क्या सुप्रीम कोर्ट विदेशी साजिश का हिस्सा बनेगा।
प्रदीप सिंह।
हिंदू धर्म के खिलाफ और हिंदुओं को तोड़ने का एक नया कुचक्र चल रहा है। इसके लिए जो तरीका अपनाया जा रहा है वह सामान्य रूप से देखने में समझ में नहीं आएगा। उस पर मुलम्मा चढ़ाया जा रहा है सामाजिक न्याय, संवैधानिक व्यवस्थाओं और धर्मनिरपेक्षता का। कहा जा रहा है कि आरक्षण का धर्मनिरपेक्षिकरण होना चाहिए। इसका मतलब यह हुआ कि आरक्षण देने में धर्म को आड़े न आने दें, सभी पंथों, मजहब के लोगों को आरक्षण दें। यह आरक्षण की मूल अवधारणा के खिलाफ है। अंतरराष्ट्रीय ताकतें इसमें बहुत लंबे समय से लगी हुई हैं। यह कोशिश अंग्रेजों के समय से चल रही है कि कैसे हिंदू धर्म को तोड़ा जाए। ईसाई मिशनरी का जो खेल हुआ उससे पूरा नॉर्थ-ईस्ट चला गया। हमारे जो आदिवासी इलाके हैं उनमें बड़े पैमाने पर धर्म परिवर्तन हुआ। वह सब इसी कोशिश के तहत हुआ। अब यह कोशिश सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गई है।
सुप्रीम कोर्ट वही भाषा बोल रहा है जो लेफ्ट-लिबरल बोलते हैं। आप कहेंगे कि मैं कैसे इस निष्कर्ष पर पहुंच गया, किस बात पर पहुंच गया। 12 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट में मामला आया कि क्या ईसाई और मुस्लिम दलितों को आरक्षण का लाभ दिया जाना चाहिए। यह मामला लंबे समय से उठ रहा है और कांग्रेस का यह बड़ा पॉलिटिकल प्रोजेक्ट है। 2007 में रंगनाथ मिश्रा आयोग की रिपोर्ट के जरिये इसको लागू करने की कोशिश की गई थी। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रह चुके रंगनाथ मिश्रा ने भी यही सिफारिश की थी। उनको बाद में कांग्रेस पार्टी ने राज्यसभा में भेजा था। उन्होंने यह सिफारिश की थी कि जिन दलितों ने धर्म परिवर्तन कर ईसाई या मुस्लिम धर्म अपना लिया है उनको भी आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए। जबकि ईसाई धर्म और इस्लाम दोनों सदियों से यह दावा करते रहे हैं कि उनके यहां भेदभाव नहीं है, जाति-पाती नहीं है। जिस तरह से हिंदू धर्म में जाति का बंटवारा है और उसके आधार पर भेदभाव होता है वह उनमें नहीं होता है। अब जब धर्मांतरित लोगों को आरक्षण देने का मामला आया तो कह रहे हैं कि हमारे यहां भी जाति है, हमारे यहां भी दलित हैं, हमारे यहां भी पिछड़े हैं, इसलिए हमको भी आरक्षण मिलना चाहिए।
पूना पैक्ट है दलितों को आरक्षण का आधार
संविधान में आरक्षण की जो व्यवस्था की गई उसकी एक पृष्ठभूमि है। पूना पैक्ट के बारे में अगर आप जानते होंगे या सुना होगा तो डॉ. भीमराव आंबेडकर ने यह मांग की थी दलितों के लिए अलग निर्वाचन मंडल हो। यह मांग ऐसी थी कि अगर इसे मान लिया जाता तो हिंदू समाज दो फाड़ हो जाता। हिंदू समाज की बड़ी ताकत चली जाती। इस बात को महात्मा गांधी ने समझा और हिंदुओं के पक्ष में सबसे बड़ा कदम उन्होंने जो उठाया वह है यह पूना पैक्ट। वह आमरण अनशन पर बैठ गए कि अगर डॉ. आंबेडकर यह मांग नहीं छोड़ेंगे तो मैं आमरण अनशन पर बैठूंगा और जान दे दूंगा। आखिर में डॉ. आंबेडकर को यह मानना पड़ा और उन्होंने कहा कि गांधी जी ने ब्लैकमेल किया है। अपनी जान देने की बात पर मुझसे यह बात मनवा रहे हैं। मैं यह बात स्वीकार नहीं करता लेकिन उनकी जान मेरे लिए बहुत कीमती है इसलिए मैं उनकी बात मान रहा हूं। लेकिन इसकी प्रतिध्वनी तब सुनाई दी जब संविधान सभा बनी। दलितों को आरक्षण का आधार वही पूना पैक्ट बना।
धर्मांतरित दलितों को आरक्षण क्यों
संविधान के मुताबिक तीन वर्गों को आरक्षण प्राप्त है, दलित, आदिवासी और पिछड़ा वर्ग। आदिवासी और पिछड़ा वर्ग को धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं मिलता है। इसलिए आप सुनते रहे होंगे कि पिछड़े मुसलमानों को पिछड़ा वर्ग के कोटे में आरक्षण मिलता है। दलितों में कोई और धर्म के लोग नहीं हैं। ईसाई जरूर दलितों का धर्म परिवर्तन करा रहे हैं। आदिवासियों में जो ईसाई हो गए हैं उनको आरक्षण देने की यह बहुत बड़ी अंतरराष्ट्रीय साजिश है। पिछले कुछ सालों से डिस्मेंटलिंग हिंदुत्व का एक अभियान चल रहा है। सनातन धर्म का 10 हजार साल का इतिहास है। सनातन धर्म को मानने वालों ने दूसरे धर्म के लोगों को अपने धर्म में शामिल कराने की कभी कोशिश नहीं की। धर्मांतरण की जो छिटपुट घटनाएं हुई हैं वह घर वापसी की हुई है। दूसरों को अपने धर्म में जबरन शामिल कराना या ताकत के जोर पर या प्रलोभन देकर ऐसा हिंदू समाज ने कभी नहीं किया तो फिर डिस्मेंटलिंग हिंदुत्व क्यों, क्योंकि हिंदू की ताकतों को लोग समझ रहे हैं, पूरी दुनिया इस बात को समझ रही है। इस्लाम को मानने वाले यह समझ ही नहीं पाए कि मुसलमानों और मुगलों के 800 साल राज करने के बाद भी वह भारत को क्यों नहीं इस्लामिक राज्य बना पाए। यह है सनातन धर्म की अंदर की ताकत जिसने हमको बचा कर रखा। इस ताकत से वे परेशान हैं।
कांग्रेस का राजनीतिक एजेंडा
आज अगर देश में इतनी मजबूत सरकार है तो उसी ताकत के बल पर है। वह नरेंद्र मोदी को हिंदुत्व के आइकॉन के रूप में देखते हैं। वह उन्हें एक हिंदू नेता से ज्यादा कुछ नहीं देखते हैं। उनको लगता है कि हिंदुत्व को कमजोर कर दें, हिंदुओं को तोड़ दें तो इस तरह की ताकत फिर से नहीं उभरेगी। इसी के लिए दुनिया की 35 यूनिवर्सिटी के लोग साथ आए और यह अभियान चला डिस्मेंटल हिंदुत्व का। राहुल गांधी अमेरिका और लंदन में जो बोल कर आए वह सब उसी का हिस्सा है और कांग्रेस पार्टी यह पहले से करती रही है। मैंने ऊपर बताया कि रंगनाथ मिश्रा की रिपोर्ट के जरिये किस तरह से डिस्मेंटल करने की कोशिश हुई। इसी तरह से जवाहरलाल नेहरू ने पहले नागालैंड, फिर पूरा नॉर्थ-ईस्ट ईसाई मिशनरियों के हवाले कर दिया। नागालैंड को ईसाई मिशनरी के हवाले कर दिया गया और वहां यह प्रतिबंध था कि हिंदू समाज का कोई धार्मिक नेता, कोई धर्मगुरु प्रवेश तक नहीं कर सकता, जबकि इसाई मिशनरियों को धर्मांतरण की पूरी छूट थी। आज नॉर्थ-ईस्ट में इतने बड़े पैमाने पर जो ईसाई समुदाय नजर आता है वह इसी का नतीजा है। उस समय से यह प्रोजेक्ट चल रहा है। अंग्रेजों के जमाने में चल रहा था और आजाद भारत के सरकार के समय से चल रहा था।
सामाजिक न्याय का मुलम्मा
अब कहा जा रहा है कि दूसरे पंथ और मजहब के लोगों को आरक्षण न देना देश की धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के खिलाफ है। दूसरा तर्क यह दिया जा रहा है कि ऐसा न करके आप सामाजिक न्याय के रास्ते में रोड़ा अटका रहे हैं यानी जाति के बहाने सामाजिक न्याय का सिद्धांत पूरी तरह से लागू नहीं होने दे रहे हैं। आरक्षण में केवल दलितों के लिए धर्म के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की गई थी क्योंकि यह माना गया कि दलित समाज का सदियों तक उत्पीड़न हुआ। भेदभाव, छुआछूत के जरिये सामाजिक रूप से उनको अलग रखने की जो साजिश थी उसी के कारण उन्हें धार्मिक रूप से आरक्षण दिया गया। अब जो आरक्षण मांग रहे हैं वह ज्यादातर दलित समुदाय में ही क्यों मांग रहे हैं क्योंकि दलित समुदाय को आरक्षण केवल नौकरी और शिक्षा संस्थानों में ही नहीं मिलता बल्कि राजनीतिक आरक्षण भी मिलता है यानी उनके लिए सीटें रिजर्व होती है। उसका भी लाभ उठाना चाहते हैं।
सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई
अब आते हैं सुप्रीम कोर्ट की बात पर। 12 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट में एक रिट फाइल हुई जिस पर सुनवाई हो रही है कि क्या जो धर्मांतरित ईसाई और मुसलमान हैं उनको भी आरक्षण मिलना चाहिए। सरकार ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस केजी बालकृष्णन की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गई है जो इस पर विचार कर रही है। उसकी रिपोर्ट आने वाली है। अदालत में रंगनाथ मिश्रा की रिपोर्ट का हवाला दिया गया तो भारत सरकार का कहना था कि रंगनाथ मिश्रा की रिपोर्ट बिना किसी फील्ड स्टडी के आई थी। बंद कमरे में बैठकर फैसला किया गया था और यह रिपोर्ट दी गई थी। यह कांग्रेस पार्टी का पॉलीटिकल एजेंडा था। अब देखिए कि ये सब ताकतें पूरी तरह से लगी हुई हैं कि कैसे हिंदू समाज को कमजोर किया जाए। उनके लिए एक बड़ी चिंता का कारण यह है कि वह इस देश को मैनिपुलेट नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए जो सबसे कमजोर पक्ष है उस पर प्रहार कर रहे हैं। उनको कमजोर पक्ष दिखता है दलित और आदिवासी।
इतनी जल्दबाजी क्यों
सुप्रीम कोर्ट में सॉलिसिटर जनरल ने जब यह बात कही कि हमने केजी बालकृष्णन की अध्यक्षता में कमेटी बनाई है वह विचार कर रही है तो सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हम उस कमेटी की रिपोर्ट का इंतजार ही नहीं करेंगे। हम उससे पहले सुनवाई करेंगे और फैसला देंगे। फिर उस कमेटी की रिपोर्ट का क्या मतलब होगा। वह तो रद्दी की टोकरी में फेंक दी जाएगी। सरकार ने एक आयोग बनाया है जो अध्ययन करके इसके बारे में रिपोर्ट देने वाला है। क्या रिपोर्ट आएगी इस बारे में न सरकार को मालूम है, न सुप्रीम कोर्ट को मालूम है और न किसी और को मालूम है। इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट सुनने को तैयार नहीं है और उस रिपोर्ट का इंतजार करने को भी तैयार नहीं है। आखिर जल्दी क्या है। ऐसी कौन सी आफत आ रही है। जो काम 73 साल से नहीं हुआ जब से संविधान बना है, अगर कुछ महीने की और देर हो जाएगी तो ऐसा क्या हो जाएगा। इसके पीछे की मंशा समझिए। यह कॉलेजियन माइंडसेट है। यह वह माइंडसेट है जिसको लगता है कि हिंदुत्व को तोड़ देना चाहिए। इसके लिए जो रास्ता अपनाया जाए वह इतना भोंडा न हो कि लगे कि यह एक षड्यंत्र किया जा रहा है। इसको आवरण पहनाया जाए संविधान का, सामाजिक न्याय का, धर्मनिरपेक्षता का। यह सब जुमले उठाकर धर्मांतरित मुसलमानों और ईसाइयों को आरक्षण देने की कोशिश हो रही है।
पिछले दरवाजे से मिल जाएगी धर्म परिवर्तन की छूट
इस मामले की सुनवाई कर रही है जस्टिस संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली तीन सदस्य पीठ। इतने बड़े मामले की सुनवाई संविधान पीठ भी नहीं कर रही है। जुलाई में जब गर्मी की छुट्टियों के बाद अदालत खुलेगी तब इस पर फिर सुनवाई शुरू होगी। इस प्रोजेक्ट को समझने की जरूरत है। इस प्रोजेक्ट के पीछे की जो नियत है उसको समझने की जरूरत है। अगर धर्मांतरित ईसाई और मुसलमानों को आरक्षण की व्यवस्था संवैधानिक रूप से कर दी जाती है, अगर सुप्रीम कोर्ट यह फैसला लेता है कि जो दलित ईसाई या मुसलमान बन चुके हैं उनको भी आरक्षण मिलेगा तो यह पिछले दरवाजे से धर्मांतरण का संवैधानिक रास्ता खोलने के बराबर होगा यानी धड़ल्ले से धर्म परिवर्तन कराओ और उसके बाद आरक्षण का भी लाभ ले लो। ऐसे लोगों को दो तरह का लाभ मिलेगा, एक अल्पसंख्यक होने का और दूसरा दलित होने का। एक साथ दो फंडामेंटल राइट्स जो और किसी को नहीं मिल रहा है। जो काम अभी चोरी-छिपे लालच देकर हो रहा है वह धड़ल्ले से होगा। यह जो क्रिप्टो क्रिश्चियन हैं वह क्या है। यह इसीलिए कराया जाता है कि अगर पता चल गया तो आरक्षण नहीं मिलेगा। आरक्षण की व्यवस्था सिर्फ हिंदू धर्म बल्कि कहें कि जो इंडिक रिलीजन हैं, जो हिंदू धर्म की शाखाएं हैं उन्हीं के लोगों को मिला हुआ है। इसमें हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख आते हैं। इसके अलावा जो भी हैं उनको आरक्षण का लाभ नहीं मिलता है क्योंकि जाति के आधार पर भेदभाव और किसी धर्म में नहीं होता है। यही मानकर हिंदू समाज के दलितों को आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। इस तर्क को सिर के बल खड़ा करने की कोशिश हो रही है।
पूना पैक्ट को रद्द करने की कोशिश
पूना पैक्ट के जरिये जिसे महात्मा गांधी ने रोका था उसको रद्द करने की कोशिश की जा रही है। इसका मतलब यही होगा कि अगर आप दलित ईसाई, दलित मुसलमानों के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था करते हैं तो फिर धर्मांतरण को रोकेगा कौन। फिर यह कौन तय करेगा कि स्वेच्छा से धर्म परिवर्तन कर रहे हैं या लालच में या दबाव में कर रहे हैं। जितने भी धर्म परिवर्तन होते हैं उसमें 95 फीसदी से ज्यादा या तो लालच में या दबाव में कराए जाते हैं। इस बात के तमाम अध्ययन हैं कि धर्म परिवर्तन के बाद जो दलित ईसाई या मुसलमान बन जाते हैं वहां भी उन पर वही जातीय भेदभाव होता है जो हिंदू धर्म पर आरोप लगाया जाता है। जब आपको धर्मांतरण कराना होता है तब आप उन लोगों से कहते हैं कि देखो इस तरह से हिंदू धर्म में जाति के आधार पर तुमसे भेदभाव होता है, वैसा हमारे यहां नहीं होता है। वहां जाने पर उनके साथ उससे भी बुरा बर्ताव होता है क्योंकि उनको वहां जातीय भेदभाव के नजर से तो देखा ही जाता है, साथ-साथ यह मान लिया जाता है कि ये न तो असली मुसलमान हैं न असली इसाई हैं, यह कन्वर्टेड लोग हैं। उनके साथ सेकंड ग्रेड मुसलमान या सेकंड ग्रेड ईसाई की तरह बर्ताव किया जाता है।
क्या साजिश का शिकार बनेगा सुप्रीम कोर्ट
मेरा सवाल एक ही है कि क्या सुप्रीम कोर्ट हिंदू समाज को तोड़ने की साजिश का हिस्सा बनना चाहता है या बनेगा या उसको यह समझ में आएगा कि इसके पीछे की नियत क्या है। यह एक अंतरराष्ट्रीय साजिश है। उस साजिश का शिकार हमारा सुप्रीम कोर्ट क्यों हो। देश के बहुसंख्यक समाज को तोड़ने का रास्ता अगर सुप्रीम कोर्ट से निकलेगा तो इससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बात और क्या हो सकती है। तब सरकार के सामने क्या रास्ता होगा। सरकार के सामने और भी मुश्किलें होंगी, खासकर बीजेपी सरकार के सामने। बीजेपी सरकार के सामने समस्या यह होगी कि वह जो आउटलीज का प्रोग्राम चला रही है ईसाइयों और पसमांदा मुसलमानों को जोड़ने की उसका क्या होगा। सवाल होगा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने कि क्या वह हिंदू हितों की कीमत पर यह काम करेंगे। उनके सामने भी चुनौती होगी। अगर धर्म परिवर्तन करने वालों को आरक्षण का 2 फीसदी भी लाभ मिला तो मान कर चलिए कि बीजेपी से कम से कम 20 फीसदी हिंदू वोट कम कट जाएगा। इससे ज्यादा भी हो सकता है। संख्या पर मत जाइए लेकिन इसकी भारी प्रतिक्रिया हिंदू समाज में होगी। सुप्रीम कोर्ट अगर इस तरह का फैसला देता है तो वह हिंदू समाज में एक नए विभाजन, विखंडन की आधारशिला रखेगा और इससे जो आग भड़केगी उसको बुझाना मुश्किल होगा।
आज मणिपुर में जो आग लगी हुई है वह मणिपुर हाई कोर्ट की एक नासमझी भरी फैसले से लगी है। मुझे नहीं मालूम कि माननीय न्यायाधीशों ने इस पर विचार किया है या नहीं। उम्मीद करनी चाहिए कि किया होगा। उनकी दो टिप्पणियों से यह अंदाजा लगा रहा हूं। एक रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफारिशों का जिक्र करना, दूसरा केजी बालकृष्ण कमेटी की सिफारिश का इंतजार न करना। यह जो जल्दबाजी दिखाई जा रही है उसके पीछे क्या है। सुप्रीम कोर्ट इस तरह का कोई फैसला करता है तो वह सामाजिक विघटन का, सामाजिक विखंडन का नींव रखेगा जो इस देश के लिए बहुत खतरनाक होने वाली है। अब देखना है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला क्या होता है और यह भी देखना है कि केंद्र सरकार का रुख क्या होता है।
लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ न्यूज पोर्टल एवं यूट्यूब चैनल के संपादक हैं ।