प्रदीप सिंह ।
कांग्रेस आजकल आपको चौंकाती रहती है। जब लगता है कि अब बस पार्टी इससे नीचे कहां जाएगी? तो कांग्रेस बताती है कि अभी नीचे जाने की और जगह है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद कह रहे हैं कि फाइव स्टार होटलों में बैठकर नहीं जीते जाते हैं चुनाव। तो सलमान खुर्शीद कह रहे हैं कि जिन्हें सोनिया और राहुल गांधी के लिए समर्थन नहीं दिखता वे अंधे हैं।
अंधे-बहरों की सभा
कुल मिलाकर कांग्रेस पार्टी अंधे-बहरों की सभा में तब्दील होती जा रही है। पार्टियां आगे तभी बढ़ती हैं जब वे मतदाता की मुनादी सुनती हैं और जमीनी हकीकत को खुली आंखों से देखती हैं। कांग्रेस पार्टी यह दोनों काम नहीं कर रही। अगर वह देखती तो उसे दिखता कि डेढ़ साल में मध्य प्रदेश में जीती हुई सीटें क्यों हार गई। उसे दिखता कि राजनीति प्रियंका गांधी वाड्रा के बस की बात नहीं है। उनकी राजनीति से उनके दो करीबी साथी जेल की हवा खाकर आ गए और उपचुनाव की सात सीटों में से चार पर कांग्रेस की जमानत जब्त हो गई। चुनाव में हार जीत संसदीय जनतंत्र के जीवन का हिस्सा है। पर जमानत जब्त की यह संख्या बताती है कि इस जीवन के सांसों की डोर टूट रही है।
बड़े प्रदेशों में कांग्रेस
देश के बड़े प्रदेशों में कांग्रेस की हालत देखिए। उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल में वह चौथे नम्बर की पार्टी है। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, त्रिपुरा और ओडीशा में वह हाशिए पर चली गई है। इन प्रदेशों में लोकसभा की 311 सीटें हैं। अगले लोकसभा चुनाव में इनमें से कांग्रेस दहाई के आंकड़े तक पहुंच जाय तो गनीमत समझिए। असम को छोड़कर पूरे पूर्वोत्तर में उसकी स्थिति दयनीय है। जिन राज्यों में उसका संगठन और जनाधार बचा है उनमें गुजरात, राजस्थान, पंजाब, मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड से उसे पिछले लोकसभा चुनाव में कुल 113 सीटों में से दस सीटें मिली थीं। उनमें भी नौ सीटें अकेले पंजाब से आई थीं।
गांधी परिवार की वोट दिलाने की क्षमता
इन आंकड़ों की जानकारी तो आपके पास पहले से होगी। इन्हें बताने का मकसद सिर्फ फिर से याद दिलाना है। क्योंकि इन आंकड़ों को कांग्रेसियों को रोज सुबह शाम याद करना चाहिए। किसी भी राष्ट्रीय पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की लोकप्रियता या वोट दिलाने की क्षमता की परीक्षा लोकसभा चुनाव में ही होती है। लोकसभा चुनाव के नतीजे चीख चीख कर कह रहे हैं कि कांग्रेस नेतृत्व या गांधी परिवार की वोट दिलाने की क्षमता पेंदी में पहुंच गई है। कांग्रेस और कांग्रेसियों के लिए यह चिंता की बात है।
इससे भी ज्यादा चिंता की बात सलमान खुर्शीद जैसे सावन के अंधों के बयान हैं। जिन्हें देश में सोनिया और राहुल के लिए समर्थन नजर आ रहा है। ऐसे नेताओं की दूर की ही नहीं पास की दृष्टि भी कमजोर है। उन्हें दिख ही नहीं रहा कि कांग्रेस के प्रथम राजनीतिक परिवार के प्रति मतदाताओं में ही नहीं कांग्रेस के अंदर भी समर्थन घटता जा रहा है। पिछले एक साल से सोनिया गांधी राहुल गांधी को फिर से अध्यक्ष बनाने की कोशिश कर रही हैं लेकिन बना नहीं पा रहीं।
बीच चुनाव प्रचार छुट्टी मनाने चले
कांग्रेस की हालत यह है कि मतदाताओं के बाद अब उसके साथी दल उसे अविश्वास की नजर से देख रहे हैं। बिहार में महागठबंधन की हार के बाद राष्ट्रीय जनता दल के नेता शिवानंद तिवारी ने राहुल गांधी के बारे में जो कहा वह कांग्रेस को बुरा भले लगा हो लेकिन गलत नहीं है। मैंने अपने करीब चार दशक के पत्रकारीय जीवन में कभी देखा न सुना कि चुनाव प्रचार के बीच में पार्टी का शीर्ष नेता छुट्टी मनाने चला जाय। यह कमाल राहुल गांधी ही कर सकते हैं। ऐसा नेता मतदाता तो छोड़िए पार्टी कार्यकर्ता को भी कैसे प्रोत्साहित कर सकता है। पार्टी की हालत देखिए कि बिहार चुनाव के लिए स्टार कैम्पेनर की सूची में प्रियंका का नाम तीसरे नम्बर था लेकिन वे एक दिन के लिए भी बिहार नहीं गईं। सोनिया गांधी तो खैर स्वास्थ्य की वजह से नहीं गईं। बाकी वरिष्ठ नेता राहुल गांधी के निशाने पर हैं और जो राहुल के साथ हैं उनकी जनता में कोई पूछ नहीं है।
भाजपा की मेहनत
इसके बरक्स दूसरे राष्ट्रीय दल भारतीय जनता पार्टी को देखिए। बिहार चुनाव खत्म नहीं हुआ कि अमित शाह पश्चिम बंगाल के दौर पर पहुंच गए। फिर तमिलनाडु चले गए और अन्ना द्रमुक से विधानसभा चुनाव साथ लड़ने का समझौता कर लिया। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा चार महीने के लिए पूरे देश के दौरे पर जा रहे हैं। मालूम है क्यों? साल 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी के लिए। नड्डा का उन इलाकों पर खास ध्यान होगा जहां पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। कांग्रेस अगले लोकसभा चुनाव को छोड़िए चार पांच महीने में होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के बारे में भी सोचती हुई नहीं दिखती। दोनों दलों की कार्य संस्कृति ही एक को ऊपर ले जा रही है और दूसरे को चुनाव दर चुनाव नीचे। सत्तर साल के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बिहार चुनाव में एक दिन में चार रैलियां करते हैं और उनसे बीस साल छोटे राहुल गांधी पूरे चुनाव में चार छह रैलियां करते हैं। देश का युवा मोदी का साथ छोड़ने को तैयार नहीं और राहुल के साथ आने को राजी नहीं है।
अनारकली जैसी हो गई कांग्रेस की हालत
कांग्रेस के लोगों का एक ही रोना रहता है कि गांधी परिवार के बिना कांग्रेस नहीं चल सकती। अब देश का मतदाता बता रहा है कि गांधी परिवार के साथ कांग्रेस को हम नहीं चलने देंगे। कांग्रेसी गांधी परिवार को छोड़ नहीं पा रहे हैं। और गांधी परिवार मतदाता को पकड़ नहीं पा रहा। इसलिए कांग्रेस की हालत अनारकली जैसी हो गई है। सलीम मरने नहीं देता और जिल्ले सुभानी जीने नहीं देते। भाजपा को चुनौती देने वाले एक राष्ट्रीय विकल्प का होना संसदीय जनतंत्र के लिए जरूरी है। कांग्रेस उस जिम्मेदारी को निभाने में असमर्थ है। वह राष्ट्रीय पार्टी से मल्टी स्टेट पार्टी रह गई है। क्षेत्रीय दलों के नेताओं के अपने ईगो हैं, जो उन्हें साथ आने नहीं देते। इसलिए वे विधानसभा चुनाव में तो भाजपा को चुनौती दे सकते हैं लेकिन राष्ट्रीय स्तर उनके हाथ नाकामी ही लगती है।
इसलिए जो मानते हैं कि भाजपा का विकल्प होना चाहिए उन्हें कांग्रेस से उम्मीद छोड़ देना चाहिए और किसी नये विकल्प के बारे में विचार करना चाहिए। पुराने जनता दल को पुनर्जीवित करना एक आइडिया हो सकता है। लेकिन यह काम मेंढ़क तौलने से कम नहीं होगा। फिर भी विचार करने में क्या हर्ज है। इस पर अगले सप्ताह बात करेंगे।