सत्यदेव त्रिपाठी । 
आजकल कोरोना-काल के जबड़े में फँसा है विश्व। सरकारी सजगता और राष्ट्रीय प्रयत्नों के परिणामस्वरूप सर्वाधिक आबादी के बावजूद अपने देश में कोरोना से विनाश का औसत निस्सन्देह सबके मुकाबले बहुत-बहुत कम रहा है। सप्रमाण व हस्तामलक सच यह भी उभर कर आया कि सबकुछ जानने-समझने के बावजूद इरादतन, आदतन या ज़हालतन यदि जमाती-मरकज़ी वाला काला अध्याय न जुड़ा होता, तो इसका प्रवाह उस तरह न आता, जैसा उस वक्त आया और काफी हद तक देश के कोरोना-प्रकोप का औसत बिगाड़ गया। मीडिया-तंत्र के पहले का समय होता, तो यह कारनामा कहीं दबा-छिपा रह जाता, लेकिन यह विद्युत्माध्यम उजले कर्म को भले भुलवा दे, ‘काले करम’ को बिजली की गति से क्षण भर में जन-जन तक पहुँचा देता है। फिर तो चैनलों पर बहसें शुरू हुईं कि महामारी से राष्ट्र की रक्षा महत्वपूर्ण है या राष्ट्र को खत्म कर देने की कीमत पर मुस्लिम समुदाय के रूढिवादी मज़हबी विश्वास। 

इस बहस का सबसे खतनाक पक्ष यह रहा कि आम मुसलमान तो धार्मिक रूढियों में फँसा ही रहा, इतनी साफ बात पर भी कोई मुस्लिम विचारक अपनी जमात के कृत्य को दोषी करार देने के लिए तैयार नहीं हुआ, बल्कि उस कृत्य की खुलकर व जमकर वकालत करता रहा। ऐसा कुछ अगर हिन्दू बाबाओं के भ्रष्टाचरण में हुआ होता, तो साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने का फरमान जारी हो जाता और हिन्दू चिंतक अपनी उदारता में मौनी बाबा बन जाता। गायिका कणिका कपूर के कोरोना-प्रदूषण तक के पक्ष में कोई हिन्दू चिंतक चूँ तक नहीं कर पाया, बल्कि जाति-धर्म भूलकर ऐसे कर्म की खुली निन्दा करता रहा। मुरादाबाद में मेडिकल दल पर सरे आम हमला करने जैसी ग़ैर कानूनी और निहायत अमानवीय घटना के दृश्य आँखों के सामने देखते हुए भी भर्त्सना तो क्या, उसे साफ शब्दों में गलत भर कहने वाला कोई मुसलमान प्रवक्ता सामने नहीं आया– बजुज भाजपा से जीतकर आये कुछेक लाभार्थियों के।

राष्ट्रीय अस्मिता की स्थापना

इसी के समानांतर कोरोना से डरी और तालेबन्दी (लॉक्ड आउट) से ऊबी-त्रस्त जनता के समयबिताऊ मनोरंजन के लिए सरकार ने ‘रामायण’, ‘महाभारत’ जैसे पौराणिक व लोकप्रिय धारावाहिकों के साथ ‘चाणक्य’ जैसे ऐतिहासिक व कलात्मक सीरियल भी दिखाने शुरू कर दिये थे। सरकार को पता था या नहीं, उसने इरादतन ऐसा किया या यूँ ही हो गया, पर इसने इस कोरोना-संकट में कौमी कट्टरता और उसकी गल्दराजी वाले इस खुला खेल फ़र्रूखाबादी के विषाक्त माहौल के सामने अखण्ड राष्ट्रीयता की व्यापक, सही व ज़हीन चेतना का मानो अमृत-कलश लाके रख दिया। ‘चाणक्य’ में हमारे भारत राष्ट्र को पदाक्रांत कर रहा है विदेशी आक्रांता अलक्ष्येन्द्र। उसके समक्ष अखिल राष्ट्र की एकता और राष्ट्रीय अस्मिता की पुरजोर स्थापना करने का नेतृत्त्व करता है एक शिक्षक ही- चाणक्य। ‘चाणक्य’ में प्रयुक्त शब्द ‘यवन’ अलक्ष्येन्द्र पर चाहे जितना फिट बैठता हो, पर मुस्लिम समुदाय के लिए रूढ़ यह शब्द 2300 साल पुराने इतिहास को कोरोना-युग का जीता-जागता वर्तमान अवश्य कर गया। कई बातों को कहने के लिए मुझ शिक्षक को विवश व तैयार भी कर गया, जिन्हें हम सोचते-जानते तो थे, पर ‘ये अपनी शराफ़त है कि हम कुछ नहीं कहते’।

हिंदी की उपेक्षा

लेकिन ‘हर इक बेज़ा तक़ल्लुफ़ से बग़ावत’ करते हुए आज साफ़-साफ़ बातें करें- वही सर्व सामान्य बातें, जो सब लोग जानते-बतियाते हैं, पर वैधानिक व आन्दोलनात्मक ढंग से उठाते नहीं। इसके लिए मुख़्तसर-सा ऐतिहासिक सर्वेक्षण भी दरकार है। असल में हम दो शब्दों से लगातार भागते रहे हैं- मुसलमान और अंग्रेजी। आजादी की लड़ाई की भाषा निर्विवाद रूप से हिन्दी रही और तभी इसने राष्ट्रभाषा होने की अपनी लायकियत सिद्ध कर दी थी। लेकिन आजादी मिलने के बाद आज तक संविधान में राष्ट्रभाषा न बन पायी। इसके पीछे थोड़ा हाथ तो उस समय के कुछ अंग्रेजी-परस्त एवं अंग्रेजी-मोह से ग्रस्त नेताओं का था और कुछ था बहुमत के बिखरने का, जिसे उत्तर-दक्षिण के विभाजन का राष्ट्रीय डर बनाकर पेश किया गया था। फिर वही सिद्ध हुआ, जिसका सूत्र गब्बर सिंह ने ‘शोले’ में 25 साल बाद दिया- ‘जो डर गया, वो समझो मर गया’। और हिन्दी मर नहीं गयी, लेकिन मृत्यु-शय्या पर अवश्य पड़ गयी है। इधर भारतीयता का दम भरने वाली भाजपा सरकार भी उसमें जान फूंकने का प्रयत्न न करके हिन्दी भाषी प्रदेशों की प्राथमिक शिक्षा तक में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय खोलने की कुनैन जैसी गोलियां कुछ और भी मामलों में दिये जा रही है। उन दिनों ‘अंग्रेजी हटाओ’ आन्दोलनों को कुचलकर ‘हिन्दी लाओ’ की समझौतापरस्ती पर लाया जाता रहा, परंतु हिन्दी को लाया कभी न गया।

छद्म भाईचारा

उधर आजादी की लड़ाई में हिन्दी की लायकियत की तरह अंग्रेजों के समक्ष डेढ़ सौ सालों तक हिन्दू-मुस्लिम, बल्कि भारतीय और मुस्लिम भी एक होकर लड़ते रहे। वह एकता उस वक्त की विवशता भी थी, जो मुसलमानों की तरफ से अधिक थी। क्योंकि उनकी संख्या तब तक आज की अपेक्षा कम थी और उनके पास अंग्रेजों की तरह वापस जाने का कोई ख़ास ठिकाना भी न था। उनके शासन की बुनियाद रखने वाला बाबर तो अपनी फरगाना रियासत से देशबद्र होकर ही आया था। अंग्रेजों के खिलाफ सम्मिलित लड़ाई में ही पहले के आक्रांता बनकर आये मुसलमान अपने को क्रूर हुक़्मरान से भारतवासी में बदलने की विवश चतुराई अपनाने लगे। हम भारतीयों का इन छद्म देशवासियों से भाईचारा विकसित हुआ, वरना तो उनकी सत्ता के पूरे समय में समस्त भारतीय जीवन व संस्कृति हर तरह के उनके अत्याचार-जुर्म एवं मान-मर्दन का वीभत्स शिकार बनती रही, जिनकी दास्तानों से पटा पड़ा है हमारा इतिहास व साहित्य। (जारी)