सत्यदेव त्रिपाठी ।

सब कुछ होता, पर जिवड़े उजहते (समूल खत्म होते) नहीं। दो-चार दिन कुछ कम रहते, बीजो शांत रहता। फिर फैल जाते, वह छटपटाने लगता। जब रात को सब कुछ शांत हो जाता, तो उसके सोने में जिवड़े उपराते।


 

सोती रातों को बीजो कभी झटके में अपने बिस्तर से उठके चल देता- शायद उनके ज्यादा काटने से हैरान होकर, तो गादी पर दो-चार रेंगते हुए पाये जाते। लेकिन सुबह एक नहीं दिखते, सब उसकी देह में घुस के समा जाते। गादी की खोल रोज़ बदली जाती।

बीजो की छटपटाहट

इन लघुतम तनधारी जिवडों की चालाकियों (कनिंगनेस) के आईने में आज अतनुधारी कोरोना वायरस कुछ-कुछ समझ मे आ रहे हैं। उनसे सताये जाते बीजो की छटपटाहट देखी नहीं जाती थी, आज शहरों में बसे-फँसे देश भर के गाँवों के मजदूरों की भूखी-प्यासी दुर्दशा सुनी नहीं जा रही है। इस मरणांतक त्रासदी से बेहाल यदि वे रेल-पटरी पर मरे कटे पाये जाते हैं, तो जाँच रेल-चालक की नहीं, व्यवस्था-चालकों की होनी चाहिए।

दिन में जब खाली होतीं, उषा—निर्मलादि सेविकायें भी उसके जिवड़े निकालने लगतीं- गाँव मे ‘ढील हेरने’ की उनकी आदत का उपराम। हमारी भी आदत हो गयी थी कि जब भी रात को उठते, देखने के लिए बत्ती जला देते और दो-चार उसके बदन पर ऊपर ही तथा दो-एक बिस्तर पर रेंगते हुए दिख जाते। फिर सहज ही उन्हें चुटकी से पकड़कर निकालने चलते और खोज-खोज के निकालने में लग जाते। कटोरी में पानी ले लेते और एक-एक उसी में डालते हुए घण्टों निकालते रहते। कभी तो सुबह हो जाती। कितनी कटोरियां भर जातीं। हममें से प्राय: कोई सुबह ऐसा करते पाया जाता। कई बार दिन में अकुल भी ऐसा करते मिलता।

काफी दिनों बाद डॉक्टर की जाँच-परख (डाइग्नोसिस) से निष्कर्ष निकला कि बीजो के शरीर में कुछ ऐसे तत्त्व हैं, जो जिवड़े पैदा कर रहे हैं। इस लिहाज से दवायें-सुइयां शुरू हुई थीं। अपेक्षित आराम होते न पाकर डॉक्टर ने कुछ दवा बदली थी कि इसी दौरान मैं पहुँच गया। मैं चाहे महीने बाद आऊँ, बीजो को भूलता नहीं कि 5 बजे उठूँगा, तो घुमाने ले जाऊँगा। इसके लिए मेरे चाय बनाते-पीते हुए वह साथ-साथ रहता। उस दिन किचन में खड़ा हुआ और अचानक धड़ाम से गिर गया। मैं घबरा के देखने लगा, तो साँसें चलती हुई महसूस ही नहीं हुईं। चिल्ला के कल्पना को बुलाते व बीजो को झिझोड़ते हुए फूट-फूट के रो पड़ा। विजड़ित-सी खड़ी रह गयीं कल्पना भी। 3-4 मिनट बाद उसके पेट में हरकत हुई, तो जान में जान आयी। फिर धीरे-धीरे साँसें ठीक चलने लगीं। 9-10 बजे बेटा नीचे आया, तो बताया कि दवा का असर है। डॉक्टर ने बताया है कि चक्कर भी आ सकता है और बेहोशी भी। फिर तो मेरी रुलाई भी विनोद बन गयी।

चहलकदमी काफी कम हो गयी

उन दिनों इन रोगों-इलाजों एवं ढल गयी उम्र के कारण कुछ उल्लेख्य परिवर्तन हुए थे… दरवाजे की घण्टी बजने पर दौड़ के पहुँचना, स्वागत करना या भड़कना बहुत कम हो चला था। पूरे समय घर की बहुत सारी चहलकदमी भी काफी कम हो गयी थी। किसी भी दरवाजे पर छेंक के बैठना श्वान-स्वभाव है, जो बढ़ गया– बहुत कहने पर ही हटता। थोड़ी चिड़चिड़ाहट भी आ गयी थी। हमारे संग-साथ की आकांक्षा ज्यादा होने लगी थी– शायद मानसिक आवश्यकता बढ़ने लगी थी। हमारी तरफ से प्रेम-लगाव के साथ अब देख-भाल (केयर) की मात्रा स्वत: बढ़ गयी थी। लेकिन उसकी ख़ुराक़ व खाने में कोई कमी नहीं आयी थी। तत्परता अब आग्रह हो चली थी। सुबह जरा भी देर होने पर कल्पनाजी को जगा देता था, जबकि पहले उठने का इंतज़ार करता था। अब उसकी बात तुरत न मानी जाये, तो नाराज़ हो जाता। सिफारिश करके मनाने पर ही मानता था। इधर दो-चार सालों से महादेवी है, जो छह बजे घर जाने के पहले उसकी रोटियां बनाती है। 5 बजे से उसके पीछे पड़ जाता, चौका-बेलन हाथ में उठवा के ही मानता। यह भोजन-वृत्ति भी अचानक चार दिन ही बन्द हुई- हम आसन्न ख़तरे से सजग न हो पाये।

आख़िर बीजो को उठा के ही मानती चीकू

बनारस से आने के कुछ ही बाद अपने परिसर में श्वानों की छह आमद में से बची एकमात्र को अकुल की संवेदना फिर उठा लायी थी और चीकू त्रिपाठी नाम दिया, जो अब कल्पनाजी के शब्दों में ‘डेलीकेट डार्लिंग’ है। किंतु इसके अपने दुर्लालित्य भी हैं। जैसा कि तब अकुल का अग्रकथन (प्रेडिक्शन) था, चीकू के साथ ने मनोवैज्ञानिक रूप से बीजो की आयु-सेहत व सक्रियता में संजीवनी का काम किया है। इधर बीजो घूमते हुए कमजोरी से थक के बैठ जाता, तो बार-बार जाके चीकू उसे सूँघती, सर लगाके उठाने का प्रयास करती और न उठने पर कुछ दूर जाके उसकी तरफ दौड़ के आती– खेलने को आमंत्रित करती… आख़िर बीजो को उठा के ही मानती। न उठने पर मेरे साथ इंतज़ार भी करती। रात को घूमने जाने से कसरियाता, तो प्राकृतिक निपटान करा देने की गरज़ से बिना गट्ठी बाँधे ही पट्टा गले में डाल देता। और जिस बीजो को कभी पट्टा बाँधा नहीं गया, वह पट्टा गले में आते ही चल पड़्ता– पशु-प्रवृत्ति की दासता की बलिहारी! लेकिन तब वह निपटान करके भाग भी आता। यह बात अलग है कि सुबह के भ्रमण में कभी आलस्य नहीं करता– पहले से ही उठके तैयार रहता। तभी तो सालों बाद अभी मार्च (2020) के पहले हफ्ते में एक सुबह मौज-मौज में ही जुहू तक चला आया। पहुँच के तो उसी प्रिय जगह पर दस मिनट पड़ गया, पर फिर उठके आ भी गया। क्या पता था कि यही उसकी अंतिम जुहू-यात्रा और 8 मार्च को वहाँ से आना, मेरी उससे अंतिम भेंट होगी!

घर आने वाला हर शख़्स बीजो का दोस्त

बीजो की देह गति तो कॉलोनी के चहुँ ओर से जुहू तट तक ही थी, पर भावात्मक सम्बन्धों की उसकी दुनिया बहुत बड़ी थी। घूमते हुए मिलने वालों के जिक्र हुए, घर आने वाला हर शख़्स भी बीजो का दोस्त हो जाता था। उसे वह अपनी स्मृति में सँजो लेता था। इसीलिए दोस्तों-मेहमानों के अलावा दूधवाले, फल वाले, सामान पहुँचाने वाले (डेलीवरी ब्वाय), अख़बार वाले, बिजली-पानी की मरम्मत करने वाले और पोस्टमैन-कोरियर वाले तक… सबके साथ उसके सम्बन्धों-संवादों के अपने सिलसिले होते। उसे चाहने वाले तमाम लोग पूरे देश व विदेश में पहुँचे हैं। अवसान के दिन स्टेटस लगा दिया था। खबर पाकर सभी अफसोस व संवेदना से भींगे-भरे हुए हैं। मुम्बई का तो पूछना ही क्या, दिल्ली-कलकत्ता, बड़ोदा-अहमदाबाद, पुणे-औरंगाबाद, आगरे-इलाहाबाद, बस्ती- गोरखपुर आदि से लेकर यूके-यूएस से भी सन्देश-फोन आने लगे- आज तक आ रहे हैं।

इन दिनों महाभारत चल रहा है। दर्जा पाँच की पुस्तक में ‘वीर अभिमन्यु’ पाठ था, जिसमें अभिमन्यु की मृत्यु के बाद अर्जुन को मोह से उबारने के लिए कृष्ण स्वर्ग ले जाते हैं। काश, आज ऐसा हो पाता! लेकिन डर जाता हूँ, कहीं उसी तरह बीजो भी कोई अभिशप्त जीव रहा हो, जिसे 14 साल का मृत्युलोक-वास मिला रहा हो और वहाँ जाने पर वह भी हमें न पहचाने। उसके भाव-कर्म को देखके उसका अभिशप्त जीव होना तो पक्का लगता है, पर विश्वास है कि वहाँ भी हमें देखते ही वह उसी तरह भाग के पास आयेगा, जैसे कुछ दिनों बाद बाहर से आने पर आता था। उसी तरह गोद में बैठ-लिपटके छटपटायेगा और उसके लिए हमेशा लाये जाने वाले ‘मारी’ बिस्किट के पैकेट को मेरी जेब से निकालने के लिए मचलेगा… फिर मेरे हाथ से एक-एक बिस्किट खाते-खाते गोद में ही सो जायेगा। (समाप्त) 


हॉय बीजो, श्वान-तन में संत थे तुम-1

हॉय बीजो, श्वान-तन में संत थे तुम-8