(आजादी विशेष)

प्यारी मां भारती की आजादी का माह अगस्त चल रहा है। फिजा में नेताजी सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, खुदीराम बोस, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव जैसे अमर क्रांतिकारियों के तराने गूंज रहे हैं। इन अमर गाथाओं में मां भारती की बहादुर बेटियों की भी शौर्य गाथाएं कम नहीं हैं। मातृभूमि की आन बान और शान के लिए बलिदान देने वाली नारी शक्तियों में जहां झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, अहिल्याबाई होलकर, रानी पन्नाधाय, देवी पद्मावती जैसी महारानियां हैं तो दुर्गा भाभी जैसी सामान्य परिवार में पली-बढ़ी वीरांगनाएं भी हैं। देश की आजादी के लिए इनकी दीवानगी और सबलता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दुर्गा भाभी ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ क्रांतिकारियों के साथ कदम से कदम मिलाकर न केवल आजादी का बिगुल फूंका बल्कि बम बनाने से लेकर पिस्तौल चलाने और आवश्यकता पड़ने पर घात लगाकर अंग्रेजी अधिकारी को मौत के घाट उतारने का सारा हुनर इन्होंने सीखा था।इनकी भूमिका का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सांडर्स वध के बाद भगत सिंह और राजगुरु को दुर्गा भाभी ने लाहौर से अंग्रेजों की नाक के नीचे से निकालकर कोलकाता तक पहुंचाया था। यहां तक कि वीर क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद जो आजाद जिए और आजाद ही बलिदान हुए, के पास आखिरी वक्त में जो माउजर था, वह भी किसी और ने नहीं बल्कि दुर्गा भाभी ने हीं पहुंचाया था। उस माउजर का नाम था “बमतूल बुखारा पिस्तौल”। इनकी बहादुरी की वजह से इन्हें आयरन लेडी कहा जाता था और अंग्रेज भी खौफ खाते थे।

दुर्गा भाभी स्वतंत्रता सेनानियों के हर आक्रामक योजना का हिस्सा बनीं। दुर्गा भाभी बम बनाना जानती थीं तो अंग्रेजों को सबक सिखाने जा रहे देश के सपूतों को टीका लगाकर विजय पथ पर भी भेजती थीं। इतना ही नहीं दुर्गा भाभी एक बार भगत सिंह के साथ उनकी पत्नी बनकर अंग्रेजो से बचाने के लिए उनके प्लान का हिस्सा बनी थीं। अंग्रेजों के लाठीचार्ज में वीर क्रांतिकारी लाला लाजपत राय की मौत के बाद दुर्गा भाभी इतना गुस्से में थीं कि उन्होंने खुद स्काॅर्ट को जान से मारने की इच्छा जताई थी।

पति भी थे क्रांतिकारी, ससुर को अंग्रेजों ने दिया था सर का खिताब

दुर्गा भाभी का असली नाम दुर्गावती देवी था। उनका जन्म 7 अक्टूबर 1907 को उत्तर प्रदेश के शहजादपुर (इलाहाबाद, आज का प्रयागराज) गांव में हुआ था। दुर्गावती का विवाह 11 साल की उम्र में हुआ था। उनके पति का नाम भगवती चरण वोहरा था, जो कि हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य थे। इस एसोसिएशन के अन्य सदस्य उन्हें दुर्गा भाभी कहते थे। इसीलिए वह इसी नाम से प्रसिद्ध हो गईं। 16 नंवबर, 1926 को लाहौर में करतार सिंह सराभी की शहादत की 11वीं वर्षगांठ मनाने को लेकर दुर्गा भाभी चर्चा में आईं थीं। इनके पिता पंडित बांके बिहारी तत्कालीन इलाहाबाद कलेक्ट्रेट में नाजिर थे जबकि बाबा जालौन में दारोगा हुआ करते थे। उनके ससुर शिव चरण वोहरा रेलवे में बड़े पद पर तैनात थे। सरकार ने उन्हें राय साहब की उपाधि दे रखी थी लेकिन इनके पति भगवती चरण बोहरा के मन में अंग्रेजों के प्रति नफरत ज्वाला भड़क रही थी। 1920 में पिता की मौत के बाद वे क्रांतिकारियों के साथ खुलकर आ गए।

दुर्गा भाभी के मन में तो पहले से ही देश की आजादी के सपने तैर रहे थे। पति के क्रांतिकारियों के साथ मिल जाने पर वे स्वयं भई स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की प्रमुख सहयोगी बन गईं। लाला लाजपत राय की मौत के बाद भगत सिंह ने साॅन्डर्स की हत्या की योजना बनाई थी। तब सॉन्डर्स और स्‍कॉट से बदला लेने के लिए आतुर दुर्गा भाभी ने ही भगत सिंह और उनके साथियों को टीका लगाकर रवाना किया था। सांडर्स की हत्या के बाद अंग्रेज भगत सिंह की खोज में दिन रात छापेमारी करने लगे। भगत सिंह का लाहौर में अधिक दिन तक छिपकर रहना मुश्किल हो गया। तब भगत सिंह के साथ भेष बदलकर उनकी पत्नी बनकर, अंग्रेजों को चकमा देकर लाहौर से सीधे कोलकाता ले गईं। यहां जतिन दास समेत अन्य क्रांतिकारियों से भगतसिंह और साथियों की मुलाकात हुई, जिन्होंने इन्हें बम बनाने की ट्रेनिंग दी थी।

इतना ही नहीं सन् 1929 में जब भगत सिंह ने दिल्ली की सेंट्रल असेम्बली (जिसे अब संसद भवन कहा जाता है) में बम फेंकने के बाद आत्मसमर्पण किया था, उस समय भी दुर्गा भाभी भगत सिंह से मिलने खासतौर पर लाहौर से दिल्ली आईं थी। 1930 में चन्द्रशेखर आजाद के हने पर दुर्गा भाभी ने मुंबई में लॉर्ड हैली की हत्या करने का प्रयास किया था और गोली तक चला दी थी हालांकि वह बच गया था, पर उसका सार्जेंट और उसकी पत्नी मारे गए। दुर्गा भाभी ने भगत सिंह और उनके साथियों की जमानत के लिए एक बार अपने गहने तक बेच दिए थे। वे गांधीजी के पास भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की रिहाई के लिए प्रार्थना करने भी गईं थी। जिस समय वे गांधी जी से आग्रह करने गईं थी तब पं. नेहरू भी वहीं मौजूद थे। दुर्गाभाभी ने खुद बताया था कि उन्होंने गांधीजी को बताया था कि यदि वे इन तीनों क्रांतिकारियों के मृत्युदंड की सजा बदलवा दें तो बाकी के क्रांतिकारी भी आत्मसमर्पण कर देंगे। पर गांधीजी ने इस सुझाव को नकार दिया और कहा कि वे भगत सिंह को पसंद तो करते हैं पर उनके तरीके को नहीं।

आजादी के बाद गुमनामी में बिती जिंदगी, बनी है फिल्म भी

दुर्गा भाभी के पति भगवती चरण वोहरा पहले ही बम बनाते और उसको चेक करने के दौरान शहीद हो गए थे। उसके बाद वे चन्द्रशेखर आजाद और भगत सिंह के साथ खुलकर आजादी की क्रांति करने लगी थीं। कई बार खुद भी अंग्रेज अधिकारियों पर फायर किए तो बहुत बार क्रांतिकारियों तक हथियार पहुंचाने का काम किया। आजाद के पास अंतिम समय में पाया गया माउजर भी दुर्गा भाभी ने ही पहुंचाया था। पर 27 फरवरी, 1931 को चन्द्रशेखर आजाद के बलिदान और उसी साल 31 मार्च को भगत सिंह और उनके साथियों को दी गई फांसी ने दुर्गा भाभी के पूरे क्रांति दल को छिन्न-भिन्न कर दिया। तब सितंबर, 1931 में दुर्गा भाभी ने स्वयं लाहौर में आत्मसमर्पण कर दिया। लेकिन अंग्रेज अधिकारियों के पास उनके खिलाफ कोई ठोस सुबूत नहीं था। एक साल जेल में बिताने के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया, पर लाहौर से 3 साल तक बाहर जाने पर पावंदी लगा दी गई। 1936 में वे लाहौर से गाजियाबाद आ गईं। यहां आकर उन्होंने दोबारा अध्यापन का कार्य शुरू किया और प्यारे लाल गर्ल्स हाई स्कूल में शिक्षिका हो गईं। 1986 में जब शरीर अशक्त होने लगा तब उन्होंने विश्राम लिया और एक प्रकार से गुमनामी के जीवन के बीच 15 अक्टूबर, 1999 को उन्होंने अंतिम सांस ली। हालांकि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि स्वतंत्रता के बाद इस महान क्रांतिकारी दुर्गाभाभी की राजनेताओं ने उपेक्षा की। समाज भी अपने कामकाज में उन्हें भूल गया। इतिहास में भी वह स्थान नहीं मिला जो मिलना चाहिए था। बॉलीवुड अभिनेता आमिर खान और सोहा अली खान ने जो ‘रंग दे बसंती’ फिल्म बनाई है उसमें सोहा अली खान ने दुर्गा भाभी की भूमिका निभाई है।(एएमएपी)