अनिल सिंह ।
दार्शनिक या अनुभूतिगत प्रमाणों और उनके खंडनों से तो दिमाग को कोई रोशनी दिखी नहीं। तो चलते हैं दिल की आस्था की तरफ-
ईश्वर संबंधी या कहें धार्मिक ज्ञान के मूल स्रोत श्रुति और आस्था हैं, न कि अनुभव या तर्क। ‘श्रुति’ वह ज्ञान है जो मनुष्य को ईश्वर या किसी अन्य दैवी स्रोत से प्राप्त होता है। उपासक मानते हैं कि ईश्वर मनुष्य को यह ज्ञान कुछ विशेष व्यक्तियों के माध्यम से प्रदान करता है जिन्हें पैगंबर, संत या ऋषि कहा जाता है। यह ज्ञान अंतिम तथा असंदिग्ध रूप से सत्य होता है। श्रुति स्वयं ही प्रमाण है जिसके लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। यह उनके विचारों तथा आचरण पर गहरा प्रभाव डालती है। कारण यह है कि आदिम स्मृतियां मनुष्य के ज्ञान, आचरण और व्यवहार में पीढ़ी दर पीढ़ी समाते समाते संस्कार बन जाती हैं जिनसे उबर पाना लगभग असंभव हो जाता है।
विश्वसनीयता का मूल आधार
श्रुति मूलक ज्ञान की विश्वसनीयता का मूल आधार ईश्वर या किसी अन्य दैवी सत्ता में उन व्यक्तियों की आस्था ही है जो इस ज्ञान को पूर्णतः प्रामाणिक तथा असंदिग्ध रूप से सत्य मानते हैं। अन्य धार्मिक अवधारणाओं की भांति आस्था की भी कोई स्पष्ट, सुनिश्चित तथा सर्वमान्य परिभाषा करना कठिन है, क्योंकि प्रायः भिन्न-भिन्न अर्थों र्में आस्था शब्द का प्रयोग किया जाता है। लेकिन सामान्य विशेषताओं के आधार पर कहा जा सकता है कि–आस्था किसी विचार, आदर्श, मूल्य, व्यक्ति अथवा कथन में मनुष्य का वह दृढ़ विश्वास है जिसे वह पर्याप्त और विश्वसनीय प्रमाणों के ना होते हुए भी पूर्णतः स्वीकार करता है और जिसमें कुछ अनिश्चयात्मकता निश्चित रूप से विद्यमान रहती है।
विश्वास शब्द का प्रयोग
यहां यह ध्यान रखना होगा कि विश्वास शब्द का प्रयोग तथ्यपरक संदर्भों में भी किया जाता है, किंतु आस्था शब्द का प्रयोग प्रायः ऐसे संदर्भों में नहीं होता। आस्था एक ‘निर्बौधिक मनोदशा’ है जिसके लिए हमारे पास पर्याप्त एवं विश्वसनीय तर्क़ अथवा प्रमाण नहीं होते। परंतु आस्था की निर्बौधिकता का यह अर्थ नहीं है कि वह मानवीय तर्क बुद्धि के विरुद्ध होती है या हो सकती है। जो मनुष्य की तर्क बुद्धि- अर्थात स्पष्ट, निश्चित एवं वस्तुपरक प्रमाणों के विरुद्ध है उसे आस्था नहीं अपितु ‘अंधविश्वास’ ही कहा जा सकता है। ऐसे अंधविश्वासी व्यक्ति को विवेकशील मनुष्य नहीं माना जा सकता। आस्था तर्कों द्वारा प्रमाणित ना होते हुए भी मानवीय तर्क बुद्धि के विरुद्ध नहीं होती जबकि अंधविश्वास अनिवार्यतः तर्क बुद्धि के विरुद्ध होता है।
आस्था के संबंध में संवेदनशील
आस्था मनुष्य के व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बन जाती है। मनुष्य अनुभव एवं तर्क बुद्धि द्वारा जिन वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करता है उनके प्रति वह कोई प्रतिबद्धता नहीं रखता। अपनी जानकारी के विरुद्ध विश्वसनीय प्रमाण प्राप्त होने पर वह उसमें संशोधन करने या उसे छोड़ देने के लिए सदैव तैयार रहता है। ऐसा करते हुए उसे कोई मानसिक कष्ट नहीं होता। परंतु अपनी आस्था के संबंध में मनुष्य की स्थिति इसके ठीक विपरीत होती है। उसके प्रति वह तटस्थ कभी नहीं हो सकता। उसके संबंध में अत्यधिक संवेदनशील हो जाता है। यदि कोई उसकी आस्था का खंडन करने का प्रयास करता है तो इसे वह स्वयं अपने व्यक्तित्व पर आक्रमण मानकर इसका तीव्र विरोध करता है।
इस प्रकार ‘विचार की प्रक्रिया से गुजर कर प्राप्त किया गया विश्वास ‘-आस्था – दिल को तो एक समाधान एक राहत देती है। लेकिन दिमाग है कि प्रमाण के बिना कुछ मानने को तैयार ही नहीं होता।
सार्त्र और आइंस्टीन
मेरे भीतर के सारे खरमंडल के मूल में हैं, दो बड़े नामों- दार्शनिक ‘सार्त्र ‘ और वैज्ञानिक ‘आइंस्टीन’ की कही बातें। सार्त्र कहते हैं- “God- shaped hole in the human head through which, the Creator had been forcibly extracted.” मेरी दृष्टि में ‘रेनेसां’ ही वह सुराख़ था, जिसके जरिए उसके बाद के चिंतकों ने ‘सृजनकर्ता’ को धक्के मार कर बाहर कर दिया। इस सुराख़ को करने का माध्यम बने- आलेबार, रोजर बेकन, दांते और पेत्रार्क आदि। धर्म केंद्रित समाज (थिओसेंट्रिक सोसाइटी) का स्थान मानव केंद्रित समाज (एंथ्रोपॉसेंट्रिक सोसाइटी) लेने लगा। विद्या की नई परिभाषा की गई जिसे ‘न्यू लर्निंग’ कहा गया। अस्मिता ‘दाउ आर्ट’ की बजाए ‘आई ऐम’ में सीमित हो गई। वस्तुगत ‘मैं’ विषयगत ‘हम’ से अलग हो गया; मान लिया गया कि ‘यह’, ‘उस’ से पूर्णतया विलग है।
शरणार्थी हो गई चेतना
नवजागरण काल के बाद से विज्ञान ने, कॉपरनिकस, गैलीलियो, न्यूटन, लाप्लास, डार्विन आदि वैज्ञानिकों के माध्यम से ईश्वर के समीकरण को पूर्णरूपेण बहिष्कृत कर दिया। सृष्टि में चेतना शरणार्थी हो गई। मन (माइंड) और पदार्थ (मैटर) दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। ‘व्यक्ति ही महत्वपूर्ण है’ की जो अवधारणा पुनर्जागरण काल में स्थापित हुई उसी के अनुरूप माइंड का सॉफ्टवेयर अपडेट हुआ। ‘कार्टेसियन डिवाइड’ ने ‘माइंड’ और ‘मैटर’ को, ‘सब्जेक्टिव’ और ‘ऑब्जेक्टिव’ को पूरी तरह अलग कर दिया था। आज विज्ञान ने बता दिया है कि हमारी चेतना, हमारे क्रियाकलापों को निर्धारित करने और प्रकृति की विशिष्ट अभिव्यक्ति में सक्रिय भूमिका निभाती है। हमने सीख लिया है कि हम किसी बहुत बड़े के अंश हैं। अतः हमारे क्रियाकलाप इस ज्ञान के अनुरूप होने चाहिए। जब हम इस अनुभूति के अनुरूप आचरण करें तब कार्टेसियन डिवाइड द्वारा ‘माइंड’ और ‘मैटर’ को काट कर अलग कर दिए जाने से हुए घाव को भर पाते हैं। (जारी)
(लेखक प्रख्यात शिक्षाविद हैं और विभिन्न विषयों पर उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं)