प्रदीप सिंह।
एक ऐसी शख्सियत जिसके बारे में आज तक हम सब लोगों को भ्रम बना हुआ है कि वह भारतीय अर्थव्यवस्था का नायक है, जबकि असल में वह खलनायक था और अर्थव्यवस्था की बर्बादी के लिए जिम्मेदार था। हम लोग समझते रहे कि उसने भारतीय अर्थव्यवस्था को संकट से उबारने का काम किया। आजादी के बाद जिस तरह से भारतीय अर्थव्यवस्था की दुर्गति हुई और 1991 में जब हमने आर्थिक सुधारों को लागू किया तब तक कि कहानी सुनेंगे तो आपको समझ में आएगा कि दरअसल हुआ क्या था। पिछले दिनों मैंने एक वीडियो देखा जिसके बारे में अभिषेक बनर्जी ने विस्तार से चर्चा की है। उसी वीडियो से कुछ चीजें मैंने भी ली है लेकिन यह तथ्यात्मक रूप से सही है। किसी की राय, विचार, विद्वेष या किसी और वजह से यह बात नहीं बताई जा रही है।
तथ्यों के मुताबिक, 1947 में जब भारत आजाद हुआ तो दुनिया की जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का जो प्रति व्यक्ति औसत था और जो भारत के हिस्से में आता था वह 18 फीसदी था। इसका मतलब यह हुआ कि दुनिया के लोगों की आमदनी प्रति व्यक्ति अगर 1 डॉलर थी तो भारत के लोग 18 सेंट कमाते थे। वहां से 1991 तक का सफर आप देखिए तो 1960 तक यह घटता रहा। 1991 में जब हमने आर्थिक सुधार लागू किए तो यह 6 फीसदी पर था यानी दुनिया में लोग 1 डॉलर कमा रहे थे तो भारतीय 6 सेंट कमा रहे थे। यह नेहरूवादी समाजवाद की आर्थिक व्यवस्था की देन थी। आर्थिक सुधारों को लागू करने के बाद अलग-अलग सरकारों ने जो कदम उठाए उससे 2014 में यह 14 फीसदी पर आया और आज हम 18 फीसदी पर हैं यानी हम आज वहां हैं जहां हम 1960 में थे। 1947 से लेकर नेहरूवादी समाजवाद ने, इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ ने और राजीव गांधी की सरकारों ने जो गड्ढा खोदा उसको भरते-भरते 75 साल लग गए। आप इस बात को समझिए कि किस तरह से देश की अर्थव्यवस्था को बर्बाद किया गया और इसमें एक व्यक्ति स्थायी था।
मनमोहन सिंह हैं वह खलनायक
प्रधानमंत्री के पद पर जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, लाल बहादुर शास्त्री, राजीव गांधी, नरसिम्हा राव आसीन होते रहे लेकिन एक व्यक्ति जिसको मैं खलनायक बता रहा हूं और जिसे नायक समझा जाता है वह हैं डॉ. मनमोहन सिंह। उनका करियर ग्राफ अगर आप देखेंगे तो आपको समझ में आ जाएगा। विभिन्न सरकारों के साथ जो नेहरूवादी समाजवाद की आर्थिक नीति थी उसके कर्णधारों में अगर गिनती होगी तो डॉ. मनमोहन सिंह की होगी। 1966 से 1969 तक अंकटाड (यूएन की संस्था) में रहे। 1969 में वहां से लौटे तो ललित नारायण मिश्रा ने उनको व्यापार मंत्रालय में सलाहकार बना दिया। भारत सरकार में यहां से उनकी यात्रा शुरू होती है। 1972 में उन्हें वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार बनाया गया और 1976 में वित्त सचिव बन गए। मुख्य आर्थिक सलाहकार के रूप में उन्होंने एक बड़ी नायाब योजना लागू की थी जिसका इनाम उन्हें वित्त सचिव के रूप में मिला। अर्थव्यवस्था की हालत लगातार खराब होती जा रही थी, विकास योजनाओं के लिए पैसा नहीं था। पैसा कैसे जुटाया जाए, कहां से लाया जाए, तो इसका बोझ डाला गया आम आदमी पर।
1974 में लागू की कम्पल्सरी डिपॉजिट स्कीम
एक नई योजना शुरू की गई जिसको कम्पल्सरी डिपॉजिट स्कीम कहा गया। यह स्कीम लागू हुई 1974 में। 17 जुलाई 1974 को राष्ट्रपति ने अध्यादेश जारी किया और इसे नाम दिया गया कम्पल्सरी डिपॉजिट स्कीम इनकम टैक्स पेयर्स ऑर्डिनेंस। 15 नवंबर 1974 से यह स्कीम लागू हो गई। इस योजना के तहत यह अनिवार्य कर दिया गया कि 15-25 हजार रुपये तक कि आमदनी वालों को अपनी आमदनी का 4 फीसदी इस स्कीम में लगातार 2 साल तक हर महीने जमा करना होगा। 25-70 हजार रुपये तक की आमदनी वालों को 6 फीसदी सहित 1000 रुपये अतिरिक्त जमा कराना होगा। 70 हजार रुपये से ऊपर की आमदनी वालों के लिए 8 फीसदी और 3700 रुपये जमा करना होगा। यह पैसा सरकारी बैंकों में जमा होगा और 2 साल बाद पांच सामान किस्तों में सामान्य ब्याज दर पर आपको वापस मिलेगा। इस पर चक्रवृद्धि ब्याज नहीं मिलेगा। आप जरा कल्पना कीजिए कि आज की सरकार अगर इस तरह की स्कीम लाने की घोषणा करे तो उसका नतीजा क्या होगा, पूरे देश में हाहाकार मच जाएगा। वैसे इस तरह की स्कीम 1963 में भी लाने की कोशिश की गई थी लेकिन यह पता नहीं चल सका कि वह स्कीम लागू हुई थी या नहीं। उसमें तो जिनके पास जमीन है और जो मालगुजारी देते हैं उनको भी जमा करना था। खेती के अलावा किसानों की अगर कोई और आमदनी है या इनकम टैक्स देते हैं तो उनको भी जमा करने का प्रावधान था। इसके अलावा हाउस टैक्स, प्रॉपर्टी टैक्स देने वालों और सरकारी व निजी सभी कंपनियों के कर्मचारियों को जमा कराना था। मैंने यह बहुत खोजने की कोशिश की कि वह स्कीम लागू हुई थी या नहीं लेकिन इसका कोई प्रमाण नहीं मिला। इसलिए इसके बारे में कुछ नहीं कहूंगा।
महत्वपूर्ण पदों पर लगातार काबिज रहे
मगर 1974 में जो स्कीम डॉ. मनमोहन सिंह लेकर आए वह लागू हुई थी। 1976 में उन्हें इस स्कीम को लागू करने का इनाम मिला और वित्त सचिव बनाए गए। अब आप देखिए कि कैसे वह सीढ़ियां चढ़ते गए। 1976 से 1980 तक वह वित्त सचिव रहे। 1980 से 1982 तक योजना आयोग के सदस्य रहे। 1982 में उनको भारतीय रिजर्व बैंक का गवर्नर बना दिया गया। गवर्नर का 3 साल का कार्यकाल समाप्त होने के बाद 1985 में उन्हें योजना आयोग का उपाध्यक्ष बना दिया गया। उसके बाद उन्हें जेनेवा के एक थिंक टैंक का महासचिव बनाकर भेजा गया। वहां वह 1987 से 1989 तक रहे। 1990 में वह भारत आते हैं और प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार बन जाते हैं। उस समय चंद्रशेखर प्रधानमंत्री थे। यह कोई इत्तेफाक या संयोग नहीं हो सकता, किसी न किसी बड़ी योजना का निश्चित रूप से हिस्सा था। आईएमएफ और विश्व बैंक सक्रिय हो चुके थे। भारत की अर्थव्यवस्था की हालत खराब हो चुकी थी। भारत को कर्ज की जरूरत थी और भुगतान करने के लिए सिर्फ 15 दिन की विदेशी मुद्रा बची हुई थी। भारत को 7 अरब डॉलर का कर्ज चाहिए था। आईएमएफ और विश्व बैंक से प्रस्ताव आया जिसकी जानकारी मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री चंद्रशेखर को नहीं दी लेकिन जाते-जाते उनसे अपने लिए नई नौकरी का इंतजाम करवा लिया और यूजीसी के चेयरमैन बन गए। 75 साल के इतिहास में आपको ऐसा कोई नौकरशाह नहीं मिलेगा जो लगातार एक के बाद एक महत्वपूर्ण पद पाता गया हो।
महंगाई दर 1974 में 28 फीसदी थी
1974 की बात करना फिर से जरूरी है। 1974 में महंगाई की स्थिति विकराल हो गई थी। महंगाई 28 फीसदी पर पहुंच गई थी। आज जो लोग भारत के सबसे तेज अर्थव्यवस्था होने के बावजूद नरेंद्र मोदी पर सवाल उठाते हैं, उनकी सरकार की आर्थिक नीतियों पर सवाल उठाते हैं उनको जरा याद कर लेना चाहिए कि 1974 में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं जो देश की सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री मानी जाती थी, उस समय देश की विकास की दर सिर्फ 1 फीसदी थी। 1975 तो आपको याद ही होगा जब इमरजेंसी लगी। हम सब जानते हैं कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इंदिरा गांधी को अयोग्य घोषित करने का फैसला दिया जिसके बाद उन्होंने इमरजेंसी लगाई थी। यह तो निश्चित रूप से एक कारण था ही लेकिन दूसरा कारण भी था जिसको छुपाया गया। उस समय कांग्रेस के तमाम वरिष्ठ नेताओं ने उनको सलाह दी कि आप लोकसभा भंग कर फिर से चुनाव करा लीजिए आप जीत कर आ जाएंगी। मगर इंदिरा गांधी जानती थी कि ऐसा नहीं होने वाला है। अगर 1975 में वह चुनाव करातीं तो लोग सड़कों पर उतर आते। जिस हालत में महंगाई और देश की अर्थव्यवस्था थी उसमें नियंत्रित करना बहुत मुश्किल था। इमरजेंसी लगाने का यह भी एक बड़ा कारण था जिसके बारे में आज तक बताया नहीं गया।
अर्थव्यवस्था को मनमोहन सिंह ने डुबोया
जब देश की अर्थव्यवस्था 1 फीसदी की दर से बढ़ रही थी और महंगाई 28-29 फीसदी थी तब डॉ. मनमोहन सिंह मुख्य आर्थिक सलाहकार थे। मुख्य आर्थिक सलाहकार की क्या भूमिका होती है यह बताने की आपको जरूरत नहीं है। डॉ. मनमोहन सिंह ने देश की अर्थव्यवस्था को डुबोया। नेहरूवादी समाजवाद और उसके बाद इंदिरा गांधी की नीतियों ने इस देश का जितना नुकसान किया उतना कोई सरकार नहीं कर सकती। 1990 में चंद्रशेखर की सरकार थी तो ऐसा माहौल बनाया गया कि वह 4 महीने के लिए प्रधानमंत्री बने और उसी में सब गड़बड़ हो गया। उस समय हमारे पास सिर्फ 15 दिन की विदेशी मुद्री थी। उस समय भारत दिवालिया होने वाला था। उस समय हम आईएमएफ और विश्व बैंक से सिर्फ 7 अरब डॉलर का कर्ज मांग रहे थे और आज 600 अरब डॉलर ज्यादा का हमारा विदेशी मुद्रा भंडार है। उस 7 अरब डॉलर के लिए आईएमएफ ने जो-जो शर्तें रखी वह हमें माननी पड़ी। उस समय टाइम्स ऑफ इंडिया में आरके लक्ष्मण का एक कार्टून छपा था। अभिषेक बनर्जी ने उसका भी जिक्र किया है। उस कार्टून में दिखाया गया कि आईएमएफ के दफ्तर से मनमोहन सिंह और पीवी नरसिम्हा राव निकल रहे हैं और आपस में बात कर रहे हैं कि बाहर लोगों से कह देंगे कि हमने अपना हाथ खुद ही मरोड़ लिया है। कार्टून में मनमोहन सिंह का एक हाथ पीछे मुड़ा हुआ और पीछे आईएमएफ के चेयरमैन को दिखाया गया जो मुस्कुरा रहा है।
आर्थिक सुधार आईएमएफ और विश्व बैंक की शर्तों पर हुए
भारत ने आईएमएफ और विश्व बैंक की शर्तों पर डॉटेड लाइन पर हस्ताक्षर किया। उसमें मनमोहन सिंह और पीवी नरसिम्हा राव का कोई योगदान नहीं था। जो आर्थिक सुधार हुए वह आईएमएफ और विश्व बैंक की शर्तों पर हुए। अगर शर्त नहीं मानते तो 7 अरब डॉलर का कर्ज नहीं मिलता और भारत दिवालिया हो जाता है। उसमें मनमोहन सिंह की कोई कारीगरी नहीं थी जिनको भारत के आर्थिक सुधारों का जनक माना जाता है कि उन्होंने देश की अर्थव्यवस्था बदल दी। ऐसा क्या हो गया कि नेहरूवादी समाजवाद के पक्के अनुयायी डॉ. मनमोहन सिंह अचानक से पूंजीवाद के समर्थक हो गए और रातों-रात हो गए। यह समझने की जरूरत है कि देश की अर्थव्यवस्था की जो दुर्गति 1991 तक रही उसमें अगर एक व्यक्ति स्थायी रूप से लगातार आपको दिखाई देगा तो वह हैं डॉ. मनमोहन सिंह। दूसरे किरदार बदलते रहे लेकिन मनमोहन सिंह का किरदार आपको हर कार्यकाल में दिखेगा। हम मानते हैं कि डॉ. मनमोहन सिंह ने देश को सबसे बड़े आर्थिक संकट से उबार लिया। आप अंदाजा लगाइए कि किस तरह से नैरेटिव बनाया जाता है। जो सच है उसको छुपाया जाता है और जो सच नहीं है उसको कैसे किस रूप में पेश किया जाता है। देश की अर्थव्यवस्था की दुर्गति का जिसको जिम्मेदार माना जाना चाहिए उसको अर्थव्यवस्था को उबारने का सेहरा पहनाया गया।
अर्थव्यवस्था उबारने में मनमोहन सिंह की कोई कारीगरी नहीं रही
देश की अर्थव्यवस्था लगातार बर्बाद होती रही और दो लोग बढ़ते रहे, डॉ. मनमोहन सिंह और कांग्रेस पार्टी। दोनों देश की अर्थव्यवस्था को गड्ढे में धकेलते रहे और लोगों के सामने इस तरह से पेश किया कि लोग उनकी बातों में आकर वोट देते रहे। यह होती है नैरेटिव की ताकत। यह होता है कि आप अपना पक्ष किस तरह से पेश करते हैं। यह होता है कि आप सच को किस तरह से दबाने में कामयाब होते हैं। यह होता है कि आप किस तरह से झूठे सपने दिखाते हैं, आप किस तरह से सच्चाई को दबा कर रखते हैं। केवल इतना नहीं कि सच्चाई को दबा दिया गया, बल्कि जो वास्तविकता थी उससे ठीक उल्टी तस्वीर पेश की गई और हम आप सब लोग इसको मानते रहे और आज भी मानते हैं कि अगर डॉ. मनमोहन सिंह नहीं होते तो भारत की अर्थव्यवस्था 1991 में डूब गई होती। हमारा देश दिवालिया हो गया होता। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि इन सब के लिए सिर्फ मनमोहन सिंह जिम्मेदार थे लेकिन इसमें उनकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका थी। उनको जिन लोगों ने बनाया, जिन लोगों ने बढ़ाया उनकी उनसे बड़ी भूमिका थी। कांग्रेस पार्टी यह जो दावा करती है कि अर्थव्यवस्था को हमने ही संभाला, अर्थव्यवस्था को हमने ही ठीक किया, देश को प्रगति के पथ पर तो हम ही ले गए, देश का विकास ही नहीं होता अगर कांग्रेस पार्टी न होती। नेहरू की जो मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति थी उसकी वजह से देश में इतनी तरक्की हुई।
घोटालों की सरकार के मुखिया को माना जाता है ईमानदार
उस समय देश में जो लाइसेंस परमिट का राज था मनमोहन सिंह उसके संरक्षक रहे हैं। उसको खत्म करने की आईएमएफ और विश्व बैंक की ओर से जो शर्त रखी गई उसको भी लागू करने वाले वही रहे। डॉ. मनमोहन सिंह का कोई सैद्धांतिक कमिटमेंट नहीं था और लेकिन उनको लगातार पुरस्कार मिलता रहा। 1991 का पुरस्कार उनको यह मिला कि वित्त मंत्री के बाद प्रधानमंत्री बने और 10 साल तक प्रधानमंत्री रहे। उनके प्रधानमंत्री रहते देश ने घोटालों का ऐसा दौर देखा जिसकी कोई मिसाल नहीं दी जा सकती। 1.8 अरब डॉलर का शेयर घोटाला उनके कार्यकाल में हुआ। शेयर मार्केट में गड़बड़ी को लेकर जब संसद में सवाल उठाए गए तो उन्होंने कहा कि मैं शेयर मार्केट की गतिविधियों को लेकर अपनी नींद खराब नहीं करता। जबकि पूरे देश की नींद खराब हो गई और हजारों लोग बर्बाद हो गए लेकिन मनमोहन सिंह पर कोई आंच नहीं। उसकी कोई जिम्मेदारी, कोई जवाबदेही उन पर नहीं आई। कोयला घोटाला, 2जी घोटाला, कॉमनवेल्थ घोटाला, अंतरिक्ष घोटाला, विमान खरीद घोटाला, घोटाले ही घोटाले। हालत यह हो गई थी कि इतने बड़े घोटालों की सरकार का मुखिया आज भी सबसे ईमानदार माना जाता। मैं फिर कह रहा हूं कि यह है नैरेटिव की ताकत। अगर मनमोहन सिंह को ईमानदारी का तमगा देना है तो यह मानना पड़ेगा कि उनके कार्यकाल में जितना भ्रष्टाचार हो रहा था, जितने घपले घोटाले हो रहे थे उनमें उनकी भूमिका तो थी ही नहीं, उनको कोई जानकारी भी नहीं थी। मगर किसी के खिलाफ कोई एक्शन तो नहीं लिया। आप कह सकते हैं कि एक्शन लेने की उनकी ताकत नहीं थी लेकिन उनके पास इस्तीफा देने की तो ताकत थी, उसका तो अधिकार था। एक ईमानदार आदमी बेईमानी के इतने बड़े महासागर में कैसे आराम से रह सकता है लेकिन डॉ. मनमोहन सिंह रहे।
आज तक उन्होंने इस पर कभी अफसोस जाहिर नहीं किया। आज तक उन्होंने इस बात को लेकर कोई खेद नहीं जताया कि उनके प्रधानमंत्री रहते हुए देश में इतने घोटाले हुए, बल्कि समय पड़ने पर हर बार घोटालेबाजों का बचाव भी किया और घोटालों का भी। इसलिए मैं कहता हूं कि नैरेटिव की ताकत को समझिए। यह झूठ को सच और सच को झूठ बना देता है और झूठ को इस तरह से पेश करता है कि हमें लगता है कि इसके अलावा सच कुछ और हो ही नहीं सकता, यह अंतिम सत्य है। इसलिए अपने आंख, कान और दिमाग खुले रखिए और देखिए कि क्या हो रहा है।
लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ न्यूज पोर्टल एवं यूट्यूब चैनल के संपादक हैं ।