अनिल सिंह ।
भीष्म का पराभव और द्रोण का वध- इन दोनों अवसरों पर भी कृष्ण का कार्य उनके व्यापक उद्देश्यों की प्राप्ति एवं युद्ध की दृष्टि से सर्वथा समर्थनीय हैं। यदि पितामह और गुरु अपने पौत्रों -प्रपौत्रों और शिष्यों के विरुद्ध, अन्याय के पक्ष में युद्ध में खड़े होते हैं तो उसकी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है। एक बार युद्ध के लिए तत्पर हो जाने पर उसे अंत तक ले जाना ही कर्तव्य हो जाता है। कृष्ण का उद्देश्य इतना ही है कि दोनों को किसी तरह युद्ध से हटा दिया जाए। उन्होंने संधिवार्ता के समय युद्ध को टालने के प्रयासों की जो पराकाष्ठा प्रदर्शित की उसी तरह एक बार युद्ध छिड़ जाने पर उसे प्राणपण से जीतने के लिए भी उन्होंने कोई कसर उठा नहीं रखी। एक बार युद्ध में खड़े हो जाने के बाद किसी प्रकार की दया-माया का प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि दूसरे पक्ष से भी ऐसी आशा नहीं की जा सकती।
व्यक्तिगत धर्म, व्यापक धर्म
युद्ध के नौवें दिन पितामह भीष्म महाविनाश पर उतारू हैं, जिसका प्रतिकार अर्जुन अनमने ढंग से कर रहा है। ऐसे में तो कौरवों की विजय निश्चित हो जाएगी। किंतु कृष्ण अधर्म की विजय कैसे होने दें? शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा का पालन करते हैं तो अधर्म विजई होगा। वे व्यक्तिगत धर्म की रक्षा के लिए व्यापक धर्म को पराजित नहीं होने देते। साथ ही भीष्म अपने समस्त सद्गुणों के बावजूद उन परंपरागत मान्यताओं के भी सबसे सशक्त प्रहरी हैं, जिनके विरुद्ध कृष्ण संकल्पबद्ध हैं। कृष्ण अविलंब भीष्म की ओर दौड़ पड़ते हैं। तब अर्जुन किसी तरह उन्हें वापस लाता है और अगली सुबह भीष्म को धराशाई करता है। कृष्ण के लिए समष्टि के धर्म की रक्षा किसी भी कीमत पर होनी ही चाहिए।
गुरु द्रोण के संबंध में कृष्ण की स्पष्ट मान्यता है कि द्रुपद से लिए गए प्रतिशोध के कारण वे अपना ब्राह्मणत्व खो चुके हैं। इसलिए भी उन्हें किसी भी प्रकार मार्ग से हटाने में कोई दोष नहीं है।
अर्जुन के ‘योगक्षेम’ का भार उठाया
कृष्ण ने स्वयं अपना उतना ध्यान नहीं रखा, जितना अर्जुन का। उन्होंने सदा अर्जुन के ‘योगक्षेम’ का भार उठाया। अभिमन्यु वध की सूचना पाकर अर्जुन ने प्रतिज्ञा की कि अगले दिन सूर्यास्त से पूर्व वह मुख्य आरोपी जयद्रथ का वध कर देगा। कृष्ण चिंतित हुए और अगले दिन के युद्ध की योजना बनाने में जुट जाते हैं। उन्होंने अपने सारथी दारुक को बुलाकर कहा-‘मेरा रथ जोड़कर उसे उत्तम शस्त्रों से सुसज्जित करो। अर्जुन नहीं मार सका, तो जयद्रथ को मैं मारूंगा, सभी कौरवों को समाप्त करूंगा। संतान, संबंधी, या कोई भी मुझे अर्जुन से अधिक प्रिय नहीं है। अर्जुन के बाद एक क्षण भी मैं जीवित नहीं रह सकता। वह मेरा शरीरार्ध है- कल इसे सभी जान लेंगे।’ कृष्ण ने दूसरे किसी के भी संबंध में ऐसी हार्दिकता ऐसी व्याकुलता, नहीं दिखाई। रथी- सारथी की एकात्मता यही तो है। सारथी, वह भी उत्तम रथी, उत्तम योद्धा, उत्तम अस्त्रविद। फलतः रथी अर्जुन सूर्यास्त से पूर्व लक्ष्य भेद कर ही लेते हैं।
कर्ण जब अपनी अमोघ शक्ति का प्रयोग घटोत्कच पर कर देता है तो कृष्ण प्रसन्न ही होते हैं। इसके उपरांत ही वह अर्जुन का रथ कर्ण के सामने लाते हैं। जब कर्ण के रथ का चक्र धरती में धंस जाता है तब वह धर्म की दुहाई दे अर्जुन से रुकने के लिए कहने लगा। परंतु कृष्ण ने उसे सांस न लेने दी। पिछले सारे दोष गिनाकर और ‘ कर्ण तब तुम्हारा वह धर्म कहां गया था?’ कह कर उसके द्वारा किए गए पिछले सभी अपमानों की प्रतिमा ही खड़ी कर देते हैं। कर्ण मारा जाता है।
संपूर्ण विनाश के उपरांत युद्ध समाप्त होता है। केवल दुर्योधन बच गया। प्राणभय से वह छिपता रहा। कृष्ण ने उसे खोज निकाला और बड़ी निष्ठुरता से उसे भी भीम के हाथों मरवा देते हैं। इस प्रसंग में फिर एक बार कृष्ण, युधिष्ठिर के बड़बोलेपन के कारण विषम होती स्थिति को, अपनी बुद्धि- कौशल से संभाल लेते हैं।
कृष्ण का कार्य अभी भी शेष है। वे ही दुर्योधन की मृत्यु की सूचना देने धृतराष्ट्र और गांधारी के सामने जाते हैं। केवल अर्जुन को ही नहीं, दूसरे पांडवों को भी उन्होंने फिर बचाया। गांधारी का कोप और शाप दोनों उन्होंने अपने ऊपर ले लिया। कृष्ण को गांधारी ने शाप दिया- ‘ जैसे हमारे कुल का सर्वनाश हुआ वैसे ही तुम्हारे कुल का भी सर्वनाश हो जाएगा और हम जिस तरह आपस में ही कलह करके मरे उसी तरह तुम भी आपस में ही कलह करके लड़ मरोगे।’ कृष्ण यह शाप भी विनम्रता पूर्वक हंसते -हंसते स्वीकार करते हैं- ‘ माता, आपका शाप आशीर्वाद मानकर स्वीकार करता हूं; कारण यादवों का सामर्थ्य उनका अपना नाश करे, यही योग्य है। उनको दूसरा कोई परास्त नहीं कर सकता।’
प्राकट्य जिस प्रकार अंत का द्योतक है, उसी प्रकार यह अंत इसके निश्चित हेतु के साथ जुड़ा हुआ है। महाकाल के लिए व्यक्ति- फिर भले ही वह तत्कालीन युग में जितना महान हो, एक बिंदु से अधिक स्थान नहीं रोक सकता। एक समारोह में यादव खूब मदिरापान करते हैं और एक -दूसरे पर तरह-तरह के आरोप लगाते हुए आपस में ही लड़ मरते हैं। कृष्ण की आंखों के सामने ही उनके कुल का लगभग संपूर्ण नाश हो जाता है, तो भी वे अधीर नहीं होते, अंतिम क्षण तक शांत बने रहते हैं। सभी प्राप्त कर्तव्यों का भार जिस तरह वहन किया, उसी तरह कर्तव्य -कठोर होकर वे उस स्थिति का भी सामना करते हैं। आगे का सारा दायित्व अर्जुन को सौंप स्वयं संसार छोड़ जाते हैं।
महाभारत के कृष्ण के चरित्र में सभी प्रकार के सुख -दुख, विकार दिखाई तो देते हैं, पर विलक्षण निर्लिप्तता और अनासक्ति के साथ। उन्होंने गीता केवल गाई ही नहीं, उसे जिया भी। (जारी)