डॉ. संतोष कुमार तिवारी।
एक हैं डॉ. बसंती लाल बाबेल। लावा सरदारगढ़ राजस्थान में अब रहते हैं। राजस्थान के जिला एवं सत्र न्यायाधीश तथा उपसचिव (गृह एवं विधि) के पद से रिटायर हुए हैं। उनका एक लेख ‘अणुव्रत’ पत्रिका नई दिल्ली के जुलाई अंक में प्रकाशित हुआ। लेख का शीर्षक है: ‘पशु भी हैं न्याय के हकदार’। मुझे उनका लेख बहुत पसन्द आया तो मैंने उनका कांटैक्ट नम्बर पता किया और उनसे फोन पर बात की। उस लेख को मैं जैसे का तैसा यहां प्रस्तुत कर रहा हूं। और लेख के अन्त में मेरी उनसे हुई छोटी सी बातचीत का जिक्र है। उनका लेख इस प्रकार है:
पशुओं की भाषा को हम भले ही समझ नहीं पाते, मगर उनमें भी जीवन होता है। वे संवेदनशील होते हैं। उन्हें भी पीड़ा एवं दर्द की अनुभूति होती है। कुछ पशु दुधारू होते हैं जिन पर समाज पलता है लेकिन विडंबना है कि कानून में पशुओं के जीवन को महत्व नहीं दिया गया है।
ऐसा ही एक प्रसंग कोटा का है जब मैं वहाँ न्यायिक मजिस्ट्रेट था। मेरे सामने एक ऐसा मामला आया जिसमें एक ट्रक चालक ने वाहन को लापरवाही, उतावलेपन एवं तेज रफ्तार से चलाकर एक साथ आठ भैंसों को मार डाला था। ये भैंसें जंगल में चरने गयी थीं। अकस्मात् कुछ भैंसें सड़क पर आ गयीं। तभी एक ट्रक लापरवाही एवं तेज रफ्तार से आया और उसने एक-एक करके आठ भैंसों को मार डाला। इस पर भी ट्रक वहाँ रुका नहीं, बल्कि कुछ दूर आगे जाकर राहगीरों द्वारा रोका गया।
चालक के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता की धारा 279 के अंतर्गत मुकदमा चला। धारा 279 में यह प्रावधान है कि सार्वजनिक मार्ग पर वाहन को ऐसी लापरवाही, उतावलेपन एवं तेज रफ्तार से चलाना जिससे मानव जीवन संकट में पड़ जाये, अपराध है। इसके लिए 6 माह तक के कारावास एवं 1000 रुपये तक के जुर्माने का प्रावधान है।
जब मामला निर्णय की स्टेज पर आया तो दोनों पक्षों की बहस सुनी गयी। अभियुक्त के अधिवक्ता का एक ही तर्क था कि अभियुक्त ने कोई अपराध नहीं किया है क्योंकि धारा 279 के अंतर्गत अपराध तभी बनता है जब लापरवाही एवं उतावलेपन से वाहन चलाने से मानव जीवन संकट में पड़ जाये। यहाँ तो भैंसें थीं, मानव था ही नहीं।
यह तर्क सुनकर मैं आश्चर्य एवं विस्मय में पड़ गया। हृदय द्रवित हो गया। सोचा, आठ भैंसें मर जाने पर भी क्या कोई अपराध नहीं हुआ? रात भर सोया नहीं। मन बेचैन रहा। कानून को कोसता रहा। कैसी विडंबना है कि धारा 279 में केवल मानव जीवन को महत्व दिया गया है, पशु जीवन को नहीं। मन नहीं माना कि अभियुक्त (मुलजिम) को बरी कर दिया जाये। मैंने उसे 6 माह के कारावास की सजा सुना दी। अधिवक्ताओं में हलचल मच गयी क्योंकि यह एक अलग ही तरह का फैसला था।
मैंने अपने फैसले में लिखा – आठ भैंसें मरने पर तो शायद रेलगाड़ी की गति भी धीमी हो जाती, लेकिन उस वाहन की गति धीमी नहीं हुई और वह काफी आगे जाकर रुका। रुका नहीं, बल्कि रोका गया। यह विडंबना है कि कानून में पशुओं के जीवन को महत्व नहीं दिया गया है।
जिन दुधारू भैंसों के ऊपर समाज पलता है, उनका कानून में कोई महत्व नहीं है।
यह तो साबित है कि वाहन लापरवाही, उतावलेपन एवं तेज रफ्तार से चलाया जा रहा था। तभी आठ भैंसें एक-एक करके एक साथ मर गयीं। भैंस एक भारी-भरकम शरीर वाला काले रंग का पशु है। चालक को ऐसी भैंस नहीं दिखी तो उसे मनुष्य क्या दिखता? यदि मार्ग पर मनुष्य होता तो वह अवश्य ही मरता। अतः मानव जीवन संकट में तो पड़ ही गया था। चालक इतना निर्दयी है कि उसने वाहन को रोकना तक उचित नहीं समझा और वह चलता रहा। इस दुर्घटना में भैंसें नहीं मरी हैं, भैंसों के सहारे पलने वाला परिवार मर गया है।
यह एक हृदय विदारक मामला था। मैंने यह साबित करने का प्रयास किया कि पशु भी न्याय पाने के हकदार हैं। मेरे निर्णय को सत्र न्यायलय में चुनौती दी गयी, जहाँ न्यायाधीश ने मेरे निर्णय को यथावत रखते हुए अपील खारिज कर दी।
डॉ. बाबेल से हुई मेरी छोटी सी बातचीत
मैंने उनसे पूछा – क्या उस ड्राइवर ने सत्र न्यायाधीश के फैसले को हाई कोर्ट में चुनौती नहीं दी?
डॉ. बाबेल – नहीं उसने ऐसा नहीं किया और पूरी सजा भुगती।
मैंने पूछा – पशुओं के अधिकार के पक्ष में यह फैसला कब दिया था?
डॉ. बाबेल – सन् 1983-84 की बात है।
मैंने पूछा – अब आपकी उम्र क्या है?
डॉ. बाबेल – 81 वर्ष।
उपर्युक्त ‘अणुव्रत’ मासिक पत्रिका का प्रकाशन अणुव्रत विश्व भारती सोसायटी, नई दिल्ली करती है।
(लेखक सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर हैं।)