अनिल सिंह ।
कोविड 19 का दौर चल रहा है। घर में अकेले पड़े पड़े अपने भीतर कुछ खरमंडल चलता ही रहता है। रोजमर्रा की चीजें तो आई गई हो जाती हैं, लेकिन समस्या जब बड़ी हो तो रास्ता ही नहीं सूझता। दिक्कत यह है कि भीतर दिमाग और दिल दोनों हैं। दिमाग एक तरफ खींचता है तो दिल दूसरी तरफ। कुछ लोग या तो दिमाग के दरवाजे बंद कर लेते हैं या फिर दिल के। उन्हें तो उत्तर तुरंत मिल जाता है। लेकिन मुझे अधिकतर दोनों में तालमेल बैठाए बिना चैन नहीं मिलता, जीना हराम हो जाता है। 68 वर्ष की इस उम्र में दिल की बात मान लेनी चाहिए लेकिन ऐसा कर नहीं पाता।
ईश्वर है या नहीं
समस्या यह है कि ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं, और यदि है तो उसका ठीक ठीक अर्थ क्या है? धर्मपरायण व्यक्ति ईश्वर को एक ऐसी स्वतंत्र एवं वस्तुपरक सत्ता मानते हैं जो सर्वशक्तिमान, असीम तथा सभी दृष्टियों से पूर्ण है और सृष्टि का रचयिता एवं संचालक है। किंतु यदि मनुष्य अपने अनुभव और अपनी तर्क बुद्धि द्वारा ईश्वरीय सत्ता का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता तो हम किस आधार पर यह कह सकते हैं कि ईश्वर का अस्तित्व है? संभवतः इसी कठिनाई के कारण अधिकतर धर्म परायण लोग ईश्वर के सगुण और साकार रूप की उपासना करते हैं।
किंतु मेरे जैसे लोगों के दिमाग को चाहिए प्रमाण और दिल को चाहिए आस्था। तो फिर इन दोनों पर चर्चा कर लेते हैं-
ईश्वरीय सत्ता के समर्थन में दार्शनिकों द्वारा दिए गए सभी प्रमाण दूसरे दार्शनिकों द्वारा तार्किक दृष्टि से दोषपूर्ण ही सिद्ध किए गए हैं, इसलिए उन्हें विश्वसनीय नहीं माना जा सकता। ईश्वर को अनुभवातीत मानने का अर्थ यह है कि वह कभी भी मानवीय अनुभव का विषय नहीं हो सकता और इसी कारण किसी भी अनुभव पर आधारित प्रमाण द्वारा उसके अस्तित्व का ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता। दूसरी तरफ विचार के आधार पर किए गए प्रयास का एकमात्र आधार पूर्ण ईश्वर का प्रत्यय है जिसका मानवीय अनुभव से कोई संबंध नहीं है। इससे हम निश्चित रूप से यही निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि ईश्वर वास्तव में प्रमाण या तर्क का विषय है ही नहीं।
अनुभूति के चार स्तर
भारतीय दार्शनिक परंपरा में अनुभूति के चार स्तर बताए गए हैं। प्रथम तीन स्तरों– जाग्रत, स्वप्न और सुसुप्ति में ज्ञाता-ज्ञेय का भेद बना रहता है। चौथी- तुरीयावस्था- में ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान की त्रिपुटी का ह्रास हो जाता है । यही रहस्यात्मक अनुभूति है ।हर धर्म के उच्च कोटि के साधकों का चरित्र इसका प्रमाण है। इस प्रमाण से भी उन साधकों के ही प्रति श्रद्धा और सम्मान उपजता है।
कांट ‘क्रिटीक ऑफ प्योर रीजन’ में स्पष्ट कहते हैं, ‘आस्था के लिए स्थान बनाने के उद्देश्य से ही मैंने ईश्वर विषयक ज्ञान का खंडन किया है।… ईश्वर मुझसे बाहर कोई सत्ता नहीं है अपितु वह मेरे भीतर एक विचार मात्र है। ईश्वर आत्मारोपित नैतिक नियमों से संबंधित व्यवहारिक तर्क बुद्धि है।’ (जारी)
(लेखक प्रख्यात शिक्षाविद हैं और विभिन्न विषयों पर उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं)