खुशवंत सिंह ।

ओशो के प्रवचनों ने मुझे विस्मय विमुग्ध किया है। एक तो उनका हिंदी बोलने का लहजा मुझे अच्छा लगा। दूसरे जब आप उनकी वाणी सुनते हैं तो आपका मन यहां वहां भटकता नहीं है। वे आपको बांधकर रखते हैं।


 

मैंने भी जपुजी का अंग्रेजी अनुवाद किया है लेकिन मैंने देखा कि ओशो नानक के हर सूत्र की कितने विभिन्न पहलुओं से व्याख्या करते हैं। उनके प्रवचन सुनकर मुझे लगा कि मैं जपुजी के बारे में कितना कम जानता था। और हम लोग सारी जिंदगी जपुजी का पाठ करते रहते हैं। सबसे कीमती बात जो मुझे ओशो की लगी वह यह कि वे हर श्लोक को, उपनिषद को, सूफी कहानियों को न जाने कितने किस्म की पृष्ठभूमि देकर प्रस्तुत करते हैं।

मैंने तो सिर्फ शब्दश: अनुवाद किया हुआ था। ओशो ने जपुजी को इतना नया संदर्भ दे दिया कि उसे एक नया अर्थ प्राप्त हुआ है। और मेरा अपने ही गुरु के प्रति आदर कई गुना बढ़ गया। अब तक मैं नानक को अर्द्ध शिक्षित संत कहता था। लेकिन ओशो की व्याख्या सुनने के बाद मुझे महसूस हुआ कि गुरु नानक तो प्रतिभाशाली कवि थे और उनके शब्दों में गहरे विचार छिपे हुए थे।


 

इक ओंकार सतिनाम

ओशो ।

एक अंधेरी रात। भादों की अमावस। बादलों की गड़गड़ाहट। बीच-बीच में बिजली का चमकना। वर्षा के झोंके। गांव पूरा सोया हुआ। बस, नानक के गीत की गूंज।


 

रात देर तक वे गाते रहे। नानक की मां डरी। आधी रात से ज्यादा बीत गई। कोई तीन बजने को हुए। नानक के कमरे का दीया जलता है। बीच-बीच में गीत की आवाज आती है। नानक के द्वार पर नानक की मां ने दस्तक दी और कहा, बेटे! अब सो भी जाओ। रात करीब-करीब जाने को हो गई।

नानक चुप हुए। और तभी रात के अंधेरे में एक पपीहे ने जोर से कहा, पियू-पियू।

नानक ने कहा, सुनो मां! अभी पपीहा भी चुप नहीं हुआ। अपने प्यारे की पुकार कर रहा है, तो मैं कैसे चुप हो जाऊं? इस पपीहे से मेरी होड़ लगी है। जब तक यह गाता रहेगा, पुकारता रहेगा, मैं भी पुकारता रहूंगा। और इसका प्यारा तो बहुत पास है, मेरा प्यारा बहुत दूर है। जन्मों-जन्मों गाता रहूं तो ही उस तक पहुंच सकूंगा। रात और दिन का हिसाब नहीं रखा जा सकता है। नानक ने फिर गाना शुरू कर दिया।

नानक ने परमात्मा को गा-गा कर पाया। गीतों से पटा है मार्ग नानक का। इसलिए नानक की खोज बड़ी भिन्न है। पहली बात समझ लेनी जरूरी है कि नानक ने योग नहीं किया, तप नहीं किया, ध्यान नहीं किया। नानक ने सिर्फ गाया। और गा कर ही पा लिया। लेकिन गाया उन्होंने इतने पूरे प्राण से कि गीत ही ध्यान हो गया, गीत ही योग बन गया, गीत ही तप हो गया।

जब भी कोई समग्र प्राण से किसी भी कृत्य को करता है, वही कृत्य मार्ग बन जाता है। तुम ध्यान भी करो अधूरा-अधूरा, तो भी न पहुंच पाओगे। तुम पूरा-पूरा, पूरे हृदय से, तुम्हारी सारी समग्रता से, एक गीत भी गा दो, एक नृत्य भी कर लो, तो भी तुम पहुंच जाओगे। क्या तुम करते हो, यह सवाल नहीं। पूरी समग्रता से करते हो या अधूरे-अधूरे, यही सवाल है।

परमात्मा के रास्ते पर नानक के लिए गीत और फूल ही बिछे हैं। इसलिए उन्होंने जो भी कहा है, गा कर कहा है। बहुत मधुर है उनका मार्ग; रससिक्त! कल हम कबीर की बात कर रहे थे : सुरत कलारी भई मतवारी, मधवा पी गई बिन तौले।

नानक वही हैं, जो मधवा को बिना तौले पी गए हैं। फिर जीवन भर गाते रहे। ये गीत साधारण गायक के नहीं हैं। ये गीत उसके हैं जिसने जाना है। इन गीतों में सत्य की भनक, इन गीतों में परमात्मा का प्रतिबिंब है।

दूसरी बात, जपुजी के जन्म के संबंध में। जिस भादों की रात की मैंने बात कही–तब नानक की उम्र रही होगी कोई सोलह-सत्रह। जपुजी का जन्म हुआ तब उनकी उम्र थी, छत्तीस वर्ष, छह माह, पंद्रह दिन। जिस घटना का मैंने उल्लेख किया, उस भादों की रात वे साधक थे और तलाश में थे। प्यारे की पुकार चल रही थी, पियू-पियू। अभी पपीहा रट लगा रहा था। अभी मिलन न हुआ था।

जपुजी का जब जन्म हुआ–यह मिलन के बाद उनका पहला उदघोष है। पपीहा ने पा लिया अपने प्यारे को। पियू-पियू की रटन पूरी हुई। मिलन हो गया। उस मिलन से जो पहला उदघोष हुआ है, वह जपुजी है। इसलिए नानक की वाणी में जो मूल्य जपुजी का है वह किसी और बात का नहीं। जपुजी ताजी से ताजी खबर है उस लोक की। वहां से लौट कर उन्होंने जो पहली बात कही, वह यही है। उस जगत से इस जगत में आ कर, जो पहले शब्द निर्मित हुए वही जपुजी है।

Epitome of Humility: Guru Nanak Dev Ji – 3 - Northlines

उस घटना को भी समझ लेना है।

नदी के किनारे रात के अंधेरे में, अपने साथी और सेवक मरदाना के साथ वे नदी तट पर बैठे थे। अचानक उन्होंने वस्त्र उतार दिए। बिना कुछ कहे वे नदी में उतर गए। मरदाना पूछता भी रहा, क्या करते हैं? रात ठंडी है, अंधेरी है! दूर नदी में वे चले गए। मरदाना पीछे-पीछे गया। नानक ने डुबकी लगाई। मरदाना सोचता था कि क्षण-दो क्षण में बाहर आ जाएंगे। फिर वे बाहर नहीं आए।

दस-पांच मिनट तो मरदाना ने राह देखी, फिर वह खोजने लग गया कि वे कहां खो गए। फिर वह चिल्लाने लगा। फिर वह किनारे-किनारे दौड़ने लगा कि कहां हो? बोलो, आवाज दो! ऐसा उसे लगा कि नदी की लहर-लहर से एक आवाज आने लगी, धीरज रखो, धीरज रखो। पर नानक की कोई खबर नहीं। वह भागा गांव गया, आधी रात लोगों को जगा दिया। भीड़ इकट्ठी हो गई।

नानक को सभी लोग प्यार करते थे। सभी को नानक में दिखाई पड़ती थी कुछ होने की संभावना। नानक की मौजूदगी में सभी को सुगंध प्रतीत होती थी। फूल अभी खिला नहीं था, पर कली भी तो गंध देती है! सारा गांव रोने लगा, भीड़ इकट्ठी हो गई। सारी नदी तलाश डाली। इस कोने से उस कोने लोग भागने-दौड़ने लगे। लेकिन कोई पता न चला। तीन दिन बीत गए। लोगों ने मान ही लिया कि नानक को कोई जानवर खा गया। डूब गए, बह गए, किसी खाई-खड्ड में उलझ गए। मान ही लिया कि मर गए। रोना-पीटना हो गया। घर के लोगों ने भी समझ लिया कि अब लौटने का कोई उपाय न रहा।

और तीसरे दिन रात अचानक नानक नदी से प्रकट हो गए। जब वे नदी से प्रकट हुए तो जपुजी उनका पहला वचन है। यह घोषणा उन्होंने की।

कहानी ऐसी है- कहता हूं, कहानी। कहानी का मतलब होता है, जो सच भी है, और सच नहीं भी। सच इसलिए है कि वह खबर देती है सचाई की; और सच इसलिए नहीं है कि वह कहानी है और प्रतीकों में खबर देती है। और जितनी गहरी बात कहनी हो, उतनी ही प्रतीकों की खोज करनी पड़ती है।

नानक जब तीन दिन के लिए खो गए नदी में तो कहानी है कि वे प्रकट हुए परमात्मा के द्वार में। ईश्वर का उन्हें अनुभव हुआ। जाना आंखों के सामने प्यारे को, जिसके लिए पुकारते थे। जिसके लिए गीत गाते थे, जो उनके हृदय की धड़कन-धड़कन में प्यास बना था। उसे सामने पाया। तृप्त हुए। और परमात्मा ने उन्हें कहा, अब तू जा। और जो मैंने तुझे दिया है, वह लोगों को बांट। जपुजी उनकी पहली भेंट है–परमात्मा से लौट कर।

यह कहानी है। इसके प्रतीकों को समझ लें। एक, कि जब तक तुम न खो जाओ, जब तक तुम न मर जाओ तब तक परमात्मा से कोई साक्षात्कार न होगा। नदी में खोओ कि पहाड़ में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन तुम नहीं बचने चाहिए। तुम्हारा खो जाना ही उसका होना है। तुम जब तक हो तभी तक वह न हो पाएगा। तुम ही अड़चन हो। तुम ही दीवाल हो। तो यह जो नदी में खो जाने की कहानी है–तुम्हें भी खो जाना पड़ेगा; तुम्हें भी डूब जाना पड़ेगा। तीन दिन लगते हैं। इसलिए तो हम, जब आदमी मर जाता है, तो तीसरा मनाते हैं। तीसरा हम इसलिए मनाते हैं कि मरने की घटना पूरी होने में तीन दिन लग जाते हैं। उतना समय जरूरी है। अहंकार मरता है, एकदम से नहीं। कम से कम समय तीन दिन लेता है। इसलिए कहानी में तीन दिन हैं, कि नानक तीन दिन नदी में खोए रहे। अहंकार पूरा गल गया, मर गया। और पास-पड़ोस, मित्रों, प्रियजनों, परिवार के लोगों को तो अहंकार ही दिखाई पड़ता है, तुम्हारी आत्मा तो दिखाई पड़ती नहीं, इसलिए उन्होंने तो समझा कि नानक मर गए।

जब भी कोई संन्यासी होता है, घर के लोग समझ लेते हैं, मर गया। जब भी कोई उसकी खोज में जाता है, घर के लोग मान लेते हैं, खत्म हुआ। क्योंकि अब यह वही तो न रहा। टूट गई पुरानी शृंखला। अतीत मिटा, अब नया हुआ। बीच में तीन दिन की खाई है। इसलिए तीन दिन का प्रतीक है। तीन दिन बाद नानक लौट आए। जो भी खोता है वह लौट आता है, लेकिन नया हो कर लौटता है। जो भी जाता है उस मार्ग पर, वापस आता है। लेकिन जा रहा था तब प्यासा था, आता है तब दानी हो कर आता है। जाता था तब भिखारी था, आता है तब सम्राट हो कर आता है। जो भी परमात्मा में लीन होता है, जाते समय भिक्षापात्र होता है, लौटते समय अपरंपार संपदा होती है बांटने को। जपुजी पहली भेंट है।

अहंकार तुम्हारी आंख में पड़ी हुई कंकड़ी है। उसके हटते ही परमात्मा प्रकट हो जाता है। परमात्मा प्रकट ही था, तुम मौजूद न थे। नानक मिटे, परमात्मा प्रकट हो गया। जैसे ही परमात्मा प्रकट हो जाता है, तुम भी परमात्मा हो गए। क्योंकि उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।

नानक लौटे; परमात्मा हो कर लौटे। फिर उन्होंने जो भी कहा है, एक-एक शब्द बहुमूल्य है। फिर उस एक-एक शब्द को हम कोई भी कीमत दें तो भी कीमत छोटी पड़ेगी। फिर एक-एक शब्द वेद-वचन हैं।

अब हम जपुजी को समझने की कोशिश करें।

इक ओंकार सतिनाम

करता पुरखु निरभउ निरवैर।

अकाल मूरति अजूनी सैभं गुरु प्रसादि।।

‘वह एक है, ओंकार स्वरूप है, सत नाम है, कर्ता पुरुष है, भय से रहित है, वैर से रहित है, कालातीत-मूर्ति है, अयोनि है, स्वयंभू है, गुरु की कृपा से प्राप्त होता है।’

एक है–इक ओंकार सतिनाम।

जो भी हमें दिखाई पड़ता है वह अनेक है। जहां भी तुम देखते हो, भेद दिखाई पड़ता है। जहां तुम्हारी आंख पड़ती है, अनेक दिखाई पड़ता है। सागर के किनारे जाते हो, लहरें दिखाई पड़ती हैं। सागर दिखाई नहीं पड़ता। हालांकि सागर ही है। लहरें तो ऊपर-ऊपर हैं।

इक ओंकार सतिनाम।

और नानक कहते हैं कि उस एक का जो नाम है, वही ओंकार है। और सब नाम तो आदमी के दिए हैं। राम कहो, कृष्ण कहो, अल्लाह कहो, ये नाम आदमी के दिए हैं। ये हमने बनाए हैं। सांकेतिक हैं। लेकिन एक उसका नाम है जो हमने नहीं दिया; वह ओंकार है, वह ॐ है।

क्यों ओंकार उसका नाम है? क्योंकि जब सब शब्द खो जाते हैं और चित्त शून्य हो जाता है और जब लहरें पीछे छूट जाती हैं और सागर में आदमी लीन हो जाता है तब भी ओंकार की धुन सुनाई पड़ती रहती है। वह हमारी की हुई धुन नहीं है। वह अस्तित्व की धुन है। वह अस्तित्व की ही लय है। अस्तित्व के होने का ढंग ओंकार है। वह किसी आदमी का दिया हुआ नाम नहीं है। इसलिए ॐ का कोई भी अर्थ नहीं होता। ॐ कोई शब्द नहीं है। ॐ ध्वनि है और ध्वनि भी अनूठी है। कोई उसका स्रोत नहीं है। कोई उसे पैदा नहीं करता। अस्तित्व के होने में ही छिपी है। अस्तित्व के होने की ध्वनि है।

कुछ बातें समझ लेनी जरूरी हैं। विज्ञान कहता है कि सारे अस्तित्व को अगर हम तोड़ते चले जाएं, और गहराई में विश्लेषण करें, तो अंत में हमें विद्युत-ऊर्जा, इलेक्ट्रीसिटी मिलती है। इसलिए जो आखिरी खोज है विज्ञान की, वह इलेक्ट्रान है, विद्युतकण। सारा अस्तित्व विद्युत से बना है। अगर हम विज्ञान से पूछें कि ध्वनि किससे बनी है? तो विज्ञान कहता है, वह भी विद्युत से बनी है। ध्वनि भी विद्युत का एक आकार है, एक रूप है। लेकिन मूल विद्युत है।

इस संबंध में समस्त ज्ञानियों की विज्ञान से सहमति है, थोड़े से भेद के साथ। वह भेद बड़ा नहीं, वह भेद भाषा का है। समस्त ज्ञानियों ने पाया कि अस्तित्व बना है ध्वनि से और ध्वनि का ही एक रूप विद्युत है। विज्ञान कहता है, विद्युत का एक रूप ध्वनि है; और धर्म कहता है कि विद्युत ध्वनि का एक रूप है। इतना ही फासला है।

मगर यह फासला ऐसा ही दिखाई पड़ता है जैसे ग्लास आधा भरा हो; कोई कहे आधा भरा है, कोई कहे आधा खाली है। विज्ञान की पहुंच का द्वार अलग है। विज्ञान ने पदार्थ को तोड़त्तोड़ कर विद्युत को खोजा है। ज्ञानियों की पहुंच का मार्ग अलग है। उन्होंने अपने को जोड़-जोड़ कर–तोड़ कर नहीं; अपने को जोड़-जोड़ कर अखंड को पाया है। और उस अखंड में एक ध्वनि पाई है। जब कोई व्यक्ति समाधिस्थ हो जाता है तो ओंकार की ध्वनि गूंजती है। वह अपने भीतर उसे गूंजते पाता है, अपने बाहर गूंजते पाता है। सब, सारे लोक उससे व्याप्त मालूम होते हैं।

चकित हो जाता है पहली बार, जब घटता है। क्योंकि वह देखता है कि मैं तो बोल नहीं रहा, मैं तो कुछ कर नहीं रहा, यह ध्वनि कहां से आ रही है? तब वह अनुभव करता है कि यह होने की ध्वनि है, यह किसी टक्कर से पैदा नहीं हो रही है। यह आहत ध्वनि नहीं है, यह अनाहत नाद है।

नानक कहते हैं, वही एक उसका नाम है–ओंकार। नानक बहुत बार नाम शब्द का प्रयोग करेंगे। इसे स्मरण रखना कि जब भी वे कहते हैं, उसका नाम; और उसका नाम ही मार्ग है, और उसके नाम की रटन में जो डूब जाएगा, उसके नाम में जो डूब जाएगा वह उसे पा लेगा; तो ध्यान रखना, नाम जब भी नानक कहते हैं, तब उनका इशारा ओंकार की तरफ है। क्योंकि वही एक उसका नाम है जो हमने नहीं दिया, जो उसका ही है। हमारे दिए हुए नाम बहुत दूर न जा सकेंगे। और अगर थोड़े-बहुत जाते भी हैं, तो इसलिए जाते हैं कि हमारे नामों में भी उसके नाम की थोड़ी-सी झलक होती है।

जैसे समझो कि राम। अगर कोई राम, राम, राम, की रटन लगा दे भीतर, तो उसमें ओंकार की थोड़ी-सी झलक है। वह जो म है वह ॐ का है। इसलिए राम शब्द से भी थोड़ी दूर तक जा सकेंगे हम। लेकिन अगर तुम धुन को करते ही गए, तो तुम एक दिन अचानक पाओगे कि राम की ध्वनि ओंकार में बदल गई। अगर तुम करते ही जाओगे तो जैसे ही मन शांत होगा, वैसे ही ॐ तुम्हारे राम में प्रविष्ट हो जाएगा। और तुम धीरे-धीरे पाओगे कि राम तो खो गया, ॐ आ गया। समस्त ज्ञानियों का यह अनुभव है कि उन्होंने किसी भी नाम से शुरू किया हो, लेकिन आखिरी में ॐ आ जाता है। जैसे ही तुम शांत होने लगते हो, वैसे ही ॐ आने लगता है। ॐ सदा मौजूद है, बस, तुम्हारे शांत होने की जरूरत है।

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नानक कहते हैं, इक ओंकार सतिनाम।

यह सत शब्द भी समझ लेने जैसा है। संस्कृत में दो शब्द हैं। एक सत और एक सत्य। सत का अर्थ होता है एक्झिस्टेंस, अस्तित्व। और सत्य का अर्थ होता है ट्रुथ। दोनों में बड़ा फर्क है। दोनों की मूल धातु तो एक है। सच, सत्य, सत, सब की मूल धातु एक है। लेकिन थोड़े से फर्क हैं, वे समझ लेने जरूरी हैं। सत्य तो दार्शनिक की खोज है। वह खोजता है कि सत्य क्या है? व्हाट इज ट्रुथ? जैसे, दो और दो मिल कर चार होते हैं, यह सत्य है। कि दो और दो मिल कर पांच नहीं होते; दो और दो मिल कर तीन नहीं होते; दो और दो मिल कर चार होते हैं। यह गणित का सूत्र सत्य है, लेकिन सत नहीं है। क्योंकि यह मनुष्य का ही हिसाब है। दिस इज ट्रू, बट नाट एक्झिस्टेंशियल। दो और दो मिल कर चार होते हैं, यह मनुष्य की ही ईजाद है। यह सत्य तो है, सच नहीं है। सत नहीं है।

तुम सपना देखते हो रात। सपना सत तो है, सत्य नहीं है। सपना है तो! नहीं तो देखोगे कैसे? होना तो है, लेकिन तुम यह नहीं कह सकते कि सत्य है। क्योंकि सुबह तुम पाते हो कि न होने के बराबर है। लेकिन हुआ जरूर! सपना घटा।

तो दुनिया में ऐसी घटनाएं हैं, जो सत्य हैं और सत नहीं। और ऐसी भी घटनाएं हैं, जो सत हैं लेकिन सत्य नहीं। गणित सत्य है, सत नहीं। गणित का एक निष्कर्ष सत्य हो सकता है, सत नहीं। सपना है; सपना सत है, सत्य नहीं।

परमात्मा दोनों है–सत भी, सत्य भी। और इसलिए न तो उसे गणित से पाया जा सकता– विज्ञान से उसे नहीं पाया जा सकता, क्योंकि विज्ञान खोजता है सत्य को; और न उसे काव्य, कला, आर्ट्स से पाया जा सकता है, क्योंकि कला खोजती है सत को। परमात्मा दोनों है, सत+सत्य। इसलिए न तो कला उसे पूरा खोज सकती है और न विज्ञान। दोनों अधूरे हैं।

और इसीलिए धर्म की खोज दोनों से पृथक है। धर्म उसकी तलाश है, जो दोनों है, एक साथ है। जो इतना सत्य है जितना कि गणित का कोई भी फार्मूला और जो इतना सत है जितनी काव्य की कोई भी धारणा। वह दोनों है, और दोनों नहीं है। अगर तुम आधे से देखोगे तो चूक जाओगे। अगर तुम दोनों को मिला कर देखोगे तो ही उसे पा सकोगे।

 (एक ओंकार सतनाम प्रवचन-1 के अंश)