प्रदीप सिंह।
बदले बदले मेरे सरकार नजर आते हैं, दिल की बर्बादी के आसार नजर आते हैं। यह गुरुदत्त की मशहूर फिल्म चौदहवीं का चांद का गीत है। पर नीतीश कुमार की सरकार पर सटीक बैठता है। बस दिल की जगह गठबंधन कर दीजिए।
सोमवार को शपथ ग्रहण समारोह में नीतीश कुमार रुठे हुए दूल्हे की तरह नजर आए। उन्हें अपना घटा हुआ रुतबा रास नहीं आ रहा।
इस बार दांव लग नहीं रहा
नीतीश कुमार ऐसे नेता हैं जो राजनीतिक वास्तविकता के आधार पर नहीं अपनी इच्छा के आधार पर मांग रखते हैं। वे अपने सहयोगी की मजबूरी और सदाशयता दोनों का फायदा उठाने से कभी गुरेज नहीं करते। इस बार यह दांव लग नहीं रहा। इसलिए वे पिंजरे में कैद पक्षी की तरह फड़फड़ा रहे हैं।
नीतीश कुमार इस सचाई को स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि बिहार का मतदाता उनसे नाराज है। उनकी राजनीतिक हैसियत भाजपा और मोदी ने नहीं घटाई है। यह काम बिहार के मतदाता ने किया है। उनको इतनी भी सीटें भाजपा और मोदी की वजह से मिली हैं। फिर भी उनकी जिद है कि उन्हें पहले जैसी हैसियत मिले। पर यह होने वाला नहीं है।
रस्सी जली पर ऐंठ वही
शपथ ग्रहण समारोह में उनका व्यवहार जैसा भी हो लेकिन शालीन तो नहीं कहा जा सकता। भाजपा के दो उप-मुख्यमंत्री शपथ लेकर उनके बगल में बैठने आए तो उनके अभिवादन के जवाब में वे अपनी कुर्सी से हिले नहीं। पर जब उनकी पार्टी के विधायक शपथ लेकर आए तो उनके अभिवादन का उन्होंने उठकर जवाब दिया। यह बात वहां मौजूद लोगों और न्यूज चैनलों पर शपथ ग्रहण का प्रसारण देख रहे लोगों ने महसूस किया।
अभी उनकी समस्या और बढ़ने वाली है। क्योंकि संख्या बल के मुताबिक भाजपा को इस बार ज्यादा मंत्रि पद मिलेंगे और जाहिर है कि विभाग भी। जद-एकी के कई मलाईदार विभाग भाजपा के कोटे में जा सकते हैं। इसके अलावा उन्हें पिछले पच्चीस साल से सुशील मोदी के जरिए भाजपा से डील करने की आदत हो गई है। सुशील मोदी की इस बार मंत्रिमंडल से छुट्टी हो गई है। यह भी नीतीश कुमार को नागवार गुजरा है। वे अपनी पार्टी ही नहीं भाजपा में बिहार इकाई के बारे में भी फैसले करवाते थे। वह समय चला गया है।
उनकी इस बदमिजाजी के बावजूद उनके पास विकल्प बहुत कम हैं। उनकी यह आखिरी राजनीतिक पारी है। आखिरी न हो तब भी जद-एकी के नेताओं को धीरे धीरे समझ में आ जाएगा कि अब नीतीश कुमार उनका राजनीतिक भविष्य नहीं हैं। नीतीश कुमार के एक बार फिर राष्ट्रीय जनता दल से हाथ मिलाने का विकल्प लगभग खत्म हो चुका है। राजद की कमान अब लालू यादव की बजाय तेजस्वी यादव के हाथ में है। उनकी ऐसी कोई कोशिश पार्टी में बगावत को जन्म दे सकती है।