सत्यदेव त्रिपाठी ।

घर में भी बीजो का रहना ऐसा ही दिलचस्प व उल्लेख्य है। बीजो से दो साल पहले बच्ची घर में आ गयी थी। तब वह दो दिन की थी। अपने स्नेह-शऊर से उसने सबका दिल जीत लिया था। और कुत्ते-बिल्ली की दुश्मनी सरनाम है।


 

जब तक जनमतुआ बीजो एक कमरे में बन्द था, वहाँ न जा पाकर बच्ची का कुतूहल चरम पर था। उसका स्थायी निवास मेरा शरीर व बिस्तर था। बीजो के बाहर आने पर जब उसे अपने पास बिठाता, तो बच्ची जल-भुन जाती। बुलाने पर आती नहीं, लेकिन बीजो के हटते ही आके जम जाती– याने अनट मेरे बिठाने से नहीं, विरोधी जाति के बैठने से थी। शायद डर ज्यादा था, ईर्ष्या कम थी। उसे बड़े कड़वे अनुभव मिले थे– कुत्तों के ही नहीं, बिल्लियों के भी। लेकिन बच्ची के इस विरोधी को तो कुछ पता ही न था। बल्कि उसे तो बिल्ली से अपने जातीय बैर वाले सम्बन्ध का ही पता न था। असल में मूलत: उसके अन्दर बैर भाव था ही नहीं– जैसे जन्म से मनुष्य में नहीं होता, हम सिखाते हैं। लेकिन अन्य प्राणियों में जातीय स्मृति जन्मना होती है।

अभिनव व सच्चा जनतंत्र

बिल्ली को देखते ही छोटे-छोटे पिल्लों को गुर्राते देखा है मैंने। लेकिन बीजो को कभी नहीं देखा। इसीलिए हम लाड़ से उसे संत कहते और मनुष्य कहना भी उसका अपमान मानते। बीजो को श्वान-योनि देने के लिए कभी विनोद में ब्रह्मा को कोसते हुए बीजो को रूप-आबण्टन में हुई विभागीय भूल (ऑफीशियल मिस्टेक इन बॉडी एलॉटमेण्ट) का परिणाम बताते। गरज़ यह कि बीजो के इसी संत-स्वभाव ने बच्ची को धीरे-धीरे निडर बनाया। काफी दिनों बीजो की तरफ से कोई ज्यादती होते न देखकर कुछ तो मनहुँक हुई रही होगी कि एक बार जब वह गोद में बैठी थी, बीजो आके पाँव पे सर रखके सोने चला, तो वह कूद कर कन्धे पर चढ़ गयी। वहीं से अन्दाज़ने लगी। बेपरवाह लेटे बीजो को ध्यान से देखने लगी और धीरे-धीरे उतर कर दूसरे पैर की जाँघों तक आ गयी। फिर एक पंजा बढ़ाकर बीजो को कुरेद दिया। उसने आँखें खोलके देखा और सो गया। इस तरह रासायनिक प्रक्रिया से परकते-परकते दोनों आस-पास बैठने लगे। बगल-बगल में खाने लगे। फिर बच्ची की रुचि के लिए बीजो अपनी पसन्द को छोड़ने लगा। बच्ची जहाँ बैठना-सोना चाहती, वहाँ से हट जाता। फिर बच्ची उसे हटाने लगी और वह हटने लगा। इस तरह बीजो पर बच्ची की हुकूमत चलने लगी– सबल पर निर्बल की हुकूमत– अभिनव व सच्चा जनतंत्र या रामराज्य।

एक दिन ऐसा हुआ कि बीजो की पीठ पर बच्ची सोने लगी। इस दृश्य को देखकर लोग ताज्जुब करते, बीजो की उदारता का गुणगान करते, जिसमें सचाई भी है, लेकिन यह सम्बन्ध इतना अनोखा भी नहीं– कई जगहों पर है। साथ रहते-रहते मनुष्य लड़ते हैं– भाई महाभारत करते हैं। पशु-पक्षी पहले लड़ें भले, पर साथ रहने पर अच्छे दोस्त होकर रह जाते हैं। आगे चलकर आयी चीकू के साथ भी ऐसा हुआ। उसकी भी हुकूमत चली बीजो पर और बड़ी बात तो यह कि बीजो के अनुकरण मात्र से वह एकदम पालतू हो गयी– अलग से प्रशिक्षण की जरूरत न पड़ी।

गृहोत्सव का मजा दूना

बीजो के आगमन के साढ़े तीन साल बाद दिसम्बर, 2009 में मेरा काशी विद्यापीठ जाने का ठहर गया– योजना-तैयारी तो सालों से चल रही थी। इससे सारी व्यवस्था में काफी परिवर्तन हुए। वहाँ किराये के घर में मुझे व्यवस्थित कर देने के बाद कल्पना व अकुल ने बीजो को भी लाने का प्रस्ताव रखा। दोनों अपनी पसन्द को मेरे लिए वार रहे थे– शायद मेरी-बीजो की पारस्परिकता को देखते हुए। मुझे नये कदम उठाने पसन्द हैं। घर भी कल्पनाजी ने लिया था बीजू को रखने लायक- बंगले का पूरा तलमंजिल। लेकिन था तो किराये का और मैं गृहपति को द्वैध में नहीं डालना चाहता था। मन तो बहुत छटपटाया– शायद बीजो का भी। बस, अपने घर की तलाश शुरू कर दी और अक्टूबर 2010 में निजी मकान (बना-बनाया) ले लिया। 8 दिसम्बर, 2010 को गृहप्रवेश हुआ, तो बेटा एक दिन पहले बीजो को लेके आ गया। गृहोत्सव का मजा दूना हो गया।

उत्सव के केन्द्र में बीजो आ गया। और आते ही थोक रूप में शहर के लगभग दो सौ लोगों के सामने प्रस्तुत (इंट्रोड्यूस) भी हो गया। अगले दिन से बीजो की गाथाएं यहाँ भी कही-सुनी जाने लगीं और उसके उसी सुरूप व सद्चरित्र का विलास-विकास यहाँ भी शुरू हुआ। घर का नवोन्मेष (रेनोवेशन) कराते हुए मुख्य द्वार (मेन गेट) का नीचे वाला हिस्सा डेढ़ फिट कटाके तिरछी सलाखें लगायी गयीं- सिर्फ़ बीजो के लिए, ताकि वह वहाँ बैठ के सड़क और आने-जाने वालों को देख सके, जो उसे बहुत पसन्द है। मुम्बई का घर अपने ही एक मकान के पीछे है, जिससे वहाँ यह सम्भव न था। कभी घर के बाहर ही एकाध घण्टे बैठ के गेट की तरफ रोड पर देखा करता था। यहाँ अब हमेशा का सुपास हो गया, तो उसने इसका भरपूर उपयोग किया। इसके लिए यहाँ एक और छूट उसने ले ली और हमने दे दी।

थैंक्स टु कल्पनाजी

बाहर के बरामदे में अपने लोगों के लिए एक तख़्ता रखा गया, जिस पर बीजो बैठने-लेटने लगा। वहाँ से गेट के ऊपर से रोड दिखता। उसी के नीचे वह सोता भी ज्यादा। ये दोनों जगहें उसकी पसन्दीदा हो गयीं। हमें बैठना होता, तो तख़्ते को साफ करके पोंछ लेते। यहाँ छत भी पहली ही मंजिल पर मिली, जो पूरे दिन खुली भी रहती। वहाँ भी बीजो किसी भी वक्त चला जाता और रेलिंग के पास बैठता, जहाँ से सामने की पूरी सड़क व आधी कॉलोनी दिखती। कुल मिलाकर उसे अपनी मूल जगह से छूटने का दुख भले हो, रहने का सुख कम न था – थैंक्स टु कल्पनाजी।


हॉय बीजो, श्वान-तन में संत थे तुम-1