चंद्रयान अभियान-1
प्रमोद जोशी।
चंद्रमा की सतह पर चंद्रयान-3 की सॉफ्ट लैंडिंग के बाद अब कुछ सवाल खड़े होते हैं।
पहला सवाल है कि लैंडर विक्रम और रोवर प्रज्ञान अब अगले कुछ दिनों तक क्या काम करेंगे? वे कब तक चंद्रमा पर रहेंगे और कितने समय तक सक्रिय रहेंगे? चंद्रयान-3 का चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर उतरना महत्वपूर्ण क्यों है? अभी तक किसी देश ने वहाँ अपना यान क्यों नहीं उतारा? भारत ने अपना यान उतारने का फैसला क्यों किया?
दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि आने वाले कुछ समय में भारत की अंतरिक्ष अनुसंधान से जुड़ी परियोजनाएं क्या हैं?
तीसरा सवाल है कि इस अभियान से वैज्ञानिक, तकनीकी, आर्थिक और राजनयिक क्षेत्र में भारत के रुतबे और रसूख पर क्या फर्क पड़ने वाला है?
ये तीन अलग विषय हैं, पर चंद्रयान-3 के कारण एक-दूसरे से जुड़े हैं। सबसे पहले चंद्रयान-3 की संरचना पर ध्यान दें। चंद्रयान का जब प्रक्षेपण किया गया था, तब रॉकेट पर चंद्रयान-3 दो भागों में उससे जुड़ा हुआ था। एक था प्रोपल्शन मॉड्यूल और दूसरा, दूसरा लैंडर विक्रम। लैंडर विक्रम के भीतर रखा गया था रोवर प्रज्ञान, जो सॉफ्ट लैंडिंग के बाद बाहर निकल कर अब चंद्रमा की सतह पर भ्रमण कर रहा है।
प्रणोदन (प्रोपल्शन) मॉड्यूल 100 किमी चंद्र कक्षा तक लैंडर और रोवर विन्यास को लेकर गया और वहाँ से वह अलग हो गया। पर उसका काम इतना ही नहीं था। चंद्र कक्षा से पृथ्वी के वर्णक्रमीय और ध्रुवीय मीट्रिक मापों का अध्ययन करने के लिए उसमें स्पेक्ट्रो-पोलरिमेट्री ऑफ हैबिटेबल प्लेनेट अर्थ (एसएचएपीई) नीतभार (पेलोड) है। इससे वह चंद्रमा की कक्षा में परावर्तित प्रकाश के जरिए पृथ्वी का अध्ययन करेगा।
तीन लक्ष्य
चंद्रयान-3 के तीन बड़े लक्ष्य हैं। इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए चंद्रयान के पास 14 दिन का समय है। पहला, चंद्र सतह पर सुरक्षित और सॉफ्ट लैंडिंग की क्षमता प्रदर्शित करना। दूसरा, रोवर प्रज्ञान का चंद्रमा की सतह पर भ्रमण और तीसरा वैज्ञानिक प्रयोगों को पूरा करना। इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए लैंडर व रोवर में सात पेलोड लगे हैं। विक्रम और प्रज्ञान दोनों ही सौर ऊर्जा से संचालित हैं। जिस इलाके में ये उतरे हैं, वहाँ सूरज की रोशनी तिरछी पड़ती है। सूर्य से प्राप्त ऊर्जा का इस्तेमाल करने के लिए इनमें लंबवत यानी खड़े सोलर पैनल लगे हैं।
चंद्रयान-3 के चारों ओर लिपटा सुनहरा आवरण तापमान से बचाव के लिए ही लगा है। इसे मल्टीलेयर इंसुलेशन कहा जाता है। इसमें बाहर की तरफ सुनहरी और अंदर की तरफ सफेद या सिल्वर रंग की पॉलिएस्टर फिल्में हैं। इन फ़िल्मों पर एल्यूमिनियम की बहुत पतली परत की लेप भी लगाई जाती। इसे पूरे अंतरिक्ष यान में नहीं लगाया जाता है, बल्कि केवल कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों में लगाया जाता है। ऐसे क्षेत्र जो विकिरण से क्षतिग्रस्त हो सकते हैं। इनका मुख्य काम सूर्य की रोशनी को परावर्तित करना है। पृथ्वी से अंतरिक्ष तक अंतरिक्ष यान की यात्रा के दौरान, तापमान बहुत तेज़ी से बदलता है। तापमान में परिवर्तन से अंतरिक्ष यान के नाजुक उपकरणों पर असर पड़ता है।
लैंडर के पेलोड
लैंडर विक्रम पर लगाए गए चार पेलोड खासतौर पर चांद के भू-भौतिकीय व भूगर्भीय संरचना को समझने के लिए आँकड़े जुटाएंगे, जो एक तरह से चांद के अतीत का अध्ययन है। इसमें नासा से प्राप्त एक निष्क्रिय लेजर रेट्रोरिफ्लेक्टर ऍरे को चंद्र लेजर रेंजिंग अध्ययनों के लिए लगाया गया है। रेडियो एनाटॉमी ऑफ मून बाउंड हाइपरसेंसटिव आयनोस्फीयर एंड एटमॉस्फ़ियर (रंभा) नाम का पेलोड चांद की सतह के निकट प्लाज्मा (आयन और इलेक्ट्रॉन) के घनत्व और इसमें समय के साथ हुए बदलाव को मापेगा।
इससे यह पता चलेगा कि चाँद की सतह पर जमी धूल जले हुए बारूद जैसी क्यों हो गई है। चंद्र सरफेस थर्मो फिजीकल एक्सपेरिमेंट (चेस्ट) पेलोड सतह के तापीय गुणों का अध्ययन करेगा। इंस्ट्रूमेंट फॉर लूनर सीस्मिक एक्टिविटी (आईएलएसए) भूकंपीय गतिविधियां मापते हुए चंद्रमा के क्रस्ट और मेंटल की संरचना के आँकड़े जुटाएगा। लेजर रेट्रोरिफ्लेक्टर ऍरे (एलआरए) चंद्रमा की गतिकीय प्रणाली समझेगा।
रोवर प्रज्ञान पर दो पेलोड लगाए गए हैं। लेजर इनड्यूस्ड ब्रेकडाउन स्पेक्ट्रोस्कोप (एलआईबीएस) के जरिये चंद्रमा की सतह पर मौजूद तमाम तत्वों का गुणात्मक, मात्रात्मक व रासायनिक विश्लेषण किया जाएगा। भविष्य में चंद्रमा को डीप स्पेस स्टेशन के तौर पर इस्तेमाल करने के लिहाज से यह अहम साबित होगा। अल्फा पार्टिकल एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर (एपीएक्सएस) लैंडिंग साइट के आसपास चंद्रमा की धूल और चट्टानों की मौलिक संरचना का पता लगाएगा। खासतौर धूल में मैग्नीशियम, एल्युमिनियम, सिलिका, पोटेशियम, कैल्शियम, टाइटैनियम व आयरन की मौजूदगी का पता लगाएगा।
चंद्रमा के दक्षिण ध्रुव पर भारत का ध्वज चंद्रयान-1 के साथ 2008 में पहुँच गया था। इस बार रोवर में कोई तिरंगा तो नहीं रखा है, पर एक ख़ास तैयारी की गई है। रोवर के दोनों पहियों में एक तरफ राष्ट्रीय प्रतीक सिंह स्तंभ और दूसरी तरफ़ इसरो का लोगो उकेरा गया है। जहाँ-जहाँ रोवर जाएगा वहाँ-वहाँ चाँद की जमीन अपने पद निशान छोड़ेगा। ये चिह्न वहाँ हमेशा के लिए रहेंगे क्योंकि चाँद में वायुमंडल नहीं है। वहाँ की धूल अपनी जगह रहती है।
अरबों साल पुराना अंधेरा
केवल चंद्रमा तक जाने में जितनी बड़ी चुनौती थी, उससे बड़ी चुनौती थी, कुछ नया करने की, ताकि इतिहास में नाम लिखा जाए। चंद्रयान-1 में लगे स्पेक्ट्रोमीटर ने चंद्रमा में पानी के कणों की पुष्टि की थी। वह एक उपलब्धि थी। चंद्रयान-3 चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के काफी करीब उतरा है। वैज्ञानिक अध्ययन के लिहाज से यह महत्वपूर्ण क्षेत्र है। यहाँ ऊँचे पहाड़ और कई बड़े-बड़े क्रेटर हैं। बहुत से ऐसे क्रेटर हैं या पहाड़ों की छाया के कारण ऐसे क्षेत्र हैं, जहां अरबों साल से सूरज की रोशनी नहीं पहुँची है। अरबों वर्ष का यह अंधेरा अध्ययन का रोचक विषय है। इससे सौरमंडल की संरचना के बारे में नई बातें पता लगेंगी।
दक्षिणी ध्रुव के अंधेरे इलाकों में अरबों वर्ष पुराना पानी या बर्फ होगी। पानी और बर्फ के अलावा कुछ ऐसे खनिज या तत्व भी हो सकते हैं, जिनके बारे में हम कुछ नहीं जानते हों। वैज्ञानिक अध्ययन के लिए यह महत्वपूर्ण क्षेत्र है। दक्षिणी ध्रुव के कुछ इलाके अंधेरे में डूबे रहते हैं, जबकि कुछ इलाकों में सूर्य की पर्याप्त रोशनी रहती है। जैसे पृथ्वी के दक्षिणी ध्रुव पर अंटार्कटिका काफी ठंडा है, वैसे ही यह चांद का सबसे ठंडा इलाका है। इस इलाके की जानकारी पृथ्वी के वैज्ञानिकों को ज्यादा नहीं है। भारत ने इसी चुनौती को देखते हुए इस इलाके को चुना है।
चंद्रमा पर तापमान में काफी ऊँच-नीच है। जिन हिस्सों में सूरज की रोशनी आती है, वहाँ तापमान 54 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है। जिन हिस्सों में सूरज की किरणें नहीं आती हैं, वहां तापमान माइनस 248 डिग्री सेल्सियस तक भी पहुंच जाता है। चंद्रयान-3 दक्षिणी ध्रुव से कुछ दूरी पर उतरा है। रोशनी की उपलब्धता, संचार और नेवीगेशन की दृष्टि से भी इस इलाके को लैंडिंग के लिए उपयुक्त माना गया।
पृथ्वी के दक्षिणी ध्रुव की ही तरह यहाँ सूर्य की किरणें तिरछी पड़ती हैं और तापमान काफी कम होता है। चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर आप खड़े हों, तो आपको सूर्य क्षितिज रेखा पर दिखाई देगा। यहां सूरज की रोशनी भी बहुत कम पड़ती है। तापमान कम होने के कारण यहाँ बर्फ हो सकती है। चंद्रयान-1 चंद्रमा पर पानी की खोज पहले ही कर चुका है। नासा के अनुसार हाइड्रोजन की मौजूदगी वहां बर्फ होने का सबूत हो सकता है।
14 दिन के बाद क्या?
चंद्रयान-3 से केवल 14 दिन तक काम करने की उम्मीद की गई है। 14 दिन इसलिए क्योंकि चंद्रमा का एक दिन पृथ्वी के 14 दिन के बराबर होता है। जब तक इस इलाके में धूप रहेगी, तापमान 50 डिग्री के आसपास रहेगा, पर जैसे ही अंधेरा होगा, तापमान माइनस 180 या उससे भी कम जाएगा। ऐसे में लैंडर और रोवर के इलेक्ट्रॉनिक उपकरण काम करेंगे या नहीं, कहना मुश्किल है। रूस ने जो अभियान भेजा था, उसमें अतिरिक्त ईंधन की व्यवस्था की गई थी, ताकि उसका तापमान बना रहे, पर चंद्रयान में ऐसी व्यवस्था नहीं है।
लूना-25 की योजना साल भर तक काम करने की थी। चंद्रयान-3 की योजना 14 दिन की है। अलबत्ता यह देखना होगा कि 14 दिन बाद फिर से धूप आने पर चंद्रयान के उपकरण काम करेंगे या नहीं। इसरो के अध्यक्ष एस सोमनाथ का कहना है कि संभव है कि वे फिर से काम करने लगें। या इस दौरान भी काम करें। फिलहाल अगले दो हफ्ते काफी रोचक होने वाले हैं।
(अगले अंक में पढ़ें कि आने वाले समय में भारत की अंतरिक्ष-योजनाओं के बारे में और चंद्रयान-3 की सफलता से किस तरह बढ़ी देश की प्रतिष्ठा।)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)