शालिवाहन शक पंचाग के अनुसार सावन अमावस्या के दूसरे दिन महाराष्ट्र के नागपुर में लगभग 127 वर्षों से मारबत का उत्सव मनाया जाता है। काली, पीली मारबत और बडग्या के प्रतीकात्मक पुतलों की यात्रा निकाल कर दहन किया जाता है। शुक्रवार को होने वाले इस उत्सव को लेकर नागपुर वासियों में खासा उत्साह नजर आ रहा है।हमारे कृषि प्रधान देश में महाराष्ट्र और कर्नाटक ऐसे राज्य हैं जहां किसानों के दोस्त कहे जाने वाले बैल को पोला त्योहार पर सम्मान दिया जाता है। भारतीय सभ्यता के अनुसार मनुष्य जीवन से जुड़ी सृष्टि की अवधारणा में पर्यावरण में मौजूद नदियां, पहाड़, पशु-पक्षी सभी का समावेश होता है। नतीजतन किसान की मेहनत में साझेदार बैल के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए पोला त्योहार मनाया जाता है। नागपुर में इस दो दिवसीय त्योहार के दूसरे दिन मारबत निकालने की परंपरा है। इसमें काली मारबत 1881 और पीली मारबत 1885 से निकाली जाती है। इन दोनों मारबत मूर्तियों की अलग-अलग यात्राएं निकलती हैं और बीच रास्ते में यह दोनों यात्राएं मिलकर आगे का रास्ता एकसाथ तय करती हैं। इस मौके पर “इडा, पीडा, खासी खोकला घेऊन जा गे मारबत!” ऐसी घोषणाएं की जाती हैं।

बुराई के प्रतीक हैं मारबत और बडग्या

नागपुर में तान्हा पोला के दौरान मारबत और बडग्या निकाले जाते हैं। मारबत और बडग्या को बुराई के प्रतीक के रूप में माना जाता है। इस परंपरा को चलाने के लिए मारबत का निर्माण करने वाले कारीगरों की पीढ़ियां अब भी काम कर रही हैं। यह परंपरा काली और पीली मारबत बनाकर आज भी चलाई जा रही है। नागपुर के जागनाथ बुधवारी इलाके मे स्थित तर्हाने तेली समाज मंडल की ओर से 1985 से पीली मारबत निकाली जाती है। मूर्तिकार शेंडे परिवार पीढ़ियों से मारबत बनाते आ रहे हैं। मूर्तिकार के रूप में मारबत निर्माण में सदाशिव वस्ताद तडीकर की भी पीढ़ियां कई दशकों से कार्यरत हैं।

पीली मारबत के निर्माण की शुरुआत 1885 में की गई थी। इसे बनाने का उद्देश्य उस शहर में फैल रही बीमारियों से मुक्ति पाना था। उस समय शहर में बीमारियों का दौर चल पड़ा था। तब लोगों में एक धारणा बन गई थी कि मारबत का निर्माण करने से बीमारियों से मुक्ति मिलती है और इसी के तहत लोगों ने इसका निर्माण शुरू किया।

 

उसी प्रकार काली मारबत का भी इतिहास बहुत पुराना है। इसका निर्माण 1881 से किया जाता है। काली मारबत को महाभारत काल में कंस की बहन पूतना राक्षसी का रूप दिया गया है। श्रीकृष्ण के हाथों पूतना के मारे जाने के बाद गोकुलवासियों ने पूतना की प्रतीक काली मारबत को गांव के बाहर ले जाकर जला दिया था, इन मनोकामनाओं के साथ कि गांव की सभी बुराइयां एवं कुप्रथाएं बाहर चली जाएंगी। तभी से काली मारबत का निर्माण किया जा रहा है। ऐसी धारणा है की मारबत को शहर से बाहर ले जाकर जलाने से सारी बुराइयां, बीमारियां, कुरीतियां भी खत्म हो जाती हैं।

क्या है ‘तरुण पीली’ मारबत

उसी प्रकार नागपुर के जुनी मंगलवारी इलाके में श्री साईंबाबा सेवा मंडल सार्वजनिक पीली मारबत उत्सव समिति की ओर से प्रतिवर्ष जवान पीली मारबत का निर्माण किया जाता है। कहा जाता है कि यह मारबत जागनाथ बुधवारी से निकलने वाली पीली मारबत की बेटी है। इसलिए इसे ‘तरुण पीली’ मारबत कहा जाता है। इस मारबत का निर्माण 121 वर्षों से किया जा रहा है। इसके निर्माण की शुरुआत स्व. काशीराम मोहनकर नामक व्यक्ति ने की थी। उन्होंने उम्र के 80 वर्ष तक यह मारबत बनाई। उनकी मृत्यु के बाद अब उनके पुत्र मनोहर मोहनकर इस मारबत का निर्माण कर रहे हैं।

मारबत के साथ बडग्या की परंपरा

करीब सवा सौ वर्ष पुरानी मारबत की परंपरा के साथ बीते कुछ दशकों से नागपुर में बच्चों ने बडग्या की परंपरा को भी जोड़ दिया। कागज, पेड़ की टहनियों और अपने घरों का कचरा आदि की सहायता से बच्चे बडग्या का निर्माण करते थे, उन्हीं बच्चों से प्रेरणा लेकर बड़े लोगों को भी अपनी भावनाओं और गुस्से को व्यक्त करने के लिए बडग्या के रूप में एक सशक्त माध्यम मिल गया। शहरभर में घुमाने के बाद बडग्या का दहन कर देते हैं। बडग्या का निर्माण करने वाले ऐसे बहुत से मंडल शहर में सक्रिय हैं। सभी मंडलों ने अपने-अपने बडग्या का निर्माण शुरू कर दिया है। प्रतिवर्ष यह मंडल समाज की किसी न किसी बुराई को प्रेरणास्रोत बनाकर बडग्या का निर्माण करते हैं।(एएमएपी)