सत्यदेव त्रिपाठी।
अमित राय लिखित-निर्देशित फ़िल्म ‘ओ माइ गॉड-२’ कुछ शुरुआती भटकनों के बावजूद यौन-शिक्षा के पक्ष में जरूरी व कारगर जिरह पेश करती है। उसकी स्थापना का अंजाम रचती है।
नाम से ही ज़ाहिर है कि इसे दशक भर पहले आयी फ़िल्म ‘ओ माइ गॉड’ की श्रिंखला के रूप में इरादतन पेश किया गया है… और यही नाम देना इस बजा काम की फ़िल्म का एक बेज़ा पक्ष सिद्ध होता है। एक हिट फ़िल्म के साथ रखकर देखे जाने के सिवा इसका कुछ ख़ास मतलब नहीं है। नाम तो नितांत बेवजह ही हो गया है। वहाँ वजह थी, क्योंकि उसमें घर गिरने का हर्जाना देने से बचने के लिए बीमा कम्पनी ने दीवाल गिराने का ज़िम्मेदार भगवान को ठहरा दिया था और फिर फ़नी ढंग से गॉड एक विरोधी पार्टी बन कर फ़िल्म के केंद्रीय विषय बन गये थे – बल्कि पूरी फ़िल्म को लोक (हाईजैक कर) ले गये थे…। लेकिन यहाँ तो यौन-शिक्षा को लेकर सीधे-सीधे स्कूल और शिक्षा का स्वरूप कटघरे में है। तो फिर इसे ‘ओ माई गॉड’ कहने का मतलब क्या है? उसके नायक का नाम कांति भाई था, तो यहाँ भी कांति शरण मुद्गल को ‘कांतिजी’ कहके वही छाप छोड़ी गयी है। यह सब अनुकृति नहीं, सीधी नक़ल है!! उस फ़िल्म का पूरा वितान कॉमिक था, जो हिंदू धर्म पर जुर्म बन कर बरपा हुआ था, लेकिन इसमें कॉमिक का गाढ़ा छौंक है – ख़ासे मनोरंजन जितना…।
गरज ये कि ‘ओएमज़ी–२’ के विषय को वस्तुत: ‘गॉड’ की ज़रूरत ही नहीं है। सुना कि अक्षय कुमार को तो फ़िल्म ने साक्षात शिव बनाया था, लेकिन सेंसर ने उन्हें शिव का दूत बनवाया। इसका सूत्र यह कि स्कूल में यौन-शिक्षा के अभाव में यौन-विकृति के शिकार बच्चे विवेक का पिता कांति मुद्गल शिव-भक्त है, जिसकी सहायता के लिए शिवजी ने अपना दूत भेज दिया है। इस दूत को फ़िल्म से हटा के देख लें, फ़िल्म वास्तविक हो जायेगी – जीवन से सीधे जुड़ जायेगी। क्योंकि शिव-दूत जो भी कुछ करता है – जैसे यौन-विकृति के लिए बदनाम हुए बच्चे को रेलवे-पटरी पर कटने से बचाना या उसका पीया विष अपने गले में ले लेना…आदि सब अदृश्य शक्ति या सुपर पॉवर है, जो फ़िल्म की भाषा में ‘स्टंट’ भी है, जीवन की भाषा में जादू है – याने अवास्तविक है। यदि उस लड़के को किसी रेलवे कर्मचारी या उसके बाप से बचाते हुए दिखा दिया जाता, तो फ़िल्म व्यावहारिक (प्रैक्टिकल) व यथार्थ-आधारित होकर जीवनपरक हो जाती। मुक़दमे का आइडिया भी शिव-दूत ही देता है। यह यदि खुद बाप को आता, तो बात कुछ और बनती!! इसी प्रकार कामसूत्र…आदि पुराने ग्रंथ एवं अखबार… आदि में छपी पुरानी खबरें-सूचनाएँ…वगैरह भी शिव-दूत के बदले बड़े आराम से दोस्तों…आदि से मंगायी जाके भी मुक़दमे को मज़बूत करके जीता जा सकता था। यह सब होता, तो यह खाँटी जीवन की फ़िल्म लगती। वरना शिव दूत के नाम से शंकर को सारा श्रेय देकर फ़िल्म पुरा काल के अवैज्ञानिक युग में चली जाती है। लेकिन नक़ल की आदत ने अक़्ल को नौचंदी की बाज़ार में बेच दिया, तो असल सोच आये कहाँ से?
कहने का मतलब कि विषय को शिव-दूत व फ़िल्म को अक्षय की ज़रूरत न थी…। शिवदूत के चमत्कारों ने समस्या का सरलीकरण कर दिया है। इसी मानसिकता व माहौल के कारण ‘हर-हर महादेव…’ गीत चल भले रहा है, मेलोडी नहीं बन सका…। और शिवदूत आसमान से उतरा है, तो फिर फ़िल्म की निर्मिति में ही बाहरी ठहर गया है। उस पात्रत्व की स्थिति भी वस्तुत: मेहमान कलाकार जैसी है। लेकिन अक्षय कुमार के खाते में एक और फ़िल्म जुड़ गयी…संख्या भी दम्भ है!! दर असल शुरू में तो इस फ़िल्म को अक्षय की ‘महा परियोजना’ (मेगा प्रोजेक्ट) के रूप में विज्ञापित ही किया गया था। तो कुल मिलाकर अक्षय के नाम व उनकी उपस्थिति की ज़रूरत सिर्फ़ फ़िल्म-निर्माता को थी – पैसे जो आते हैं। फिर वर्तमान सत्ता के शीर्ष से अक्षय के कुछ रसूख़ के कयास भी हैं। इधर राष्ट्रीय स्तर पर सनातन को मुख्य धारा में लाने के सुनियोजित व सार्थक प्रयत्न चल रहे हैं, तो उस बहती गंगा में फ़िल्म भी हाथ धोने चली और डुबकी ही लगा ली…!! लेकिन सब करेके भी फ़िल्म को ‘यू’ प्रमाणपत्र न मिला, तो फ़िल्म वालों को गुनाहे बेलज़्ज़त का कुछ पछतावा ज़रूर हुआ होगा…। बहरहाल…,
इस सब कुछ के बावजूद अपने विषय के चलते फ़िल्म तो प्रगतिशील विचारों वाली एवं जीवन के प्रति सरोकार वाली सिद्ध हो ही गयी, लेकिन ‘ए’ प्रमाणपत्र में सेंसर बोर्ड की दक़ियानूसी भी जमकर उजागर हो गयी। क्योंकि इससे फ़िल्म का ज़रूरी संदेश उस किशोर समुदाय तक सीधे नहीं पहुँच पा रहा, जो इसका सही दर्शक वर्ग (टोरगेट आइडिएन्स) है। इसके लिए किशोरों के पिताओं को सेंसर बोर्ड के ख़िलाफ़ आवाज़ अवश्य उठानी चाहिए…कि उसमें कुछ समझदार लोग भी रखे जायें…। वैसे इस देश में बहुत कुछ ब्लैक में सुलभ है, तो बच्चे भी फ़िल्म देख ही लेंगे…। कुल मिलाकर फ़िल्म को ‘ख़ुदा तो न मिला, बिसाले सनम’ ज़रूर मिल गया…!!
दूसरी बड़ी बात यह कि फ़िल्म में यौन-शिक्षा के इस विषय को जिस तरह उठाया गया है, उसमें कार्य-कारण की संगति नहीं बैठती। यौन रोगी की आधार भूमिका में है – कांतिजी का बेटा विवेक, जो हर तरह से बहुत अच्छा है। विद्यालय के नाटक में अच्छा काम कर रहा। सहकलाकार नायिका के साथ मंच पर उसकी अच्छी संगति है। लेकिन लड़की सहसा उसके साथ काम करने के लिए ‘ना’ बोल देती है। विवेक को कारण बताते हैं लड़की के दोस्त – ‘तुम्हारा लिंग छोटा है’। यही विषय का आधार मुद्दा है, लेकिन इसका पेश होना कितना बेतुका है!! लड़की को यह कैसे मालूम पड़ा? क्या नाटक में ऐसा कोई दृश्य होगा…? फिर क्या उस लड़की ने अन्य लड़कों को बताया? या फिर लड़कों ने ही लड़की को बताया। और अजीब यह कि उस लड़के को नाटक से निकाल दिया जाता है!! याने पूरा स्कूल इस बात से सहमत हैं कि छोटे लिंग का लड़का नाटक में काम नहीं कर सकता। आख़िर लिंग के छोटा-बड़ा होने का नाटक से क्या वास्ता? और इससे बड़ी बदमजगी यह कि लड़की जिस लड़के को चाहती है, उसे भूमिका दे दी जाती है…तो यह प्रेम व रक़ीब का-सा मामला भी बन जाता है। फिर तो इस पृष्ठभूमि में यौनेच्छा व यौन-शिक्षा का मामला गौण उत्पादन (बाइ प्रोडक्ट) जैसा हो जाता है!! याने पूरे कुएँ में ही भांग पड़ी है – पूरा स्कूल ही बीरबावल पुर है!! उधर विवेक की इस कमी को लेकर लड़के उसे चिढ़ाने, रैगिंग की तरह सताने व बेइज्जत करने लगते हैं। हैरान विवेक अपना लिंग बड़ा करना चाहता है, तो सहज अनाड़ीपने में उसे हस्त मैथुन का तरीक़ा मिलता है, जो वह स्कूल के शौचालय में करता है…। वहाँ से उसका वीडियो बन जाता है और वह आम (वायरल) भी हो जाता है…। यहाँ फिर सवाल कि वीडियो बनता कैसे है? विवेक खुद तो बनाये और फैलायेगा नहीं!! तो क्या शौचालय में कोई और जाता है? या बाथरूम में ऐसा छेद कहाँ है? असल में ये सारे छेद फ़िल्म में हैं और फ़िल्म के हैं…।
और सभी सवालों के निचोड़ रूप में बड़ा सवाल यह कि क्या आज के समय में स्कूलों के माहौल के ये सच हैं? ऐसे हाई-फ़ाई स्कूल क्या लाखों की फ़ीस लेकर यह अपसंस्कृति भी मुहय्या कराते हैं…? यदि हाँ, तब तो फ़िल्म पहले इन्हीं मुद्दों पर बननी चाहिए, क्योंकि यह मामला सामाजिक-सांस्कृतिक है, गम्भीर है। लिंग छोटा होने का मामला तो फिर भी मेडिकल का है, जीव विज्ञान का है। और फ़िल्म में यह सब कुछ करते-कराते हैं – निर्देशन के साथ ‘ओ॰एम॰जी॰-२’ को लिखने भी वाले स्वयं अमित राय। क्या वे बच्चों को ऐसी सीखें देना चाहते हैं, ताकि स्कूलों में जो न होता हो, होने लग जाये? और वे इसके प्रवर्तक बनें? याने स्कूल को बीरबावल पुर बनाने में स्वयं सर्जक ही भक्षक है!!
अब लिंग कैसे जल्दी जल्दी बड़ा हो जाये, की उतावली में अधिकाधिक हस्तमैथुन करने के लिए अधकचरे लोगों व नीम-हकीमों की सलाहों से लड़का विवेक वियाग्रा ले लेता है, जो आम दुकानों पर नक़ली मिलता है और बचपने के अज्ञान व अपवाली में वह लगातार कई-कई ले लेता है…परिणाम में अस्पताल पहुँच जाना पड़ता है और बात घर-मुहल्ले-शहर तक पहुँच जाती है…। बस, सुखद है कि फ़िल्म की ये सब लंतरानियाँ यहीं तक हैं…।
…आगे जब यौन शिक्षा की मूल समस्या खुल जाती है और उस पर फ़िल्म अपना काम शुरू करती है, तो बिलकुल सही व सधी हो जाती है। ‘हस्त मैथुन’ यहाँ यौन-तृप्ति की मूल क़्रिया (सम्भोग) का स्थानापन्न बन जाता है। हालाँकि इससे वास्तविक यौन-सम्बंध और उसकी तमाम विकृतियों के नाम-रूपों के उल्लेख नहीं हो पाते, स्त्री-विषयक बातें तो आती ही नहीं। लेकिन वास्तविक सम्भोग में आती क्रियाओं, उसके लिए प्रयुक्त शब्दों…आदि से जितनी अभद्रता आती, उससे बचना भी फ़िल्म जैसे जन-माध्यम के लिए बहुत मुफ़ीद सिद्ध हुआ है, वरना यह शायद काम-फ़िल्म (पॉर्न फ़िल्म) बनकर रह जाती…, नहीं तो इस रूप में यह काम-ज्ञान की सोद्देश्य फ़िल्म बनी है, जिसमें हस्तमैथुन के सार्थक व कारगर प्रतीक के माध्यम से यौन-शिक्षा की लगभग सारी बातें समाहित भी हो सकी हैं…।
विवेक के हस्तमैथुन की घटना के उजागर हो जाने के बाद सुबह स्कूल पहुँचाने गये पिता कांतिजी को बुलाकर प्राचार्य कहते हैं – ‘उच्च संस्कारों वाले इस स्कूल में अब आपका बच्चा नहीं पढ़ सकता’। यही समस्या है – ‘यौन-शिक्षा’ वाले इस विषय की। फ़िल्म अंत में साबित करती है कि उच्च स्तर के कहे जाने वाले इन स्कूलों के संस्कार कितने दकियानूस व निम्न कोटि के हैं…!! विवेक को प्रवेश दिलाने वाले बड़े महंत भी उस वक्त वहाँ मौजूद हैं, जो ग़म-ग़ुस्से-हिक़ारत के साथ कहते हैं – ‘कितने मुश्किल से इतने बड़े स्कूल में तुम्हारे बेटे को प्रवेश दिलाया था, अब ऐसे शर्मसार कर देने वाले काम के बाद वह यहाँ कैसे पढ़ सकता है’!! इस तरह तथाकथित शिक्षाविद व धर्मविद दोनो को सुनियोजित रूप से सामने लाके उघाड़ती है फ़िल्म। महंत की इस नितांत नन्हीं-सी भूमिका में गोविंद नामदेव जैसे कलाकार को बर्बाद ही किया गया है (पर वे हुए क्यों हैं)!! और स्कूल मालिक के रूप में रामानन्द सागर के ‘रामायण’ में राम की महान छबि वाले अरुण गोविल को तो सिर्फ़ शोभा के लिए रखना दयनीय ही लगता है। दोनो ही भूमिकाएँ महज नाम की हैं। लेकिन सब कुछ सुनकर और प्रायः कुछ ज्यादा न समझकर हतप्रभ पिता उस डॉक्टर के पास जाता है, जिसने इलाज किया था। वह बड़ी शराफ़त व बड़े संकोच-सरोकार के साथ सब कुछ बताता है और विवेक के साथ दोस्त की तरह सलूक करने की सलाह देता है। डॉक्टर की भूमिका भी बड़ी नहीं है, पर बेहद कारगर है और वृजेंद्र काला ने अपने ख़ास अंदाज में हमेशा की तरह इसे भी खूब अच्छा अंजाम दिया है – नाज़ुक बात को सर्द भाव व सही युक्ति के साथ अपनी सदाबहार निठुरी अदा-चितवन में…।
सब कुछ जानने के बावजूद हारा हुआ बेबस पिता एक बार बेटे को पीट भी देता है। तब ‘सत्य को दबाया नहीं जा सकता’ का सूत्र भी शिवदूत से ही आता है। लेकिन आख़िरस पिता को कर्त्ता बनना ही था – असली संवेदना व सरोकार तो पिता में ही निहित होते हैं। सब कुछ समझ जाने के बाद वह बेटे के सामने खेद व्यक्त करता है। मुक़दमे में वादी है, पर खुद को भी प्रतिवादी बनाता है। इसी विचित्रता से कोर्ट को अचंभित करते हुए मुक़दमे की शुरुआत होती है। असली पते की बात पहले ही सोपान पर कांति बताता है कि ऐसे अज्ञान भरे कृत्य के लिए ज़िम्मेदार कोई बच्चा नहीं, परिवार-पड़ोस-मुहल्ला-दोस्त-स्कूल-मीडिया…याने पूरा परिवेश है। फिर भी मुख्य ज़िम्मेदारी स्कूल की है, क्योंकि शिक्षित करना उसी का काम है और निकालने की कार्रवाई करके ‘उल्टे चोर कोतवाल को डाँटे’ का काम उसी ने ही किया है। इसलिए स्कूल से माँग करता है कि विवेक का निष्कासन रद्द हो, उसे स्कूल में सादर प्रवेश मिले और दावा करता है कि अपने इस कृत्य के लिए स्कूल माफ़ी माँगे…।
ज़ाहिर है कि सत्ता पक्ष को यह शर्त मंज़ूर न होनी थी और उसने बड़ी नामी-गरामी, बहुत महँगी वकील किया है – कामिनी माहेश्वरी को। इस भूमिका में सलीके से आकर्षक, दिखने में पियारी (क्यूट) यामी गौतम हैं। सत्ता पक्ष के वकील रूप में हारने की उनकी एक और फ़िल्म है – ‘मीटर चालू बत्ती गुल’, जिसमें शाहिद कपूर इन्हें शरारती व खिलन्दड़े ढंग से हराता है, लेकिन यहाँ तो मंदिर के एक पुजारी की हैसियत ही नहीं वकील रखने की। इसलिए मजबूरी में, क़ानून की कोई जानकारी न होने के बावजूद, कांति खुद ही अपना मुक़दमा लड़ने की ठानता है। अंग्रेज़ी में एक कहावत है – डूइंग इज लर्निंग। और समस्या का क़हर तो उस पर ही टूटा है…। सो, भोक्ता ही कर्त्ता बनता है और ऐसा बनने में कांतिजी ‘प्रयत्न व भूल’ सिद्धांत के माफ़िक़ पूछ-पूछ कर सीखता है, सोच-सोच कर करता है…। यह मामला भी पहली वाली ‘ओ॰एम॰जी’ जैसा ही है। वहाँ भी वादी अपना मुक़दमा खुद लड़ता है, जो जाँचे-परखे नामचीन परेश रावल रहे – हिट भी रहे। इस बार उनकी तुलना में अभी बहुत कम, पर यूँ काफ़ी लोकप्रिय पंकज त्रिपाठी हैं। परेशजी इस बार क्यों नही हैं, का उत्तर उन्हीं की ज़ुबानी – ‘मुझे इस भूमिका में दम नहीं लगा’। इस पर उनसे मेरा सवाल – परेश भाई, आपकी भूमिका में दम था क्या, उसका तो सम्बंध ही ज़मीन से न था। आसमान से खींच कर जीवन में लाये गये उस विषय का कोई हल था ही नहीं। तभी तो वह भगवान बने अक्षय के सुपर पॉवर में उपराम पाता है…। उसका एक हिट मक़सद साबित हुआ था – हिंदू धर्म की खिल्ली उड़ाना, जिसमें हिंदूतर लोगों के लिए फ़िल्म ख़ासी सफल हुई थी…। कला-विवेचन की भाषा में कहें, तो वह विधान में सिर्फ़ फेंटेसी है और प्रस्तुति में बेहद अतिरंजित होकर फ़ार्स हो गयी है। जब समस्या ही कृत्रिम है, तो अभिनय में भी कृत्रिमता (मैनरिज्म) होनी ही थी, जो सभी कलाकरों में रही – सबसे ज़्यादा तो बंगाली दादा में…।
तो परेश भाई, दम तो सचमुच इसी भूमिका में है, जो वृहत्तर समाज के यथार्थ को लेकर चलती है। हर आदमी के अंतस् में निहित है यह समस्या, जो उसके समूचे बाह्य को बेतरह प्रभावित करती है। इसमें लोग पगला जाते हैं –‘नाचहिं नट-मर्कट की नाईं’ हो जाते हैं। तभी तो पंकज को न मैनरिज़्म की ज़रूरत थी, न वे लाये। इसके बदले पंकज में सिरे से गज़ब की नाट्यमयता है। उन्हें मैं उनकी बेनामी में जानता था। इसीलिए उनके अभिनय पर मेरी नज़र रही है…। सब काम तो नहीं देख पाता, लेकिन जितना देखा, अधिकांश छोटी-मोटी भूमिकाएँ मिलीं…। शुरुआती दौर में ‘अनारकली ऑफ़ आरा’ में कुछ बड़ी थी, फिर इधर ‘मिमी’ में और बड़ी हुई। नायकत्व वाली ‘काग़ज़’ भी देखी। लेकिन यह मेरी ही दृष्टि का भ्रम होगा कि भूमिकाओँ में पंकज प्रायः भागते नज़र आते – याने ठहरते (होल्ड करते), मुक़ाबिल होते न दिखते…। मैं निराश होता था। लेकिन इस बार ऐसा क़तई न हुआ…ठहरे क्या, जम गये। भूमिका पर चढ़े नहीं और जमा दिया पूरी फ़िल्म को – ख़ास तौर पर यौन शिक्षा की अनिवार्यता के इस विषय को। तभी लिखने का मन भी हुआ। मुख्य भूमिका-स्वरूप पंकजजी नायक तो हैं ही, पूरी फ़िल्म उनकी है। अक्षय के नाम का प्रचार ज़रूर हुआ, पर फ़िल्म ने विधान में ही उन्हें बाहरी बना दिया है। और पंकज ने बड़ी सूझ-बूझ से इसे निभाया है, लेकिन दिखने में वे निभाते हुए नहीं, करते हुए लगे – सहज, स्वत:-स्फूर्त्त। वकालत से अनजान, ‘प्रयत्न और भूल’ की प्रक्रिया में जो किरदार बनता है, वह अभिनय-प्रक्रिया में भी खुलकर उभरता है – याने उनकी वकालत में भी सीखना-करना आप देख सकते हैं। यह चरित्र-निरूपण और यह तल्लीनता ही ऐसे अभिनय व ऐसे परिणामों की कारक होती है। उन्होंने किरदार में अपने को ढालकर रचा है – अदा में, भाव में, क़्रिया में…।
दोनो वकीलों की जिरह-बहस में ही फ़िल्म चलती है। लेकिन चाहे यह फ़िल्म-लेखन की कमजोरी हो अथवा इरादतन ऐसा किया गया हो या फिर विषय की अपनी नियति हो, पर स्कूल-पक्ष के पास तर्कों का अकाल है। उनके पास सिर्फ़ एक ही मुख्य बात है – ‘विवेक ने जो किया, वह अश्लील है। इसे कैसे स्वीकारा जा सकता है’? और यह बनी-बनायी, मानी-मनायी धारणा है, जिसे तोड़ना और नया विचार लाना ही फ़िल्म का मक़सद है। ऐसा करने के लिए कांतिजी के पास कामसूत्र से लेकर पंचतंत्र तक के तमाम ग्रंथों के साथ स्मारकों-मंदिरों…आदि पर बने भित्ति-चित्रों में व्यक्त प्रतीकों के ढेरों प्रमाण हैं, जो बताते हैं कि यौन-शिक्षा की अवधारणा भारत में पुराकाल से है। यहाँ फ़िल्म यह कहना भूल जाती है कि इस स्वस्थ खुलेपन में आयी बंदिशें समूचे मध्य काल के दौरान मूलत: आक्रांताओं की हुकूमतों के कारण आयीं…और समाज-संस्कृति का हिस्सा बन गयीं – ख़ास अंगों के लिए ‘गुप्तांग’ जैसे शब्द ऐसे ही इतिहास की देन हैं…। समाज में व्याप्त इसी तरह के वर्जनात्मक प्रचलनों से बनी शर्मिंदगी का फ़ायदा उठाते हुए कांति के बेहद पारम्परिक (रूढ़िग्रस्त भी कह सकते हैं) परिवार से जिरह करने का शातिर तरीक़ा निकालती हैं कामिनीजी। लेकिन सुखद होता है कि पत्नी-बेटी दोनो ही अपने बयानों को बहुत सही अंजाम देती हैं…। पत्नी तो ‘ऐसा सभी करते हैं आड़ में’…कहते हुए बड़े हौले से जज से भी पूछ देती हैं – ‘आप नहीं किये क्या’? इस पर जज अवाक्…जनता खिलखिला उठती है। सिद्ध होता है कि जो सभी करते हैं, जिसका सबको पता है, उसे कहने-सिखाने में क्या हर्ज? मीडिया में यू ट्यूब…आदि पर बहुत कुछ सहज सुलभ है। ‘गुड टच-बैड टच’ जैसे शब्द आज प्रायः कहे-सुने जाते हैं। बहुत कुछ बायोलोजी में भी आ जाता है, तो सीधे पढ़ाने में हर्ज क्या?।
मां-बेटी की गवाहियों से गुजरते हुए फ़िल्म अपनी ऊँचाइयाँ छूने लगती है। कामिनी ही कह पड़ती है – सिखा-पढ़ा के लाये हो…! इस पर भी कांति कहने से चूक जाते हैं कि वकील से गवाह तक सबका तैयारी करके आना ही तो मुक़दमे का कौशल है। और न जाने कैसे विवेक की सहकलाकार सोफ़ी को जिरह के लिए नहीं बुलवाया जाता, जो लगभग सारे मामले की अप्रकट जनक रही है।
यौन-कार्य सीखने-सिखाने की क़्रिया है, इसे एक काम-कर्मी (सेक्स वर्कर) स्त्री के ज़रिए भी कांतिजी सिद्ध करते हैं। इस तरह यौन-शिक्षा को उचित सिद्ध होते देखकर कामिनी तर्क देती हैं कि ऐसे में यह मुक़दमा शिक्षा विभाग के ख़िलाफ़ होना चाहिए – स्कूल के खिलाफ क्यों? लेकिन इसका बेहद माकूल जवाब ऐसा कि हॉल में तालियाँ बज जाती हैं – ‘टाटा की कार से दुर्घटना होती है, तो मुक़दमा चालक पर होता है – श्रीमान टाटा पर नहीं न महराज’!!
यहाँ इस ‘महराज’ शब्द के सूत्र से फ़िल्म की भाषा-विषयक ख़ास सोच-प्रयोग पर ज़रा ध्यान दें – ‘मीलॉर्ड’ (माई लॉर्ड) का विशुद्ध शब्दानुवाद है महाराज। इसी की जानिब से फ़िल्म में भाषा का ख़ास आयाम समय व समाज के लिए बड़ा बोनस बनकर आया है। महाराज शब्द कांति के कार्यक्षेत्र – धर्म से भी गहरे जुड़ा है। उत्तर भारत में ख़ासा प्रचलित शब्द है। इसीलिए पंकज के बोलने में सोहता है। चरित्र की धार्मिक पृष्ठभूमि की डोर पकड़े अदालत में शुद्ध हिंदी का प्रयोग भी कमाल का काम करता है। बोलचाल में जो कहना अश्लील लगता है, शुद्ध हिंदी में वही हिट व फ़िट हो जाता है…काश, अभियुक्त की बहन नंदिनी की गवाही के संवाद याद हो पाते और उदाहरण दे पाता…!! यहीं यह कहना भी मौजूँ होगा कि कांति को नाहक ही मुद्गल नाम और फ़िल्म-भाषा को मालवा का लहजा दे दिया गया है। हालाँकि पंकज इसे भी ठीक से निभाते हैं, पर सीखा हुआ छिप नहीं पाता। ऐसे में उन्हें भोजपुरी दे देते, तो वे उसमें अपने मातृ लहजे से नक़्क़ाशी कर देते…सोने में सुहागा हो जाता…! लेकिन अदालत में सप्रयोजन रूप से हिंदी में जिरह-बहस का समावेश कराने के लिए फ़िल्मकार का दिली इस्तक़बाल करना बनता है। ‘ऑब्जेक्शन’ के लिए ‘आपत्ति’ जैसा सहज-सटीक शब्द बार-बार आकर मन को यूँ हुलसाता रहा कि इस अमृत महोत्सव के अवसर पर न्यायालय में ही सही, हिंदी का मनचाहा प्रचलन तो रवाँ हो पाता…!! वरना यह राष्ट्र के लिए लगातार शर्म की बात है कि आज़ादी के ७५ साल बाद भी आम आदमी की ज़िंदगी के मूलभूत सरोकारों से जुड़ी अदालती कार्यवाहियाँ अंग्रेज़ी में होती हैं, जो बहुसंख्यक आबादी के लिए अबूझ है।
अदालत की पूरी कार्यवाही के दौरान विवेक व यौन-शिक्षा के साथ जज की सहानुभूति बनती देखी जा सकती है। असल में किसी भी कृति या कला-निर्मिति में कुछ विरल, नया, सार्थक करने के लिए कोई एक संवेदनशील व समझदार पात्र सृजित होता है – ‘महाभारत’ में महात्मा विदुर या ‘शोले’ फ़िल्म में जय ऐसे ही पात्र हैं। इसी कड़ी में फ़िल्म के जज साहब पहले तो इस मामले को विचारार्थ मंज़ूर करते हैं, फिर बहस के दौरान सनातन के चार स्तम्भों, अजंता की गुफाओं व पुरी के मंदिरों…आदि प्रमाणों को कामिनी द्वारा फ़िज़ूल कहने जैसे मुक़ामों पर सार्थक दख़ल देते पाये जाते हैं – ‘यह मैं तय करूँगा कि क्या फ़िज़ूल है या नहीं…’। और कहना होगा कि जज बने पवन मल्होत्रा ने सत्-असत् की परख में तटस्थ व तल्लीन के बीच सुलझे अभिनय से फ़िल्म में कारगर भूमिका निभायी है। अंत में विवेक को फिर अदालत में बुलाते हैं। पहले और अब के दोनो बयानों में विवेक बने आरुष शर्मा के दोनो ही रूप स्पृहणीय बन पड़े हैं – इल्ज़ामों से बेइज्जत होने का दयनीय-सर्वहारा रूप और बाद में आत्मविश्वास से भरे उल्लास-हुलास का मसृण-मुस्कान वाला रूप…। खुद को ठीक से नियोजित कर पाये, तो अभिनय-क्षेत्र में आरुष का भविष्य उज्ज्वल है…!!
लेकिन एक वयस्क व नितांत उपयोगी निर्णय की अंतरिम व सर्वसम्ममत स्वीकृति के लिए अदालत पूछती भी है जनता से – विवेक के साथ कौन खड़ा है? तो सबसे पहले जज के ही विस्तार रूप में उनका बेटा प्रस्तुत होता है…और फिर उमड़ ही पड़ते है लोग…।
इस प्रकार बड़े क़रीने से कदम-दर-क़दम चलती अदालती कार्यवाही में विवशता से उत्पन्न नैतिक मूल्यों वाला कांति-मत क़ानून-सम्मत होकर बन जाता है – जज-मत और फिर लोकसम्मत होकर जन-मत…इस तरह सिद्ध होती है यौन-शिक्षा की निर्विवाद वैधता…। आमीन!!
(लेखक साहित्य, कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)