सत्यदेव त्रिपाठी ।

भगीरथ-प्रयत्न के बावजूद महाराष्ट्र से मेरी सेवाएं स्थानांतरित न हो पायीं। पुनर्ग्रहणाधिकार (लिएन) की तारीख़ (30 दिसम्बर, 2011) तक वापस पहुँचना तय (ड्यू) था। इस तरह बीजो का काशी-निवास साल भर का रहा।

 


 

इस दौरान हम काशी में जब भी घूमने निकले, वह गाड़ी में साथ होता। गोदौलिया में गंगा-आरती, सुबह के शूलटंकेश्वर, पूरे दिन सारनाथ आदि देख आये थे। बीएचयू परिसर में नये विश्वनाथ मन्दिर के आसपास तो प्रभात-भ्रमण कई बार हो जाता। काशी विद्यापीठ में तो नौकरी ही थी– एकाधिक बार बिहरना हुआ। एक दिन नौका-विहार करते हुए गंगा उस पार रामनगर की गोद में रेत पर खेल कर जुहू की याद ताज़ा कर चुके थे। अपने साथ गाँव की यात्रा करा ही चुके थे। ननिहाल न ले जा पाये, जिसकी कचोट आज साल रही है।

गंगा-स्नान तो करा दो बीजो को

जब वापस ले जाने के लिए अकुल के आने का दिन तय हो गया, तो कल्पनाजी ने मौज में कहा –‘गंगा-स्नान तो करा दो बीजो को’। मैं भी मौज में आ गया। एक दोपहर अपने घर से सर्वाधिक करीब और श्वान-स्नान हेतु किंचित् निरापद अस्सी घाट ले गया। गंगा-सफाई के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च होने के बावजूद उतनी ही गन्दी गंगा में तो शव-दाह पर भी मैं नहीं नहाता। सो, पानी में उतरना था नहीं। जिधर भी ले जाऊँ, लोग नहाते दिखें– उसमें साधुवेश वाले भी। मैं संकोच में लिये घूम ही रहा था कि एक नहाते हुए साधु ने ही हाथ से बुलाने का इशारा करते हुए पूछ दिया- ‘नहलाना है’? बस, मैंने कुदा दिया। साधु ने लोक लिया। और मल-मल कर नहलाते हुए श्लोक भी बोलता रहा– ‘गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वती, नर्मदा सिन्धु कावेरी जलेsस्मिन संन्निधिं कुरु’। इस अभिनव गंगा-स्नान को हम लतीफे की तरह लोगों को सुनाते और अंत में जोड़ देते – साधु अवश्य ही बीजो-रूप पर रीझ गया था।

लाते हुए तो देखा नहीं था, जाते हुए स्टेशन पहुँचाने गया, तो गॉर्ड की केबिन में 2×2 फिट की वह बन्द कोठरी देखी, जिसमें 30 घण्टे की यात्रा बीजो ने कैसे की होगी, अकल्पनीय लगा। बीजो के धैर्य और संतोष पर उसके सामने माथा झुक गया। मैंने पहले देखा होता, तो आने देता ही नहीं। लेकिन बीजो को अपने पास बुलाने के मेरे मोह को पूरा करने के लिए अकुल ने कैसी कठकरेजियत की पीड़ा झेली, को समझ के भी सर नीचा हो गया।

उसके चाहकों ने रूप-कुरूप का भेद नहीं किया

मैं और बीजू दो-चार दिनों आगे-पीछे ही बनारस से मुम्बई आये और अपनी-अपनी दैनन्दिनी में लग गये। मुम्बई वापसी पर घर-बाहर का बीजो-मित्र समुदाय सिहाते हुए उछाह के साथ उससे मिला– ‘अरे बीजू आ गया’ करके दौड़ते और ‘कैसा था बीजू’… करके भेंटने लगते। इसने भी सबके इस्तक़बाल को उनके आसंग के अनुसार अपनी अदा में क़बूल किया– किसी का कुछ भूला नहीं था। और यदि मेरी नौकरी का यह अंतिम चरण था, तो मोटे-मोटे तौर पर बीजो के जीवन का भी उत्तरार्ध शुरू हो रहा था। लैब्रे जाति वालों के बारे में विश्रुत है कि उनके अंतिम दिन कठिन दैहिक कष्ट में बीतते हैं। बीजो के ऐसे दिन थोड़े जल्दी ही आ गये। हालाँकि बुढ़ाई में लैब्रे नस्ल वालों के शरीर जितने भारी हो जाते हैं, बीजो का कभी उतना हुआ नहीं या हमने होने नहीं दिया। उनके जैसा अजलस्त भी नहीं हुआ कि चलना-फिरना दूभर हो जाये- रुक जाये और घर में पड़े-पड़े गन्दगी करे। अंतिम दिन तक चलता-फिरता रहा।

बनारस से आने के बाद एकाध साल में ही उसके दाहिने पट्ठे (पीछे के दाहिने पैर के बाहरी ओर घुटने के ऊपर) में एक गुमटा निकलने लगा। डॉ परमार थे हमारे पशु-परिवार के चिकित्सक (एनीमल्स फैमिली डॉक्टर)। उनकी दवा शुरू हुई, पर गुमटा कम होने का नाम न ले। कई महीने बाद दूसरे डॉक्टरों से सलाह लेने के सिलसिले में बेटे ने डॉ उमेश जाधव का चयन किया। उन्होंने भी महीनों परीक्षण-प्रयोग किया। फिर फैसला दिया- इसे ऐसे ही रहने दें। हानिरहित (हार्मलेस) है। काट के निकाला जा सकता है, पर जोख़म है। अब मानने के सिवा कोई उपाय न था। कोई दो साल रहा वह गुमटा और बढ़ते-बढ़ते आधा किलो से ज्यादा का हो गया था। चलते हुए झूलता, पाँव में लड़ता-घिसता। लेकिन हाय रे बीजो की अपरम्पार सहन-शक्ति और धीरज! वह चलता, जरूरत पड़ने पर दौड़ता। क़ुदरत ने इतना सुन्दर रूप देके भेजा था, लेकिन उसमें बट्टा लगाता चला गया। पर कहना होगा कि उसके चाहकों ने रूप-कुरूप का भेद नहीं किया, वैसा ही प्यार-दुलार देते रहे। परंतु ‘बीजो को क्या हुआ है’, ‘यह क्यों निकाला नहीं जा रहा’, बताते-समझाते थक जाना पड़ता। कुछ अज़नवी श्वान-प्रेमियों ने हमारी भर्त्सना भी की– इलाज़ नहीं कर सकते, तो रखते क्यों हैं? उन्हें लगा, हम जीव को कष्ट देके पैसे बचा रहे हैं।

‘शाबाश बीजू…’

अंत में एक दिन उसमें से मवाद बहते दिखा। डॉ. जाधव आये। देखकर कहा – अब काट के निकालना अनिवार्य है, वरना जहर फैल सकता है– पाँव से पूरी देह तक। देर करनी न थी, हम चाहते भी न थे। हम तीनो लेकर गये डॉक्टर जाधव के क्लीनिक। गुमटे के चहुँ ओर ही सुन्न किया (लोकल एनीस्थीसिया दिया) गया, वरना अनंत बेहोशी में चले जाने का ख़तरा था। डॉक्टर के दो बलिष्ठ सहयोगी भी थे। शल्य-क्रिया के मेज पर हम सबने उठा के लेटाया। गुमटे के चारों तरफ सफाई करने, बाल निकालने तक ही हमें वहाँ रहने दिया गया। उसके वीडियो भी बनाये मैंने। फिर बीजो को छोड़के बाहर जाने की पीड़ा का क्या कहें! लेकिन बीजो तो शांत सहयोग के सिवा कुछ कर ही नहीं सकता था। बाद में डॉक्टर ने भी इसकी तस्दीक दी। कल्पनाजी घर में उसे रखने-सुलाने की माकूल व्यवस्था कराने के लिए थोड़ा पहले लौट आयीं। मैं बीजो को लेकर पीछे की सीट पर बैठा। शाम का वक्त था। यातायात ठसा पड़ा था। बेटे ने इधर-उधर से मोड़-माड़ कर निकालते हुए कौशल पूर्वक गाड़ी चलायी, तब भी दस मिनट का रास्ता लगभग डेढ़ घण्टे में तय हुआ। लेकिन बीजोजी कष्ट के बावजूद मासूम बच्चे की तरह गोद में सर रखे और उदार बूढ़े की तरह बेआवाज कसमसाते पड़े रहे। 3-4 दिनों पट्टी (ड्रेसिंग) करने आते रहे कनिष्ठ (जूनियर) डॉक्टर। बिना गुमटे के बीजो को देखना पुन: प्रीतिकर लगा और इस बार ‘गुमटा निकल गया? कैसे निकला?’…आदि के उत्तर देना और इसके बाद ‘बड़ा अच्छा हुआ’, ‘शाबाश बीजू…’ आदि टिप्प्णियां सुनना खूब भला भी लगता रहा।

इतने से ही बेचारे बीजो की जान नहीं छूटी। इसी सबके बीच उसके शरीर में जिवड़े दिखने लगे थे। पहले तो यह सोचकर कि कहीं से छूत लगी होगी, जिससे आये होंगे और बढ़ गये होंगे, उन्मूलन के आम-ख़ास सारे उपाय हुए– जीव-नाशक शैम्पू, छिड़कने व लेप करने की दवाएं। समुद्र के पानी में मैं देर-देर तक बिठाता, ताकि खारे पानी में अकुला के मरें– दो-चार उतराते भी थे मरके। नीम का तेल पोतके धूप में बिठा देने जैसे गँवईं इलाज भी किये। बार-बार बाल भी काट देते कि उन्हें छिपने की जगह न रहे। इसके चलते बीजो के बाल भी उतने घउलर (गझिन-लम्बे-बिखरे) नहीं हो पाते, जितने आम तौर पर लैब्रे वालों के हो जाते हैं। लेकिन इतना सु-दर्शन बीजो प्राय: जड़ से कटे बालों में और भी अजीब दिखता। वही बीजो है, पहचान में न आता। पर नियति के सामने क्या करते! बाल काटने के काम में सर्वाधिक सक्रिय-सन्नद्ध कल्पनाजी होतीं– यहाँ तक कि बहुत बार ख़ुद भी काटतीं। काटने के तरह-तरह के औज़ार लाके रख लिये। और बीजो बेचारा अपनी आज्ञाकारिता में इस समर्पण भाव से कटवाता कि ‘बाल काट लो या देह, चूँ न करूँगा मैं’। उसे राहत भी होती। फिर बाल बढ़ते भी जल्दी– लैब्रे-प्रकृति।


हॉय बीजो, श्वान-तन में संत थे तुम-1