सत्यदेव त्रिपाठी ।
हमारे यहाँ गाँव में घर बन रहा था। कारीगर-मज़दूर मिलाके दस-बारह लोग काम पे लगे थे। काम करते-करते बात होती रहती और गारा देते छट्ठू हरिजन, जिनका बड़ा बेटा दस दिनों पहले ही बीवी व तीन बच्चों को छोड़कर चल बसा था, बड़े गढ़ू मन से मिरतू मिस्त्री से कह रहे थे– भइया, अब तो बहू और तीन बच्चों की जिम्मेदारी भी सर पे आ गयी।
सुनते ही मेरे मुँह से सहसा निकल गया– ‘लेकिन उसकी स्त्री तो रहेगी नहीं, चली जायेगी शादी करके किसी के साथ। शायद बच्चे भी चले जायें’। मेरी बात सुनकर सभी अवाक्– अभी कल ही बेटा मरा, आज मैं (पढ़ा-लिखा बुज़ुर्ग आदमी) ऐसा कह दे रहा। थोड़े अंतराल के बाद एक ने कह – अब बाबा, ये तो आने वाला समय बतायेगा। लेकिन मैंने ज़ोर दिया– समय बतायेगा! अरे वो तो रोज़-रोज़ बता रहा है… आप लोग बताइए। है कोई औरत हमारे बहुजन समाज में पचास-पंचावन साल उम्र तक की, जो पति के मरने या पति द्वारा छोड़ दिये जाने के बाद विधवा या ‘छूटी हुई’ होकर रह रही हो? आपने झिनकू भइया (राजभर) की पत्नी को तो देखा है, जो उनके टीबी से मर जाने के बाद आज से चालीस साल पहले दस-बारह बच्चों की माँ होने के बावजूद अपने समधी के साथ चली गयी थी।
अभिनव प्रेम-विवाह
अपने मुहल्ले का ही यह असम्भव-सा उदाहरण सुनकर मिरतू मिस्त्री मुस्कराये भी और शरमाये भी। इसे देखकर मुझे सहसा याद आया– अरे, मिरतू ने तो अपनी पत्नी के मरने के बाद ख़ुद ही तीन बच्चों की माँ से शादी की है। इसे मैंने तभी अभिनव प्रेम-विवाह कहा था, जिसे घर-बिरादरी ने सहर्ष मानकर करा दिया। व्यक्ति-स्वातंत्र्य का यह भी एक अद्भुत रूप है कि बहुजन समाज में आदमी जिस भी औरत को पसन्द कर लेता है, पूरा समाज बिना किसी मीन-मेख के उसे मान लेता है। तथाकथित प्रगत सवर्णों की तरह बिरादरी बाहर करना या बोलचाल बन्द करके उसे अनंत मनस्ताप में ढकेल देने का चलन वहाँ कतई नहीं.. और न ही उसमें किसी की आर्थिक-सामाजिक स्थिति बीच में आती। ऐसे ही मिरतू अब पहली पत्नी के अपने तीन और दूसरी पत्नी के पहले वाले पति से हुए तीन बच्चों के साथ मज़े से रह रहे हैं। सुना है कि इस पत्नी से भी दो बच्चे हुए हैं– कुल आठ। लेकिन इस संख्या पर नहीं जाना अभी, क्योंकि बात संस्कृति की है, बढ़ती आबादी की नहीं। संस्कृति की नज़ाकत यह कि जिन्हें हम पिछड़ा और निम्न वर्ग का कहते हैं, उसी श्रेणी के मिरतू के साथ उनकी औरत के साथ वहाँ से आया बेटा हमारे यहाँ काम कर रहा है। दोनो के सलीके को देखते हुए कौन कहेगा कि यह इनका बेटा नहीं? इस मुक़ाम पर अशोक कुमार व पर्ल पद्मसी तथा राकेश रोशन व बिंदिया गोस्वामी अभिनीत फिल्म “खट्टा-मीठा’ मुझे बेतरह याद आ रही, जिसमें दोनो के मिलाकर सात बच्चे थे और शुरुआती झगडे-धमाल के बाद क्या ख़ूब रहे थे। मिरतू-परिवार जैसी समरसता आज कहाँ मिलेगी? अपने देश में ही नहीं, विदेशों में भी नहीं मिलेगी, जहाँ मरने के बाद तो क्या, जीतेजी तलाक़ और पुनर्विवाह का खुला चलन है।
तलाक़ और पुनर्विवाह
मेरे मन में इस विषयक संस्कृति की यादों के घोड़े सरपट दौड़ने लगे। पिछली सदी के आठवें दशक के उत्तरार्ध में जिन दिनों मैं मुम्बई में बी.ए.-एम.ए. कर रहा था, अपनी पसन्द से शादी यानी प्रेम-विवाह की आवश्यकता और वैधता को लेकर चर्चा ज़ोरों पर थी। प्रेम-विवाह तो पारम्परिक आग्रहों व माँ-पिता के भावनात्मक दोहनों के अलावा निर्विवाद रूप से वैचारिक मान्यता के साथ नयी पीढ़ी द्वारा थोड़ी-मोड़ी पहल भी पा रहा था, जो अब सुदूर गाँवों तक में रवाज़ न सही, आचार रूप में स्वीकृति भी पा चुका है। लेकिन तलाक़ और पुनर्विवाह को लेकर पहलकदमी तो क्या, वैचारिक स्तर पर भी अडचनें बहुत थीं, जिनमें सात जन्मों के तथाकथित सम्बन्ध तो ख़ारिज़ हो रहे थे, पर संस्कारशील मन फिर भी मानने को तैयार न हो रहे थे– औरतें तो एकदम नहीं और यह बहुत पढ़ी-लिखी तमाम औरतों की दुखती रग आज भी है। सबसे बड़ी और नितांत व्यावहारिक अड़चन बच्चों को लेकर थी कि माँ-बाप के अलग हो जाने पर उनका क्या होगा?
असली माँ और नये पिता
इसी को लेकर मन्नू भण्डारी ने उसी दौर में एक श्रेष्ठ उपन्यास लिखा था– ‘आपका बण्टी’। उसमें असली माँ और नये पिता तथा असली पिता और नयी माँ के साथ बच्चे बण्टी के रहने के दोनो रूपों के शुभ-अशुभ पक्षों पर भारतीय संवेदनशीलता की जानिब से एक मुक़म्मल विमर्श दरपेश हुआ था। विदेशों के एकाधिक तलाक़ व पुनर्पुनर्विवाह में जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता का तत्त्व है, वह उन दिनों मन को बहुत लुभा रहा था– आज तो अपने पीछे चलाने लगा है। तब भी वह सोच को काफी हद तक सहमत कर रहा था, आज तो कर चुका है। वहाँ की व्यवस्था के मुताबिक बच्चे को पुराने (असली) माता-पिता भी खर्च देते हैं और नये वाले भी। दोनो मिलाकर दुगुना-तिगुना खर्च पाने वाले बच्चों का अपने दोस्तों के सामने इतराना– इतना पैसा मेरे एक्स फादर/मदर और इतना एक्स-एक्स फादर/मदर ने भेजा है। ये कहानियां और समाचार हमें आज भी सुनने-पढ़ने को मिलते हैं। लेकिन मन्नूजी ने तभी इस वृत्ति को भारतीय संवेदनशीलता की जानिब से अपाच्य ठहराया था, जो आज भी सुपाच्य तो नहीं हो पा रही है, पर अपवाद स्वरूप कहीं-कहीं खायी अवश्य जा रही है। इसमें बच्चों को अलग-थलग करके पैसे देकर फर्ज़ निभा देने के संतोष व शान की वृत्ति भारतीय संस्कारशीलता के नितांत विरुद्ध है, मानवीयता की समाधि पर खड़ी है।
आदर्श मानवता का मानक
इन सबके बरक्स उक्त फिल्म ‘ख़ट्टा-मीठा’ का विकल्प आदर्श मानवता का मानक रचता है और मिरतू का उसे साकार कर देना कला के सपने को पूरा कर देने और आदर्श को वास्तविकता की ज़मीन पर उतार देने जैसा है। इसमें मिरतू न अकेले हैं, न नये व अनोखे। यह उस बहुजन वर्ग की एक मुकम्मल संस्कृति है, जिसका एक रूप यह भी है कि माँ के साथ बच्चे चले जाते थे। बेटियों की तो शादी कर दी जाती थी, जिसमें वास्तविक पिता भी ऐच्छिक रूप से मदद करता रहा है, पर बेटे बड़े होकर अपने असली बाप के पास आ जाते और पैत्तृक सम्पत्ति में हक़ पाते। इन्हें ‘तरायन’ कहा जाता था, जिसके उदाहरण आज भी जिन्दा हैं। मेरे गाँव के इसी समाज का शंकर है, जिसके बड़े भाई मरे और भाभी ने शादी की, तो बेटी को लेकर गयी। लेकिन जब बेटी बड़ी हुई, तो शंकर उठा लाया है। यह कितना मानवीय है, परंतु कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस पूरी व्यवस्था (सिस्टम) को सवर्ण समाज का तथाकथित शिष्ट वर्ग हिक़ारत से देखता है। लेकिन अग्रणी वर्ग के इस गर्हित रवैये के बावजूद बहुजन समाज के बीच यह प्रथा एक समानांतर संस्कृति के रूप में विकसित व फलित हुई है। इसके समक्ष गौर करें, तो उस पीढ़ी के सवर्ण समाज ने विधवाओं की एक फौज खड़ी कर दी है, जो पुनर्विवाह की वर्जना व इसमें छिपी सामंतवादी पुरुष वृत्ति का ख़ामियाज़ा आज भी भुगत रही है।
मानवीयता का तिरस्कार करता शिष्ट समाज
इस प्रकार सौ दुख झेलते हुए सहज व मुक्त भाव से बनी बहुजन समाज की यह संस्कृति अपनी मुख्य धारा के शिष्ट समाज एवं स्वच्छन्द भौतिकवादी पश्चिमी समाज के मुकाबले कहीं अधिक प्रगतिशील एवं समरस भाव से मानवीय है। और हमारा प्रगत सुखासीन समाज अपनी अनुदार वर्जना में कहीं ज्यादा निन्दनीय है, जो अपने परिवार को त्याग देता है तथा इस समाज की मानवीयता का तिरस्कार करता है। महादेवीजी मानो बहुजन की तरफ से ही इस अभिजात समाज से पूछती हैं- मेरी लघुता पर आती, जिस दिव्य लोक को व्रीडा (शर्म)/ उनके प्राणों से पूछो, क्या पाल सकेंगे पीड़ा?
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