डॉ. श्रीगोपाल नारसन।
अगर किसी कारणवश मृत्यु तिथि पर श्राद्ध करने में सक्षम न हो, तो वो मात्र अमावस्या तिथि पर श्राद्ध कर सकता है।जिन पूर्वजों की पुण्यतिथि ज्ञात नहीं है, उनका श्राद्ध भी अमावस्या तिथि पर किया जा सकता है, इसीलिये अमावस्या श्राद्ध को सर्वपितृ मोक्ष अमावस्या के नाम से भी जाना जाता है। श्राद्ध पक्ष के दिनों में ।।ऊॅं नमो भगवते वासुदेवाय।।मन्त्र का वाचन करना चाहिए। जिस दिन श्राद्ध हो उस दिन श्राद्ध की शुरूआत और समापन में ।।देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्यन एव च। नमः स्वा्हायै स्व धायै नित्ययमेव भवन्युव त।।का वाचन करें।
पितर दो प्रकार के होते हैं एक दिव्य पितर और दूसरे पूर्वज पितर। दिव्य पितर ब्रह्मा के पुत्र मनु से उत्पन्न हुए ऋषि हैं। पितरों में सबसे प्रमुख अर्यमा हैं जिनके बारे में गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि पितरों में प्रधान अर्यमा वे स्वयं हैं। दूसरे प्रकार के पितर पूर्वज होते हैं। पितृपक्ष में अपने इन्हीं पितरों को लोग याद करते हैं और इनके नाम से पिंडदान, श्राद्ध और ब्राह्मण भोजन करवाते हैं। कठोपनिषद्, गरुड़ पुराण, मार्कण्डेय पुराण के अनुसार पितर अपने परिजनों के पास पितृपक्ष श्राद्ध के समय आते हैं और अन्न जल एवं आदर की अपेक्षा करते हैं। जिन परिवार के लोग पितृ पक्ष के दौरान पितरों के नाम से अन्न जल दान नहीं करते। श्राद्ध कर्म नहीं करते हैं। उनके पितर भूखे-प्यासे धरती से लौट जाते हैं। इससे परिवार के लोगों को पितृ दोष लगता है। इसे पितृ शाप भी कहते हैं। इससे संतान प्राप्ति में बाधा आती है। परिवार में रोग और कष्ट बढ जाता है।
पितृ पक्ष में जिन तिथियों में पूर्वज यानी पिता, दादा, परिवार के लोगों की मृत्यु हुई होती है उस तिथि को उनका श्राद्ध किया जाता है। श्राद्ध का नियम है कि दिन के समय पितरों के नाम से श्राद्ध और ब्राह्मण भोजन करवाना चाहिए। देवताओं की पूजा सुबह में और पितरों की दोपहर में होती है। तर्पण विधि – सर्वप्रथम अपने पास शुद्ध जल, बैठने का आसन (कुशा का हो), बड़ी थाली या ताम्रण (ताम्बे की प्लेट), कच्चा दूध, गुलाब के फूल, फूल-माला, कुशा, सुपारी, जौ, काली तिल, जनेऊ आदि पास में रखे।
आसन पर बैठकर तीन बार आचमन करें।
ॐ केशवाय नम:,
ॐ माधवाय नम:,
ॐ गोविन्दाय नम: बोलें।
आचमन के बाद हाथ धोकर अपने ऊपर जल छिड़के अर्थात् पवित्र होवें, फिर गायत्री मंत्र से शिखा बांधकर तिलक लगाकर कुशे की पवित्री (अंगूठी बनाकर) अनामिका अंगुली में पहन कर हाथ में जल, सुपारी, सिक्का, फूल लेकर निम्न संकल्प लें। अपना नाम एवं गोत्र उच्चारण करें फिर बोले अथ् श्रुतिस्मृतिपुराणोक्तफलप्राप्
फिर उत्तर मुख करके जनेऊ को कंठी करके (माला जैसी) पहने एवं पालकी लगाकर बैठे एवं दोनों हथेलियों के बीच से जल गिराकर दिव्य मनुष्य को तर्पण दें, इसके बाद दक्षिण मुख बैठकर, जनेऊ को दाहिने कंधे पर रखकर बाएं हाथ के नीचे ले जाए, थाली या ताम्र पात्र में काली तिल छोड़े फिर काली तिल हाथ में लेकर अपने पितरों का आह्वान करें।
ॐ आगच्छन्तु में पितर इमम ग्रहन्तु जलान्जलिम
फिर पितृ तीर्थ से अर्थात् अंगूठे और तर्जनी के मध्य भाग से तर्पण दें। जो स्वजन अपने शरीर को छोड़कर चले गए हैं चाहे वे किसी भी रूप में अथवा किसी भी लोक में हों, उनकी तृप्ति और उन्नति के लिए श्रद्धा के साथ जो शुभ संकल्प और तर्पण किया जाता है, वह श्राद्ध है। माना जाता है कि सावन की पूर्णिमा से ही पितर मृत्यु लोक में आ जाते हैं और नवांकुरित कुशा की नोकों पर विराजमान हो जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि पितृ पक्ष में हम जो भी पितरों के नाम का निकालते हैं, उसे वे सूक्ष्म रूप में आकर ग्रहण करते हैं। केवल तीन पीढ़ियों का श्राद्ध और पिंड दान करने का ही विधान है।श्राद्ध स्त्री या पुरुष, कोई भी कर सकता है। श्रद्धा से कराया गया भोजन और पवित्रता से जल का तर्पण ही श्राद्ध का आधार है।
श्राद्ध का अनुष्ठान करते समय दिवंगत पूर्वज का नाम और उसके गोत्र का उच्चारण किया जाता है। परिवार का उत्तराधिकारी या ज्येष्ठ पुत्र ही श्राद्ध करता है। जिसके घर में कोई पुरुष न हो, वहां स्त्रियां ही इस परम्परा को निभाती हैं। परिवार का अंतिम पुरुष सदस्य अपना श्राद्ध जीते जी करने के लिए स्वतंत्र माना गया है। संन्यासी वर्ग अपना श्राद्ध अपने जीवन में कर ही लेते हैं।जब महाभारत के युद्ध में कर्ण का निधन हो गया था और उनकी आत्मा स्वर्ग पहुंच गई, तो उन्हें रोजाना भोजन की बजाय खाने के लिए सोना और गहने दिए गए।
इस बात से निराश होकर कर्ण की आत्मा ने इंद्र देव से इसका कारण पूछा। तब इंद्र ने कर्ण को बताया कि आपने अपने पूरे जीवन में सोने के आभूषणों को दूसरों को तो दान किया, लेकिन कभी भी अपने पूर्वजों को दान नहीं दिया। तब कर्ण ने उत्तर दिया कि वह अपने पूर्वजों के बारे में नहीं जानता है और उसे सुनने के बाद, भगवान इंद्र ने उसे 15 दिनों की अवधि के लिए पृथ्वी पर वापस जाने की अनुमति दी ताकि वह अपने पूर्वजों को भोजन दान कर सके। तब से इसी 15 दिन की अवधि को पितृ पक्ष के रूप में जाना जाता है।(एएमएपी)