डॉ. संतोष कुमार तिवारी।
गीता प्रेस ने यह अच्छा किया कि गांधी पुरस्कार की एक करोड़ रुपये की राशि लेने से इनकार कर दिया। गीता प्रेस की शुरू से ही यह नीति रही है कि किसी से कोई अनुदान नहीं लिया जाए। उसकी मासिक पत्रिका ‘कल्याण’ में महात्मा गांधीजी के सुझाव का पालन करते हुए कोई भी बाहरी विज्ञापन या पुस्तक समीक्षा नहीं छापी जाती है।
गीता प्रेस के गांधीजी से बहुत अच्छे संबंध थे। कल्याण में गांधीजी के लेख भी छपते रहते थे। परन्तु देश के विभाजन पर गांधीजी के रुख का गीता प्रेस ने विरोध किया था।
गीता प्रेस के विरोध में लिखी गई एक चर्चित अंग्रेजी पुस्तक में यह कहा गया गांधीजी के निधन के बाद कल्याण में कोई श्रद्धांजलि नहीं छपी थी। यह सरासर गलत है और झूठ है। गांधीजी के निधन के बाद कल्याण में तीन पेज की श्रद्धांजलि छपी थी जिसमें से एक पूरे पेज में बापू का चित्र था। उस पुस्तक में ऐसी ही अन्य कई गलत बातें भी छपी हैं।
गीता प्रेस से नेहरूजी भी प्रभावित थे
आजादी से पूर्व एक बार पंडित जवाहर लाल नेहरू गोरखपुर पधारे थे। गोरखपुर का ब्रिटिश कलेक्टर नाराज न हो जाए इस कारण कोई उनको अपनी मोटर कार देने को तैयार नहीं था। तब गीता प्रेस के सम्पादक श्री हनुमान प्रसाद पोद्दारजी ‘भाईजी’ ने उनके लिए कार की व्यवस्था कर दी थी।
स्वामी अखण्डानन्द की पुस्तक ‘पावन प्रसंग’
श्री शान्तनु विहारी द्विवेदी उन दिनों गीता प्रेस के संपादकीय बोर्ड के सदस्य थे। वह गीता प्रेस की पत्रिका ‘कल्याण’ में प्रकाशित भाईजी के लेखों से प्रभावित होकर वहाँ आए थे। और कुछ वर्ष गीता प्रेस में काम करने के बाद उन्होंने संन्यास ले लिया था। संन्यास लेने के बाद उनका नाम स्वामी अखण्डानन्द हो गया था।
स्वामी अखण्डानन्द ने अपनी पुस्तक ‘पावन प्रसंग’ में नेहरुजी के बारे में लिखा है। स्वामी अखण्डानन्दजी ने ‘आनन्द-बोध’ पत्रिका में जनवरी 1984 से नवम्बर 1987 तक कुछ लेख लिखे। उन लेखों का संग्रह बाद में ‘पावन प्रसंग’ नामक पुस्तक में प्रकाशित हुआ।
‘पावन प्रसंग’ पुस्तक का प्रथम संस्करण फरवरी 1988 में और चतुर्थ संस्करण मई 2012 में प्रकाशित हुआ। इस चतुर्थ संस्करण के पृष्ठ संख्या 270 पर उन्होंने लिखा: “फरवरी 1986 में यह संस्मरण लिखा जा रहा था, उससे लगभग 48-50 वर्ष पूर्व की बात है। उन दिनों श्री जवाहरलाल नेहरू का तेज प्रताप बढ़ रहा था। … नेहरूजी संकीर्तन महायज्ञ में आमंत्रित किए गए। (यह महायज्ञ गोरखपुर में गीता वाटिका में हो रहा था। गीता वाटिका में ही उस समय गीता प्रेस का संपादकीय कार्यालय था।) वे (नेहरूजी) यज्ञ में आए। उन्होंने यज्ञ मण्डप में भगवान को नमस्कार भी किया। उन्होंने पूछा- क्या दिन रात यह अखण्ड संकीर्तन होता रहता है? ढोलक और शंख बजते रहते हैं? उन्हें उस समय तक इन बातों से इतना परिचय नहीं था। भाईजी ने उनके सामने भारतीय भक्ति भाव और संकीर्तन की महिमा पर प्रवचन किया। नेहरूजी ने आश्चर्य चकित होकर श्रवण किया।
गीता वाटिका में देश के प्रसिद्ध सत्पुरुष समय समय पर आते रहते थे।”
नेहरू जी को मोटर कार देने पर भाईजी के यहाँ CID इनक्वायरी हुई। हालांकि बाद में कुछ हुआ नहीं। (कल्याणपथ: निर्माता और राही, लेखक भगवती प्रसाद सिंह, प्रकाशक श्री राधामधाव सेवा संस्थान गोरखपुर, प्रकाशन वर्ष 1980, पृष्ठ संख्या 156)
नेहरूजी की माताजी भी गीता प्रेस के कार्यक्रमों में आती थीं
संवत् 1986 के महाकुम्भ में त्रिवेणी तट पर गीता प्रेस की ओर से ‘गीता ज्ञान यज्ञ का विशाल आयोजन किया गया। … पं. जवाहरलालजी नेहरू की माता श्रीमती स्वरूप रानी उसमें नियमित रूप से सम्मिलित होती थीं। …
(कल्याणपथ: निर्माता और राही, पृष्ठ संख्या 144)
नेहरू सरकार भाईजी को भारतरत्न देना चाहती थी
नेहरुजी की सरकार भाईजी को भारतरत्न से अलंकृत करना चाहती थी, जिसको भाईजी ने विनम्रता के साथ अस्वीकार कर दिया था। अस्वीकार करने के बाद इस बारे में तत्कालीन गृहमंत्री श्री गोविन्द वल्लभ पंत ने पोद्दारजी को लिखा: आप इतने महान् हैं, इतने ऊंचे महामानव हैं कि भारतवर्ष क्या सारी दुनिया को इसके लिए गर्व होना चाहिए। मैं आपके स्वरूप के महत्व को न समझ कर ही आपको भारतरत्न की उपाधि देकर सम्मानित करना चाहता था। आपने उसे स्वीकार नहीं किया, यह बहुत अच्छा किया। आप इस उपाधि से बहुत बहुत ऊंचे स्तर पर हैं। मैं आपको हृदय से नमस्कार करता हूँ। (कल्याणपथ: निर्माता और राही, पृष्ठ संख्या 480)
भाईजी नहीं, गोयन्दकाजी थे गीता प्रेस के संस्थापक
बहुत से लोग ऐसा समझते हैं कि गीता प्रेस की स्थापना श्री हनुमान प्रसाद पोद्दारजी ‘भाईजी’ ने की थी। परन्तु ऐसा समझना गलत है। गीता प्रेस की स्थापना आज से एक सौ वर्ष पूर्व श्री जयदयाल गोयन्दकाजी ने वर्ष 1923 में की थी। सेठजी के नाम से विख्यात गोयन्दकाजी आत्म प्रचार से कोसों दूर रहते थे। सेठजी के ब्रह्मलीन होने पर ‘कल्याण’ के मई 1965 के अंक में प्रारम्भ में केवल एक पृष्ठ की यह सूचना छापी गई थी:
“गीता प्रेस के मूल संस्थापक, संचालक, प्राणदाता श्री श्रीजयदयालजी गोयन्दका का नाम ‘कल्याण’ के सभी पाठक भलीभाँति जानते हैं। इधर कुछ दिनों से वे बीमार थे और गत दिनांक 17 अप्रैल 1965 शनिवार को उन्हीं के द्वारा संस्थापित गीता-भवन, ऋषिकेश में पवित्र गंगा तट पर संध्या के लगभग 4 बजे उनका देहावसान हो गया। … यह हमारे लिए बहुत बड़ी हानि है और इसका भयानक दुख भी है।… ‘कल्याण’ के समस्त पाठक-पाठिकाओं से हमारा विनम्र निवेदन है कि वे श्री श्रीजयदयालजी के आत्मा के लिए किसी प्रकार का शोक प्रकाश न करके उनके बताए हुए मार्ग का अनुसरण करें, उनके भावों और विचारों का प्रचार करें और जीवन में परम लाभ प्राप्त करें।
-हनुमानप्रसाद पोद्दार”
गोयन्दकाजी के बारे में अन्य जानकारी
गोयन्दकाजी ने गीता प्रेस की स्थापना के अतिरिक्त भी सार्वजनिक हित के अनेक कार्य किए। जो पाठकगण उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में संक्षेप में और जानकारी चाहें, तो वे मेरा एक अन्य लेख पढ़ें जो कि इस URL पर उपलब्ध है:
https://apkaakhbar.in/
(लेखक सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं)