जिलेदार राय।

मुम्बई में ‘बतरस’ नामक सांस्कृतिक संगठन का एक इतिहास रहा है…पिछली सदी के अंतिम वर्षों से शुरू होकर लगभग डेढ़ दशक तक इतने बड़े शहर के सांस्कृतिक जगत की धड़कन बन गया था ‘बतरस’…। हर माह के दूसरे शनिवार को इसके आयोजन का सभी को इंतजार रहता था। विविध रूपी (और विविधरंगी भी) कार्यक्रम होते थे…। किसी सामयिक विषय से लेकर चिरंतन महत्त्व के कालजयी विषयों पर आम जन से लेकर विद्वानों व मंजे हुए कलाकारों…द्वारा गीत-संगीत-नाट्य, लोकगीत-कविता-कथा-संस्मरण, विवेचन-विमर्श…आदि सभी रूपों में कार्यक्रम होते थे…। स्थल भी बदलता रहता था – किसी के घर से लेकर किसी व्यवस्थित सभागार तक और विरार-कल्याण से लेकर फ़ोर्ट व मैरीनड्राइव इलाक़े तक कहीं भी कार्यक्रम होते थे…। एक कार्यक्रम के दौरान ही अगले कार्यक्रम के विषय तय हो जाते थे और किसी रसिक के प्रस्ताव व उपलब्धता के अनुसार स्थल की भी घोषणा हो जाती थी। इतने अनिश्चित व घुमंतू विधान की निश्चितता भी ग़ज़ब की थी कि इस उपक्रम में ५० से ७०-८० लोगों की उपस्थिति प्रायः हो ही जाती थी…।

अब लगभग एक दशक बाद शहर के ‘बतरस-प्रेमियों’ के आग्रहों पर इसका पुनरारंभ हुआ है और इसी माह के दूसरे शनिवार (९ सितम्बर) को साहित्य-संस्कृति के एक केंद्र के रूप में विकसित हो रहे उपनगर ‘मीरा रोड’ में स्थित ‘इंदिरा गांधी पुस्तकालय’ भवन के ‘वेरूँगला सभागार’ में उद्घाटन कार्यक्रम सम्पन्न हुआ, जिसका केंद्रीय विषय रहा – ‘आज़ादी के ७५ साल’। इसमें सबसे पहले हिंदी के मूर्धन्य आलोचक रमेश कुंतल मेघ तथा मुम्बई के सुपरिचित संस्कृतिकर्मी व पूर्व बतरसी अनंत श्रीमाली के दुखद निधन पर मौन श्रधांजलि दी गयी। फिर पंडित रविशंकर के स्वर में मंगलगीत के बाद शहर के सुपरिचित कवि रासबिहारी पाण्डेय द्वारा सरस्वती-गणेश-शिव की वंदना से कार्यक्रम की शुरुआत हुई।

बतरस का पूर्वापर – इसके बाद सत्यदेव त्रिपाठी ने ‘बतरस’ के पूर्वापर – याने तब की ‘बतरस’ की कार्य-पद्धति को आज की ‘बतरस’ से जोड़ने के उपक्रम में ज़ोर देते हुए कहा – “इसकी प्रकृति व विधान एकदम अनौपचारिक रह है…जैसे कि शॉल-श्रीफल से स्वागत, दीप-प्रज्वलन, प्रतिमा-पूजन जैसे आचार और संगठन में अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, मंत्री, कोषाध्यक्ष जैसे पदाधिकारी एवं पंजीकरण…आदि जैसी कार्यालयीन औपचारिकताएँ…बिलकुल नहीं होतीं। कोई सदस्यता-शुल्क व चंदा माँगा नहीं जाता…तो कोई हिसाब-किताब भी नहीं होता। इसी धन-पद के न होने से किसी विवाद-द्वंद्व-अलगाव की गुंजाइश ही न बनी…। फिर ‘बतरस’ किसी नेता-पूँजीपति या शक्तिमान की पालित-पोषित ‘बेबी’ भी नहीं है, जो पीछे से इसे चलाये…। यह एक स्वचालित संगठन है, जिसकी सदस्य पूरी दुनिया है…। सभी प्रतिभागी इस कार्यक्रम के आयोजक व कार्यकर्त्ता होते हैं – जैसे कार्ड व बैनर अनायास ही राकेशजी ने बना -बनवा दिये। इसी तरह जिसके भी मन में राष्ट्र व समाज की सभ्यता-संस्कृति…आदि को लेकर कुछ सोचने-कहने-करने की मंशा जागे, अपने संकल्पित विषय व विधान का प्रस्ताव लेकर आये – विचार-विमर्श कराये – याने ‘करने में आनंद जिसे हो, आये मेरी मधुशाला’ वाला मामला है। फिर उसी स्वेच्छा से कोई प्रायोजन (स्पोंसर) भी कर दे, तो सहर्ष स्वागत… और ऐसे लोग आते रहे हैं – भले साल में एक-दो ही…। बाक़ी तो हर महीने कुआँ खोदो, पानी पीयो ही ‘बतरस’ की मस्ती है। इन्हीं अनुपचारिकताओं का सफल रहा कि लगभग डेढ़ दशक चली ‘बतरस’ में न कोई सदस्य आया-गया, न कभी मतभेद हुए…। बस, सहयोग-सहकर्म का संभार बना रहा…।

लेकिन सामने से किसी का प्रस्ताव न आने पर कार्यक्रम तय करके उसे सम्पन्न कराने वाली एक कार्य-समिति रही। पिछले दौर में जिन चार ने शुरुआत की थी, उनमें से सुरेंद्र सारंग अब इस दुनिया में न रहे और डीडी वन पर १३ कड़ियों का लगभग पहला सीरियल ‘राग दरबारी’ बनाने वाले कृष्ण राघव लापता हैं। बस, मैं व विजय पंडित अभी तक मौजूद हैं। इन्हीं चार ने नामकरण किया था – ‘बतरस : एक अनौपचारिक सांस्कृतिक उपक्रम’। इसमें तीसरे महीने से जुड़कर अपनी सक्रियता से ‘बतरस’ के सबसे प्रमुख संचालक बन गये – अनंत श्रीमाली भी दुर्दैव से असमय दिवंगत हो गये।

इस बार इस कार्य-समिति में जुड़ गये हैं – सरनाम संस्कृतिकर्मी रमन मिश्र, शैलेश सिंह व प्रसिद्ध रंगकर्मी विजय कुमार जैसे सक्रिय साथियों के अलावा तीन युवा साथी भी जुड़े हैं, जिसमें लक्ष्मी तिवारी तो तब की सर्वाधिक सक्रिय कार्यकर्त्ता रहीं और उस बार शुरुआती दौर की एक प्रस्तोता (परफ़ॉर्मर) शाइस्ता खान लगभग डेढ़ दशक बाद शहर में पुनः प्रकट होकर जुड़ गयी हैं…। लेकिन सबसे सक्रिय होने का अलख जगाती हुई जुड़ी डॉ॰ मधुबाला शुक्ल की सक्रियता श्रीमाली जी की याद दिला रही है…।

मुख्य वक्तव्य का फ़ियास्को – इसके बाद कार्यक्रम के विषय ‘आज़ादी के ७५ साल’ के लिए ख़ास आमंत्रित वक्ता प्रो॰ अविनाश कोल्हे माइक पर आये और अनपेक्षित रूप से उन्होंने विषय ही बदल दिया – ‘औपनिवेशिक काल की पत्रकारिता’ पर बोलने घोषणा कर दी। इससे आयोजकों सहित सब लोग हतप्रभ रह गये, लेकिन शराफ़त का आलम यह रहा कि उन्हें सुना गया – और एक भी बार किसी ने टोका नहीं कि विषय पर आइए…और उसी वक्तव्य पर चर्चा भी हुई। यह ठीक है कि चर्चा के दौरान सवाल पूछे गये – हरिप्रसाद राय एवं ओमप्रकाश पांडेय जैसों ने एक-दो तीखे सवाल भी पूछे, लेकिन शैलेश सिंह जैसे ने तीखी बातों को मीठी गोली की तरह ‘विनम्र असहमति’ कहकर गटकाया। कुल मिलाकर इतना सहनशील गऊ है हमारा बुद्धिजीवी समाज और इसीलिए वक्ता इतना ढीठ भी है…। ढिठाई यह भी कि अपने पसंदीदा विषय पर भी क्रमबद्ध रूप से मुद्दों पर आधारित ऐसे विचार न थे वक्तव्य में, जो किसी निष्कर्ष तक ले जाते – बल्कि बीच-बीच में विषय से हटकर अप्रासंगिक फ़नी टिप्पणियाँ भी आती रहीं – ऐसे मनमाने व आत्ममुग्ध वक्ता ‘बहुत जग नाहीं’ ही होंगे…।

कविता-प्रस्तुतियाँ – विषय के अनुरूप आज़ाद भारत को व्यक्त करती कविताएँ भी थीं, जिनका चयन रमन मिश्र ने किया था और जो नामचीन कवियों की थीं। इससे पता लगता रहा कि आयोजकों ने काफ़ी सुबुद्धि से कार्यक्रम तैयार किया था। सबसे पहले ओमप्रकाश पांडेय ने चंद्रशेखर मिसिर द्वारा भोजपुरी में लिखित ‘कुँवर महाकाव्य’ के कुछ विख्यात छंद सुनाये, लेकिन दुर्दैव से उस दिन उनका गला खराब होने से अपेक्षित असर न पड़ा। निरालाजी की दो कविताएँ लक्ष्मी तिवारी ने, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, धूमिल व हितैषी की एक-एक कविता विजय कुमार ने और रघुवीर सहाय की एक कविता रमन मिश्र ने सुनायी, जो अपेक्षित रूप से असरदार रहीं…। लेकिन नयी पीढ़ी ने निराश किया। शाइस्ता खान ने कवि शैलेंद्र व बाबा नागार्जुन की कविताएँ सुनायीं, तो आशुतोष व सौरभ ने श्याम नारायण पांडेय व सुभद्रा कुमारी चौहान की…। और इन सबने न कोई तैयारी की, न कविता व उसकी संवेदना के प्रति इनका कोई जुड़ाव दिखायी पड़ा…। अशुद्ध उच्चारण…अटकन-भटकन… भाव कहीं, तो आवाज़ कहीं…और आत्म-प्रदर्शन का जज़्बा…!!

शताब्दी-स्मरण – कार्यक्रम की सबसे सधी व बहुत अच्छी तरह तैयार की गयी प्रस्तुति ‘अंक’ नाट्य-समूह के वरिष्ठ कलाकर अमन गुप्ता की थी – हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचना ‘एक लड़की पाँच दीवाने’ का पाठ, जिसके दो भाग अगले महीनों में पेश होंगे। आयोजकों ने बताया कि ‘शताब्दी स्मरण’ के रूप में परसाईजी को इसी तरह पूरे साल याद किया जाएगा। इसी क्रम में अगले कार्यक्रम से शैलेंद्रजी को भी अलग से स्मरण किये जाने की बात कही गयी…।

मौसम के अनुसार कजरी-गायन का कार्यक्रम भी था, लेकिन लोक-क्लासिक कजरियाँ सुनाने के सदुद्देश्य से रिकॉर्डेड प्रस्तुति का प्रयोग कारगर न हो सका…।

सम्पूर्ण कार्यक्रम के आकलन व अगले कार्यक्रम के विषय-निर्धारण की पेशकश का विचार भी स्वागत योग्य रहा, जिसे शैलेश सिंह ने बखूबी निभाया भी…। तय हुआ कि अगली ‘बतरस’ आगामी ७ अक्तूबर को होगी और विषय होगा – ‘स्मरण में बापू’

सुझाव – कुल सवा तीन घंटे चले कार्यक्रम पर प्रतिक्रिया के दौरान आगे से इसे दो घंटे में सम्पन्न करने के सुझाव भी आग्रह बनकर आये…इसके बावजूद सबकी फ़रमाइश पर सभा में मौजूद दो महत्त्वपूर्ण कवियों -राकेश शर्मा व रासबिहारी– को सुना भी गया – यह उत्साह व रसिकता भी ‘बतरस’ की प्रकृति रही है। कुर्सी लगे सभागार में सेमिनार की तरह चली ‘बतरस’ में पहले की बतरसों के चौपाल जैसा मज़ा न आने का उलाहना भी सुझाव बनकर आया और दोनो सुझाव सहर्ष माने गये।

उपस्थितों में जेएनयू (दिल्ली) के प्रो॰ रामबख्श, कवि नवीन चतुर्वेदी, मारकंडेय त्रिपाठी, जिलेदार राय, पुलक चक्रवर्ती, बी॰के॰ दुबे, अमरजीत सिंह, जया दयाल, विवेक त्रिपाठी, सरिता सिंह, सोनिया वर्मा, सुप्रिया यादव, प्रेमा मौर्य, कुंदन कुमार…आदि प्रमुख रहे…।

पूरे कार्यक्रम का सुनियोजित व सुबुद्ध संचालन रमन मिश्र ने किया। बताया गया कि कार्यक्रम के पूरे विधान में भी सबसे कारगर भूमिका उन्हीं की रही। डॉक्टर मधुबाला शुक्ल के दिये सद्भावपूर्ण आभार के साथ गोष्ठी का उपराम हुआ।

लेखक नामचीन साहित्य-अध्येता और संस्कृतिकर्मी हैं।