Anil Singhअनिल सिंह । 
वर्ष 2017 में देश की कुल व्यक्तिगत संपदा का 70% भाग सिर्फ 57 लोगों के पास था। पिछले तीन दशकों में मध्यवर्ग लगभग दो गुना, और 1990 से 2020 के बीच गरीबी रेखा के नीचे संघर्षरत जनसंख्या का प्रतिशत आधा हो चुका है। 1991 से प्रारंभ हुई उदारीकरण की नीति का परिणाम मिला जुला, फिर भी कुल मिलाकर सकारात्मक ही प्राप्त हुआ। किंतु यह लाभ विशेषकर औद्योगिक और सेवा क्षेत्र के लोगों को ही मिल सका।

 

ग्रामीण भारत आर्थिक उदारीकरण से लगभग अछूता ही रह गया। हरित क्रांति से मिले लाभों के उपरांत कृषि अर्थव्यवस्था स्थिर ही बनी रही है। आज हमारी श्रम शक्ति का लगभग 60% भाग कृषि एवं उसके सहायक कार्यों में ही संलग्न है , जबकि देश की जीडीपी में उस का योगदान महज 23% का है। यह यथास्थिति बनाए रखने का अब कोई औचित्य नहीं रह गया।
अर्थव्यवस्था के कृषि क्षेत्र को गति प्रदान करने के उद्देश्य से सरकार अध्यादेश ले आई है। संक्षेप में परिकल्पना यह है कि कृषि उत्पादों की खरीद-फरोख्त को एपीएमसी मंडियों के एकाधिकार और जकड़ से बाहर निकालकर बाजार को खोल दिया जाए। अब किसान अपने उत्पाद को, बिना कोई शुल्क दिए, किसी भी खरीदार को आपसी समझौते के आधार पर बेच सकते हैं। कांट्रैक्ट फार्मिंग को भी सरल बनाने का प्रयास किया गया है। कृषि कार्य हेतु भूमि लेने वाला पक्ष कटाई के समय ही निर्धारित कीमत चुका देगा। यदि किसी विवाद की स्थिति आती है तो उसका निपटारा उप जिला अधिकारी के अधीन बनी कमेटी द्वारा किया जाएगा। और यदि तब भी विवाद नहीं सुलझ पाता तो जिलाधिकारी के यहां अपील की जा सकती है। इसे सिविल कोर्ट के अधिकार क्षेत्र से पूरी तरह बाहर रखा गया है। और अंततः परिस्थितिजन्य अपवादों  के अतिरिक्त उत्पादों की स्टॉकहोल्डिंग पर से प्रतिबंध भी हटा दिया गया।

असन्तोष का मूल

एपीएमसी मंडियों के माध्यम से किए गए खरीद-फरोख्त पर राज्य सरकार शुल्क लेती है और अढ़तिया कमीशन। उदाहरण के लिए पंजाब में राज्य सरकार का शुल्क 6% है और अढ़तिया का कमीशन 2.5%। यदि कृषि उत्पाद को मंडियों के बाहर बिना किसी शुल्क के बेचने की सुविधा मिल गई है तो फिर इन मंडियों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा और फिर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमपीएस) भी प्राप्त नहीं होगा। किसानों में उपज रहे असंतोष के मूल में यही समस्या है।
न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रमुखतया गेहूं और धान की खरीद पर ही प्राप्त होता है, जो फसलों के कुल उत्पादन का 35 से 40% तक ही होता है। उसमें भी कुछ राज्यों, जैसे पंजाब और हरियाणा में ही बड़ी मात्रा में इन मंडियों के माध्यम से खरीद होती है। इस नए प्रावधान से पंजाब सरकार, अढ़तियों और बड़े किसानों को ही अधिक हानि होने वाली है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि वही इसका सर्वाधिक विरोध करें। केंद्र सरकार ने यह आश्वासन तो दिया है कि एमपीएस जारी रहेगा; हां, उसे कोई वैधानिक जामा नहीं पहनाया है।
Why Indian Farmers Are Killing Themselves

ग्रामीण अर्थव्यवस्था खोलने का प्रयास

वर्तमान सुधार, कृषि उत्पादों को खुली बाजार व्यवस्था में लाने का प्रयास हैं। इससे अर्थव्यवस्था के  कैश-स्टार्व्ड सेगमेंट में व्यक्तिगत निवेश प्रोत्साहित होगा, तो विकसित तकनीक आएगी। वेयरहाउसिंग और सप्लाई चैन के बन जाने से उत्पाद का खेतों से उपभोक्ता के टेबल तक पहुंचना अधिक चुस्ती से हो सकेगा, जो निसंदेह आधारभूत ग्रामीण संरचना के विकास में सहायक होगा। पैन इंडिया e-platform के माध्यम से बेहतर कीमत प्राप्ति का तंत्र विकसित होगा। दुर्भाग्यवश आज की अत्यधिक केंद्रीकृत आक्रामक राजनीति इस विषय में कुछ भी सोचने को तैयार नहीं होगी। किंतु मेरी दृष्टि में ग्रामीण अर्थव्यवस्था को खोलने का यह एक उचित और सकारात्मक उपाय है।
भारत में 82% छोटे किसान हैं और औसत कृषि जोत 2 हेक्टेयर से भी कम। अधिकांश सीमांत कृषक अशिक्षित हैं और उनके पास पैसा भी नहीं है। वह किसी किसी तरह से अपना पेट भर पाते हैं। ऐसी स्थिति में वे किसी प्रकार की सौदेबाजी के विषय में तो सोच ही नहीं सकते। इसके लिए उन्हें ऐसा सहयोग मिलना ही चाहिए जो उचित सौदा करा सके। दशकों से हम दलालों और अढ़तियों द्वारा उन किसानों की की जा रही दुर्दशा देख रहे हैं। नई व्यवस्था से उत्पादकता में वृद्धि के साथ ही साथ उपभोक्ता कीमतों में किसान की हिस्सेदारी भी बढ़ेगी। वर्तमान समय में यह हिस्सेदारी 10 से 23% (उत्पाद विशेष के आधार पर) है। इसकी तुलना में विकसित अर्थव्यवस्थाओं में उपभोक्ता कीमतों में किसान की हिस्सेदारी 64 से 81% तक की है।


जोखिम उठाने की स्थिति में नहीं गरीब किसान
आज भारत में हरित क्रांति पारिस्थितिक आपदा की तरफ बढ़ती हुई दिखाई दे रही है। अधिक उपज देने वाली फसलों पर ही केंद्रित होने के कारण उनकी अनुवांशिक विविधता और साथ ही साथ स्थानीय भिन्नताओं का भी संकुचन होता जा रहा है। बाजार की आवश्यकता पर ही विशेष बल दिए जाने के कारण अब मल्टी क्रॉपिंग और वैज्ञानिक ढंग से क्रॉप रोटेशन की भी उपेक्षा की जाने लगी है। विशेषकर धान और गन्ने की खेती के लिए भूजल स्रोतों के निरंतर दोहन के कारण जल स्तर प्रतिवर्ष लगभग 1 फीट नीचे खिसकता जा रहा है। जलाई जाने वाली पराली, रासायनिक खादों और कीटनाशकों के बढ़ते प्रयोग ने मिट्टी, पानी और वायु तीनों के प्रदूषण स्तर को खतरे के बिंदु से पार पहुंचा दिया है।
South Asian farmers start sowing summer crops despite high costs, labour  shortage and coronavirus
कारपोरेट सेक्टर, अपने चरित्र के अनुरूप, जैसे भी हो केवल लाभ कमाना चाहता है। यदि उसे खुला छोड़ दिया गया तो वह कृषि क्षेत्र में भी वह यही करेगा। औद्योगिक क्षेत्र में हमने देखा है कि, सिविल सोसाइटी के निरंतर प्रयास से, प्रदूषण नियंत्रण के लिए सरकार ने समुचित कदम उठाए। कृषि क्षेत्र में समस्या यह है कि गरीब किसान, ऐसे  किन्हीं प्रयासों के चलते होने वाली तात्कालिक हानि को भी वहन करने की स्थिति में नहीं है।

सरकार क्या करे

फिर भी सरकार अपना कदम पीछे नहीं  खींचना चाहिए। तात्कालिक कठिनाइयों के कारण भविष्य में होने वाली तबाही से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। समुचित नीति निर्धारण और तदनुरूप व्यवस्था करनी ही होगी।
क्या सरकार इसके लिए तैयार होगी ? पिछले अनुभव बहुत आशा तो नहीं जगाते। जो भी हो , वर्तमान सुधारों को सरकार ऑर्डिनेंस के माध्यम से ही सही, लेकर आई तो। जिस समय यह बिल लाया गया, विपक्ष द्वारा उसे सेलेक्ट कमेटी को भेजे जाने की मांग सरकार द्वारा ठुकरा दी गई। लेकिन विपक्ष भी, सिवाय शोर मचाने के कोई तार्किक विकल्प या प्रारूप प्रस्तुत नहीं कर सका।
प्लेटो ने लोकतंत्र की आलोचना करते हुए, इसे ठीक ही- पेशेवर राजनीतिज्ञों की सरकार कहा था। उनकी प्राथमिकता मात्र चुनावी सफलता ही होती है, जिसके लिए कभी-कभी जनता के हित की बात भी कह दी जाती है।
(लेखक प्रख्यात शिक्षाविद हैं और विभिन्न विषयों पर उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं)