम पर दाग लग जाते हैं…!! वे इतने पाक हैं कि देख-सुन भर लेने से नापाक हो जाएँगे…।
असल में यह उनके रुतबे की बात है, अपने प्रभुत्व के स्थापन की बात है कि उनके कहने से हिंदू-यात्राएँ रुक जायें, लौट जायें या रास्ता बदल लें…।
ठीक इसी प्रकृति की जीती-जागती मिसाल मैं देता हूँ कि ऐसे में हिंदू क्या करता था…
मेरे गाँव (सम्मौपुर, आज़मगढ़) में एक ही घर मुसलमान थे, वे हमारे हुसेनी चाचा होते थे (अब दो घर में १२ चूल्हों वाले हो गये हैं)। हमारे गाँव से आधा किमी पूरब वाले गाँव (मैनपुर) में तीन घर मुसलमान थे (अब आठ घर होंगे)। इतने कम होने के कारण ही मुहर्रम के दिन मैनपुर वाले ताजिया दोपहर को हमारे गाँव आते थे और तब उनके स्वागत में यहाँ के ताजिया (हमारे दाहा मियाँ) को चबूतरे से नीचे रख दिया जाता। उस वाले दाहा मियाँ को चबूतरे पर आसीन कर देते थे…। और स्वागत का यह आचार हमें आज भी बड़ा सही व सुसंस्कृत लगता है। दोनो तरफ़ से खूब ढोलक बजती थी और बता दूँ कि अकेले हसेनी चाचा क्या ढोलक बजाते, उनकी दो ढोलें तो गाँव के हिंदू ही बजाते थे – मेरे होश में फ़ौजदार और झिनकू (चाचा भतीजे) बजाते थे। उस पर ताल देने वाला तासा रामदुलार भैया बजाते, जो मुहर्रम के पहले के नौ-दस दिनों शामों को हम भी गले में टांग के बजाते…। इस प्रकार इस दाहा मियाँ-उत्सव में मुझे अपने नवरात्र के ढोलक-झाल के साथ होते कीर्त्तनों की याद आती…। सब बड़ा प्रीतिकर कर लगता…। ताजिया निकालते भले हुसेनी चाचा, लेकिन दाहा मियाँ होते थे पूरे गाँव के।
लेकिन यह बताने के लिए यहाँ इस प्रसंग को नहीं उठाया है…। बताने वाली बात यह है कि मैनपुर से आते हुए दो फ़िट की पगडंडी के रास्ते के दोनो ओर हम हिंदुओं के खेत होते और दाहा मियाँ की शोभा-यात्रा तो उनके आकार की चौड़ाई के मुताबिक़ दस फ़िट की जगह लेती। दूसरा रास्ता था, पर चूँकि इनके त्योहार चंद्रमा की चलायमानता के अनुसार बदलते रहते हैं, तो मेरा कयास है कि शुरू होते हुए गर्मी वग़ैरह के दिन होने से खेत ख़ाली रहे होंगे, जिससे इसी सीधे रास्ते से आये होंगे और तब से हमेशा इसी रास्ते से आने लगे, क्योंकि इस्लाम के अनुसार ‘ताजिया अपना रास्ता बदलते नहीं’ का नियम बता दिया गया था। तो फिर खेत के उतने हिस्से में जो भी फसल होती, उसे रौंदते हुए आते ताजिया और कोई हिंदू चूँ तक न करता, बल्कि उनकी धार्मिकता के समक्ष अपने नुक़सान तो सहता ही, श्रद्धा से सर भी नवाता।
खेद है कि कालांतर में उनके पीरों ने बताया कि जिस मूल से उपजे थे हसेनी चाचा, उसमें ताजिया नहीं निकाला जाता। लिहाज़ा उनके पोतों ने आजकल बंद कर दिया है, वरना आज तक निकालते…या फिर हमारी रामनवमी की शोभा-यात्राओं की दुर्गतियों को देखने के बाद वे भी दंगे-फ़साद के कारण बन जाते…कौन कहे? बहरहाल,
आज की इन शोभायात्राओं में ऐसे नुक़सान भी नहीं, न शरीक होने की कोई मंशा है, फिर भी सिर्फ़ गुज़र जाने के लिए यह हाय-तोबा…!!
अब दंगा कराने वाले मुसलमान हैं और योजनबद्ध ढंगे से कराते हैं…यह सब कुछ इतना साफ़ है, लेकिन लिखित या सामूहिक तौर पर खुल के कहने में आज भी संकोच किया जाता है…!! क्यों? क्योंकि हिंदू उदार है, सहिष्णु है…? और उसकी उदारता-सहिष्णुता का ऐसा ढोल पीटा गया है कि दुष्यंत कुमार के शब्दों में ‘मसीहा बना दिया तुमने, अब तो शिकायत भी की नहीं जाती’!! और इसीलिए ‘ज़िंदगी है कि जी नहीं जाती’ की स्थिति भी बन गयी है।
लेकिन अब तो खुल के हिम्मत से कहना होगा कि यह नितांत अन्यायी-अत्याचारी-अमानवीय काम मुसलमान और सिर्फ़ मुसलमान कर रहे हैं…!! लेकिन ऐसा कहने वाले हिंदू को हिंदुस्तान में साम्प्रदायिक कहा जाता रहा है और पत्थर मारने वाले इन मुसलमानों को प्रगतिशील। लेकिन इस गढ़े हुए, प्रचारित झूठ को अब ख़त्म करना होगा…। इसलिए नहीं कि ऐसा कहने का वक्त अब आया है, बल्कि इसलिए कि न कहने और सहने का वक्त भी कब का ख़त्म हो चुका है। सही है कि कुछ पक्के हिंदू हमेशा कह रहे थे…अब कुछ कच्चे भी कहने लगे हैं, लेकिन अपदस्थ सरकारों के लोग उनके लाभार्थी अभी तक वही राग अलाप रहे हैं। लाभार्थियों में तथाकथित प्रगतिशील लोग भी हैं, जो असल में राष्ट्र-द्रोही हैं। लेकिन ये लोग भी कुल मिलाकर बमुश्किल १०% ही हैं। सो, इन लोगों को छोड़ भी दें, तो बाक़ी सभी को कहना होगा अब…और खुल्लमखुल्ला कहना होगा, डट के कहना होगा…तब तक कहते रहना होगा, जब तक ऐसी वारदातें बंद नहीं हो जातीं…। जब तक वे बात की असलियत को समझ नहीं जाते…।
सब जानते हैं कि कहने का प्रतिरोध होगा – वह हिंसक भी होगा, जो कि हो ही रहा है…। पत्थर फेंकना, आग लगाना हिंसा नहीं तो क्या है? तो अब उस प्रतिरोध का जवाब उसी भाषा में जवाब देना होगा…। हमारी पुरानी कहावत ‘यस्मिन यथा वर्तते यो मनुष्य:, तस्मिन तथा वर्तितव्यो स धर्म: – अर्थात् जो आपके साथ जैसा व्यवहार करे, उसके साथ वैसा ही व्यवहार करो, यही धर्म है। और अब इसी धर्म पर चलना है…
अब ८०% को २०% लोग पत्थर मारे जा रहे हैं और वह ७५ साल से चुप है…। उधर आज़ाद भारत में ६७ साल तक की सरकारों ने उन्हें शह दी, हर तरह की सुविधाएँ दीं – वोट के लिए। और अपनी इच्छानुसार अधिकाधिक सुविधाएं व अधिकार पाके मनमानी करना उनकी आदत हो गयी। इधर पिछले नौ सालों से वे खुली व बेज़ा सुविधाएँ बंद होने लगी हैं, तो वे बिलबिलाने लगे हैं…। हिंदू त्योहारों पर ये हिंसाएँ इसी का नतीजा हैं। ये पथराव-दंगों वाले हिंसक कृत्यों के दमन करने का वक्त आ गया है…। क्योंकि हिंदुओं ने अपनी इसी उदार-सहिष्णु वृत्ति के चलते सैकड़ों साल पहले तो अपने घर (देश) में किसी आये हुए का सम्मान किया, फिर इसे सहा…और उसी का नतीजा इतना भयंकर हुआ कि वे धीरे-धीरे सत्तासीन हो गये और हमें सैकड़ों साल तक गुलाम बनकर उनके सारे अतिचारों को सहना पड़ा…। फिर भी हिंदू समुदाय याने भारतीय जनता ने कोई सबक नहीं लिया।
आज़ादी के बाद जब पाकिस्तान बना, जब मुसलमान लीडरान -ख़ासकर मुहम्मद अली जिन्ना- द्वारा खुलकर कह दिया गया कि हम हिंदुओं के साथ नहीं रह सकते, …तब तो इस समस्या से सदा के लिए निजात पायी जा सकती थी…लेकिन तब अपनी उदारता-सहिष्णुता को साधने का प्रयोग किया गया, जो आज सिद्ध हो गया है कि ऐसा करने वाले शीर्ष व्यक्तित्व महात्मा गांधी के शब्दों में ही कहें, तो वह ‘पहाड़ जैसी भूल’ थी।
लेकिन अब हज़ारों साल बाद हिंदुओं को अपनी वह छबि बनानी होगी कि ‘शराफ़त छोड़ दी हमने’। मुझे ‘चक दे इंडिया’ (क्या ‘चक दे भारत’ नहीं हो सकता था, लेकिन हाय रे अंग्रेज़ी की ग़ुलामी!!) का वह दृश्य याद आता है, जब जर्मन खिलाड़ी भारतीय खिलाड़ियों के पैरों में हॉकी से मार-मार के लहूलुहान करने की क़ीमत पर बढ़त ले रहे थे, लेकिन मध्यांतर के दौरान कप्तान बने शाहरुख खान ने मारने की छूट दे दी – वे एक मारें तो तुम चार मारो, वे दो मारें, तो तुम आठ मारो’। और मेरी समझ से हमारे देश में वही वक़त अब आ गया है…।
आज सबको पता है कि उदारता व सहिष्णुता के वे प्रयोग फेल हो चुके हैं…उनकी सचाइयाँ शव बन चुकी है, लेकिन उसकी लाश को हम अपने सहने व लोगों के सराहे जाने वाली सहिष्णुता, जो फेल हो चुकी है, के पुराने डंडों से पीटे जा रहे हैं…।
और उदाहरण सामने है – उत्तरप्रदेश में कोई दंगा नहीं हुआ। मुख्यमंत्री योगीजी आराम से नवरात्र की पूजा करते रहे और प्रदेश में पूर्णत: अमन-चैन बना रहा…। उन्होंने सिर्फ़ कड़क तेवर दिखाये…और सब शांत चलने लगा…।
जिस देश में लगभग ८०% हिंदू रहते हों और मुग़ल-काल जैसा मुस्लिम शासन न हो, जनतंत्र हो, उसमें बहुसंख्यक समुदाय के ख़िलाफ़ ऐसी बदगुमानी क्यों चला ली जाये…???
(लेखक साहित्य, कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)