सत्यदेव त्रिपाठी।
स्वतंत्रता-संघर्ष के दौरान पनपे-विकसे भाईचारे का हश्र तो आजादी पाने के पहले से ही सामने आने लगा था। इसका बहुत बड़ा ठीकरा अंग्रेजों की ‘फूट डालो, राज करो’ की नीति के सर फोड़ा जाता है। यह मामला उस देहाती सास जैसा है, जो अपने बेटे की नालायकी का ठीकरा बहू के सर पर फोड़ती है- नाहक इल्जाम लगाके। अंग्रेजों की फूट की नीति ने तो सिर्फ़ आग में घी का काम किया। वह न होती, तो भी हश्र यही होता- भले गति थोड़ी धीमी होती, तरीके कुछ अलग होते, पर परिणाम यही होता। तब के इतिहास ने सिद्ध किया कि भाईचारा सिर्फ़ कहने की बात है। और हम भारतीयों को तो भाईचारा का मर्ज़ है।
हमने आज़ाद होते ही ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ का नारा भी दिया था, जिसका गुबारा एक दशक में ही फूट गया, जब भाई ने आक्रमण कर दिया। हिन्दू-मुस्लिम एकजुटता भी ठीक तभी फूटती, जब अंग्रेजों के खिलाफ आजादी मिलती। वह 25 साल पहले मिल गयी होती, तो पहले फूट जाता। आजादी 1947 के बदले 1970 तक खिंच जाती, तो 1965 से फूटना शुरू हो जाता। क्योंकि जब भी मिलती, तब जो भी मुहम्मद अली जिन्ना होता, अपना चेहरा तभी नुमाया करता, जब हुकूमत का तख़्तेताऊस दिखने लगता। क्योंकि जिन्ना एक प्रवृत्ति है, हर देश-काल में जिन्ना होता है- अलग-अलग नाम-रूप धरकर। लेकिन गान्धी भी एक प्रवृत्ति है– बड़ी दुर्लभ प्रजाति की है। सदियों- सहस्राब्दियों में पैदा होती है। मसीहाई या पैगम्बरी प्रवृत्ति कहने से शायद ठीक अर्थ निकल आये।
पूरा देश महात्मा नहीं है
गान्धी और तत्कालीन अवाम को सबसे अधिक एटनबरो के जिन्ना ने समझा। ‘गान्धी’ फिल्म में एक दृश्य आता है, जिसमें गान्धीजी पाकिस्तान बनाने की ज़िद छोड़ने के लिए मनाते हुए जिन्ना के सामने प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव रखते हैं और नेहरूजी को समझा लेने का आश्वासन देते हैं। हो सकता है, यह इतिहास भी हो। यदि जिन्ना मान जाते, तो नेहरूजी क्या करते और इतिहास का क्या होता, की चर्चा यहाँ अवांतर होगी, पर इतना अवश्य कहें कि नेहरू का मानना वैसा ही नहीं होता, जिस तरह सरदार पटेल मान गये थे और जिसका असर भावी राजनीति पर भले न पड़ा हो, व्यवस्था पर इतने दूरगामी असर हुए कि उनके जलजले आज तक सामने आते जा रहे हैं। खैर, फिल्म में जिन्ना का जवाब है- ‘बापू आप महात्मा हो सकते हैं, पूरा देश महात्मा नहीं है’। कथन के उत्तरार्ध ‘पूरा देश महात्मा नहीं है’ की सचाई बहुत बड़ी है, जो विभाजन के क़त्ले आम में तभी उजागर हो गयी। लेकिन इसी क़त्लेआम ने ‘गान्धी के महात्मा हो सकने’ की सचाई भी उघाड़ दी। लेकिन इस बात को गान्धी बाबा का महात्मा न समझ पाया। या उन्हें अपनी महात्माई पर भरोसा था कि वे देश में दोनों कौमों को साथ-साथ रहने लायक बना देंगे। तभी तो उन्होंने पाकिस्तान बन जाने के बावजूद मुसलमानों को स्वेच्छा से यहाँ रहने की छूट दे दी। उन्हें अपनी महात्माई तब समझ में आयी होगी, जब कांग्रेस को भंग करने के उनके विचार को उन्हीं कांग्रेसियों ने विनम्रता से अस्वीकार नहीं, सफाई से दरकिनार कर दिया।
लेकिन तब तक वे हिन्दू-मुस्लिम का इतिहास बना चुके थे, जिसका एक पक्ष यह भी है कि हमें भाईचारे का रोग ही नहीं है, उदारता में हम भगवान भी हैं। मुसलमानों को यहाँ नागरिक की तरह नहीं, अतिथि की तरह रखा गया। जैसे हम स्वयं नमक-रोटी खाके अतिथि को खीर-पूरी खिलाने की दरियादिली रखते हैं, उसी तरह राष्ट्र-हित के लिए सारे कष्ट हम भारतीय उठायें और नृशंस हमालावर से देशवासी का बाना धरे मुस्लिमों को वीआइपी बनाके रखें। आजादी के तुरत बाद जब राष्ट्र-हित में या नारी-पुरुष समता या नारी-अस्मिता के तहत बहुविवाह रोकने का कानून बना, तो अल्पसंख्यकों के लिए अलग कानून के मुताबिक मुस्लिम- समाज को इससे मुक्त रखा गया। वे शरीयत के मुताबिक चार विवाह कर सकते थे, कर सकते हैं। कालांतर में बढ़ती जनसंख्या पर नियंत्रण के लिए ‘दो या तीन बच्चे, होते हैं घर में अच्छे’ वाले परिवार-नियोजन की योजना भी मुसलमानों पर लागू नहीं होती- याने उनकी चार-चार पत्नियां और चाहे जितने बच्चे। क्या मुस्लिम आबादी से देश की जनसंख्या नहीं बढ़ती? एक राष्ट्र में राष्ट्रीय हित के लिए धर्म के नाम पर ऐसा भेद-भाव!
कोई ठोस पहल नहीं हुई
यह कैसी धर्मनिरपेक्षता और कैसी राष्ट्रीयता? समझते-मानते सब हैं, पर वह कौन सा डर व संकोच है, जो सामने बोलने नहीं देता, पर आड़ में बोलते हैं- ‘पत्थरों की ओट में जा-जाके बतियाती तो है’! ऐसे में कार्यवाही की तो बात ही क्या! आबादी की बढ़ोत्तरी के अनुपात का छोटा-सा चश्मदीद उदाहरण- मेरे बचपन में गाँव के एक घर मुसलमान के दो भाइयों से आज तीसरी पीढ़ी में बयालीस बच्चे हैं। इनका परिवार बढ़ा और पार्टियों का वोट बैंक। यह आबादी एक और काम आती है- देश-विरोध की आतंकी गतिविधियों में जितने भी पकड़े जाते हैं, प्राय: सब के सब मुसलमान… और इनका संचालक पाकिस्तान। सैकडों मामले पकड़े गये। पचासों फिल्में बनीं। पर कोई ठोस पहल नहीं हुई, रोकने के लिए कारग़र कदम नहीं उठे। याने पाकिस्तान बन जाने के बाद 1965 तो हुआ ही, शांति कभी हुई नहीं।
चाणक्य-सी दृढ़ता और संकल्प की ज़रूरत
कोरोना की तालेबन्दी के दौरान सरकार ने बेहद लोकप्रिय सीरियल ‘महाभारत’ भी दिखाया, जिसमें हस्तिनापुर के बँटवारे की वेदना हर हस्तिनापुर-प्रेमी के मन में सालती रही और सत्ता के लोभी दुर्योधन-दुशासन… आदि लोग छल-बल से रोज़ उत्पात मचाने में लगे रहे। इन्द्रप्रस्थ को भी हड़प लेने की नीच मंत्रणाएं होती रहीं, चालें चली जाती रहीं। ‘महाभारत’ की इस अनुहारि को चाणक्य की-सी दृढ़ता और संकल्प की ज़रूरत है।
यहाँ शादी-संतान की चर्चा पर इतना ज़ोर देने का सबब यही कि आबादी उनकी ताकत है, जिससे राष्ट्र की अखण्डता को खतरा सबसे ज्यादा है। या यूँ कहें कि राष्ट्र को पुन: दो टुकड़े करने का यही आधार होगा। मुस्लिम आबादी आज ही 30 % हो गयी है। दस एक सालों में 40 प्रतिशत होते ही वे अलग देश की माँग करेंगे ही करेंगे।
तुच्छ व अमानवीय
कोई उदारवादी, प्रगतिशील या मनुष्यता का दम भरने वाला यह गारंटी ले सकता है कि ऐसा नहीं होगा। मैं जानता हूँ कि इस विवेचन पर हमारे देश के कई लोग, कुछेक समूह नाक-भौं सिकोड़ेंगे, हमें संकुचित दिमांग वाला व हिन्दू साम्प्रदायिकता का शिकार कहेंगे। सबसे आगे तो रहेंगे प्रगतिशील सोच का दम भरने वाले वे धड़े, जिनकी कोई हैसियत न राजनीति में रह गयी है, न समाज में। आपस में भी कोई मतैक्य कभी न रहा। जो साहित्य में ख़ुद अपने संगठन वालों को किसी पद पर बिठाने, अन्यान्य फायदा दिलाने व कुल-विस्तार के लिए जातिवादी रुग्णता की सारी हदें पार कर जाते हैं, वही इस सुबूतों के जलजलों के साथ कही जा रही बेबाक़ बात पर हमें तुच्छ व अमानवीय ठहरायेंगे।
भविष्य खतरनाक
लेकिन सवाल यह है कि जब आधी मनुष्यता के खिलाफ चले आ रहे निहायत बर्बर कृत्य ‘तीन तलाक’ को भाजपा सरकार द्वारा रोकने के युगांतकारी कदम पर बेशर्म बहसें होती रहीं। जब सौ सालों से जम्मू-कश्मीर में हिन्दू (ख़ासकर कश्मीरी पण्डित) सरेआम हत्या व देशनिकाला के शिकार होते रहे और कोई कुछ न कर सका, लेकिन 370 आया, तो इतनी चिल्ल-पों मची। और कोरोना की महामारी पर जमाती करतूतों के पक्ष में निर्लज्ज बहसें होती रहीं… तो अलग देश की माँग को कौन रोक सकेगा? तब एक जिन्ना हुए, इस बार अनेक जिन्ना न उठ खड़े होंगे, इसकी गारंटी कौन लेगा? यहाँ तो उन जिन्नाओं को सही सिद्ध करने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी नुमाइन्दें देश भर में पर्दों पर दिन-रात कान फाड़ने लगेंगे! तो फिर मनुष्यता के पक्ष में अनंत बहस करते लोगों में से कोई या कुछेक गान्धी नहीं खड़े होंगे, यह कौन कह सकता है? फिर क्या होगा? जिस भारत से कटकर एक पाकिस्तान बन गया, दूसरा बनने के बाद कितना बचा रहेगा भारतवर्ष?
जैसे आज अंग्रेजी के सामने हिन्दी और सभी भारतीय भाषाएं मर रही हैं, तब देश को भी कटना होगा, खण्ड-खण्ड होना होगा। इस खतरनाक भविष्य के लिए आज से भी एकजुट होकर खड़ा हुआ जाये, तो विखडण्न से शायद अब भी बचा जा सके। राष्ट्र के अखण्ड अस्तित्त्व से बड़ा भी कुछ हो सकता है क्या! (समाप्त)