प्रदीप सिंह ।
कर्नाटक विधानसभा चुनाव अभियान ने कांग्रेस के विकृत सोच को फिर से उजागर किया है। एक राष्ट्रीय पार्टी को यदि बजरंग दल और पापुलर फ्रंट आफ इंडिया यानी पीएफआइ में अंतर न समझ आए तो मान लेना चाहिए कि पार्टी का डीएनए बदल गया है। बजरंग दल एक सामाजिक-राजनीतिक संगठन है और पीएफआइ एक आतंकवादी संगठन, जो प्रतिबंधित है। बजरंग दल की विचारधारा से असहमति तो समझ में आ सकती है, लेकिन उसे पीएएफआइ की श्रेणी में रखना समझ से परे है। यह वही कर सकते हैं जिन्हें राष्ट्रवाद और राष्ट्रविरोध में कोई अंतर न नजर आता हो।
दिशाभ्रम
कांग्रेस एक ऐसी पार्टी बन गई है जिसके पांव के नीचे जमीन नहीं है। वह हवा में तैरती हुई पार्टी है। इसलिए दिशाभ्रम की शिकार है। वह हिंदुत्व के खिलाफ है, मगर हिंदुत्ववादी दिखने का स्वांग भी करती है। वह मुसलमानों का वोट चाहती है, पर उनके लिए कुछ करना नहीं चाहती। इसलिए एक तरफ कांग्रेस से हिंदुओं का भरोसा लगातार उठता जा रहा है। दूसरी ओर मुसलमान पसंद से नहीं, बल्कि मजबूरी में कांग्रेस के साथ हैं। इसलिए जहां कांग्रेस के अलावा किसी और पार्टी का विकल्प मिलता है तो उधर चले जाते हैं। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का अब कोई कोर वोटर नहीं रह गया है। एक समय दलित, ब्राह्मण और मुसलमान उसका कोर वोट हुआ करता था। वह कोर वोट मंडल, कमंडल और दलित राजनीतिक चेतना की भेट चढ़ गया।
राजनीति में पार्टियों-नेताओं को दुश्मन (प्रतिद्वंद्वी शब्द बेमानी हो गया है) की जरूरत होती है, जिसके खिलाफ विमर्श खड़ा करके खुद को बेहतर बता सकें। विपक्षी दल आजादी के बाद से इसी नीति के तहत गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति करते रहे। कोशिश करते-करते वे कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने में सफल हुए। अब कांग्रेस की जगह राजनीति की धुरी भाजपा बन गई। कांग्रेसवाद की राजनीति ने अब गैर-भाजपावाद का रूप धारण कर लिया है। विचित्र सी बात है कि जो कल तक गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति कर रहे थे, वही अब गैर-भाजपावाद की भी राजनीति कर रहे हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा कि इस राजनीति में उस कांग्रेस को शामिल करें या न करें, जिससे दशकों तक लड़े।
राजनीतिक दुश्मन के विरोध से देश के विरोध तक
कांग्रेस को भी समझ में नहीं आ रहा कि जिनकी वजह से उसकी राजनीतिक दुर्दशा हुई क्या अब उन्हीं की बैसाखी के सहारे चले। राजनीतिक दुश्मन का विरोध करने के उतावलेपन में कांग्रेस देश के विरोध में चल पड़ी है। जेएनयू में नारा लगता है ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे…. इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह।’ राहुल गांधी वहां मौजूद रहकर ऐसे तत्वों का समर्थन करते हैं। देश के कांग्रेसियों को स्वयं से एक सवाल पूछना चाहिए कि क्या जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी कभी ऐसा कर सकते थे? देश और कांग्रेस का तो छोड़िए, राहुल गांधी को अपने परिवार की वैचारिक विरासत का भी पता नहीं है।
आजादी के बाद कांग्रेस के ज्यादातर नेताओं के साथ ही तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू एक सशक्त केंद्र के समर्थक थे, क्योंकि उन सबका विश्वास था कि मजबूत केंद्र ही देश की एकता और अखंडता की रक्षा कर सकता है। उसी नेहरू-गांधी परिवार के वारिस राहुल गांधी केंद्र को कमजोर करने के लिए कहते हैं कि ‘भारत राज्यों का एक संघ है।’ वह देश के प्रधानमंत्री को मनचाही गाली देते हैं और विदेश में जाकर कहते हैं कि भारत में जनतंत्र का खात्मा हो गया है। वह संसद में नहीं जाते और कहते हैं सदन में उन्हें बोलने नहीं दिया जाता। वह ऐसे मुद्दे उठाते हैं जिस पर अपनी ही पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को सहमत नहीं कर पाते, लेकिन चाहते हैं कि पूरा देश उनकी बात के समर्थन में खड़ा हो जाए।
नाक पर मक्खी तक हटाने में अक्षम शाही परिवार
गांधी परिवार की वोट दिलाने की क्षमता तो पहले ही जा चुकी है, पर अब पार्टी के अंदरूनी विवाद सुलझाने की शक्ति भी नहीं बची। पार्टी का झगड़ा सड़क पर तय हो रहा है। कर्नाटक में सिद्धरमैया और डीके शिवकुमार के ही खेमे नहीं हैं। केंद्रीय स्तर पर इन्हें समर्थन देने वालों के भी खेमे हैं। कांग्रेस के भीतर जो खेमे हैं उनका ही गठबंधन नहीं हो पा रहा है। ऐसी पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी दलों का गठबंधन कैसे बनाएगी।
कांग्रेस भले ही विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी हो, मगर उसे बड़ी मानने के लिए बाकी विपक्षी दल तैयार नहीं दिखते। कायदे से विपक्षी एकता की सूत्रधार कांग्रेस होनी चाहिए। जबकि हाल यह है कि कभी ममता बनर्जी, कभी शरद पवार, कभी चंद्रशेखर राव तो कभी नीतीश कुमार इस भूमिका में नजर आते हैं। कांग्रेस में राहुल सबसे बड़े नेता हैं, मगर सीताराम येचुरी और तेजस्वी यादव को छोड़कर विपक्ष के किसी नेता से शायद उनका संवाद नहीं है।
नादानी या मक्कारी…
इन समस्याओं के बीच करीब चार साल बाद चुनाव प्रचार के लिए निकलीं सोनिया गांधी के हवाले से कांग्रेस के आधिकारिक ट्विटर हैंडल से ट्वीट किया जाता है कि, ‘सोनिया गांधी का कर्नाटक की साढ़े छह करोड़ जनता को संदेश है कि कांग्रेस किसी को कर्नाटक के सम्मान, संप्रभुता या अखंडता से समझौता नहीं करने देगी।’ ऐसा ट्वीट करने वाले को शायद यह भी नहीं पता कि संप्रभुता राष्ट्र की होती है, किसी राष्ट्र के राज्य की नहीं। कांग्रेस की दृष्टि में कर्नाटक कब संप्रभु राष्ट्र बन गया। कर्नाटक की संप्रभुता का मुद्दा या बजरंग दल की एक आतंकी संगठन से तुलना करने के बाद कांग्रेस ने खेद भी नहीं जताया।
The word ‘sovereignty’ was never used by Smt Sonia Gandhi Ji in her speech dated May 6, 2023 at Hubballi, Karnataka.
Since this has been erroneously reported – it is being deleted.https://t.co/NcvwPmt2o9 pic.twitter.com/hFu8xe7t2p
— Congress (@INCIndia) May 10, 2023
यदि पार्टी को लगता है कि लोग इन बातों को समझते नहीं तो वह भारी मुगालते में है। प्रश्न इस बात का है कि आखिर कांग्रेस क्यों उन बातों और मुद्दों के साथ खड़ी नजर आती है जो भारत विरोधी हों। मामला पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक का हो या चीन के साथ सीमा पर झड़प का, कांग्रेस देश के दुश्मनों की बात सुनने और मानने के लिए क्यों तत्पर नजर आती है?
हिंदू धर्म से चिढ़
दरअसल, कांग्रेस के नीति निर्धारक तंत्र में ऐसे तत्वों का बोलबाला हो गया है जो भारतीय संस्कृति पर शर्मिंदा हैं और हिंदू धर्म से चिढ़ते हैं। वे देश को भारतीय संस्कृति और हिंदू धर्म से बचाना चाहते हैं। इससे भी बुरी बात यह है कि गांधी परिवार बड़ी मजबूती से ऐसे लोगों के साथ खड़ा है। या यूं कहें कि ये लोग वही नीतियां बना रहे हैं, जो गांधी परिवार चाहता है, क्योंकि यह प्रवृत्ति कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही है। यह कांग्रेस को कहां ले जाएगी, इसकी कल्पना करना कठिन नहीं है।
(आलेख ‘दैनिक जागरण’ से साभार। लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ न्यूज पोर्टल एवं यूट्यूब चैनल के संपादक हैं)